पवित्रतम तीर्थों में एक है अद्भुत, चमत्कारी एवं अलौकिक गुफा: पाताल भुवनेश्वर

भारतवर्ष के पवित्रतम तीर्थों में एक पाताल भुवनेश्वर भगवान श्री भुवनेश्वर की महिमा एवं अलौकिक गाथा का साकार स्वरूप है। देवभूमि उत्तराखण्ड के गंगोलीहाट स्थित श्री महाकाली दरबार से लगभग 11 किमी. दूर भगवान भुवनेश्वर की यह गुफा वास्तव में अद्भुत, चमत्कारी एवं अलौकिक है। यह पवित्र गुफा जहां अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है, वहीं अनेकानेक रहस्यों से भरपूर है। इस गुफा को पाताल लोक का मार्ग भी कहा जाता है। सच्ची श्रद्वा व प्रेम से इसके दर्शन करने मात्र से ही हजारों हजार यज्ञों तथा अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है और विधिवत पूजन करने से अश्वमेघ यज्ञ से दस हजार गुना अधिक फल प्राप्त हो जाता है।

इसके अतिरिक्त पाताल भुवनेश्वर का स्मरण और स्पर्श करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि तैतीस कोटि देवता भगवन भुवनेश्वर की अखण्ड उपासना हेतु यहां निवास करते हैं तथा यक्ष, गंधर्व, )षि-मुनि, अपसराएं, दानव व नाग आदि सभी सतत पूजा में तत्पर रहते हैं तथा भगवान भुवनेश्वर की कृपा करते हैं।
स्कन्ध पुराण के मानस खण्ड में भगवान श्री वेदव्यास ने इस पवित्र स्थल की अलौकिक महिमा का बखान करते हुए कहा है- भुवनेश्वर का नामोच्चार करते ही मनुष्य सभी पापों के अपराध से मुक्त हो जाता है तथा अनजाने में ही अपने इक्कीस कुलों का उद्वार कर लेता है। इतना ही नहीं अपने तीन कुलों सहित शिवलोक को प्राप्त करता है। इसे सृष्टि की अद्भुत कृति बताते हुए श्री वेदव्यास आगे कहते हैं कि इस पवित्र गुफा की महिमा और रहस्य का वर्णन करने में त्रृषि-मुनि तपस्वी तो क्या देवता भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं।ब्रह्माण्ड के समान ही यह गुफा भी अनन्त रहस्यों से सम्पूर्ण है।
पाताल भुवनेश्वर को बाल भुवनेश्वर भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने यहां बाल रूप में प्राणी मात्र के कल्याण हेतु सहस्त्रों वर्षों तक तप किया था। पाताल भुवनेश्वर गुफा से लगभग 200 मी. पहले भगवान वृद्व भुवनेश्वर का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है जो अपने आप में हजारों हजार सदियों का इतिहास, धर्म एवं सनातन संस्कृति के साथ ही दिव्य कलाओं को समेटे हुए है। बाल भुवनेश्वर के दर्शन से पूर्व वृृद्व भुवनेश्वर के दर्शन जरूरी माने जाते हैं।
गुफा के भीतर प्रवेश करते ही सर्वप्रथम नृसिंह भगवान की मूर्ति के दर्शन होते हैं। 82 सीढ़ियां उतरकर जंजीरों के सहारे 90 फुट नीचे प्रथम तल में पहुंचा जाता है और एक अद्भुत किन्तु सुखद आभास होने लगता है। जहां-जहां दृष्टि जाती है वहीं कोई न कोई दिव्य मूर्ति, कलाकृति के दर्शन होने लगते हैं। ऐसा लगता है मानो सृष्टि नियंता भगवान ब्रह्मा जी ने किसी विशेष कल्याणकारी प्रयोजन हेतु यहां एक अलौकिक सृष्टि रची हुई है। अष्ट धातुनुमा विचित्र चट्टानों पर उकेरी गई आकर्षक एवं जीवन्त कलाकृतियां धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, शक्ति, भक्ति, आध्यात्म, संस्कृति, इतिहास तथा सनातन मर्यादा का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं।
कहा जाता है कि इस गुफा से पाताल ;नीचे की ओर कुल सात तल यानि लोक स्थित है, परन्तु दर्शन-पूजन, यज्ञ-हवन इत्यादि के लिए प्रथम तल के बाद नीचे उतरने की अनुमति नहीं
है। प्रथम दृष्टि में तो यह सुरक्षा कारण ही माना जाता है किन्तु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कठिन भक्ति, जप-तप, अनुष्ठान इत्यादि से भुवनेश्वर की विशेष कृपा प्राप्त सि(-योगी को ही ऐसा सौभाग्य मिलता है। आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने गंगोलीहाट स्थित महाकाली दरबार के दर्शन के पश्चात जब यहां आकर भगवन भुवनेश के दर्शन किये तो स्वयं को धन्य कहा। इस गुफा के प्रथम तल में विचरण करते हुए जगद्गुरू ने अखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान देवी-देवताओं, भूमण्डल के सभी पवित्र तीर्थों, देवगणों तथा क्षेत्रपालों को एक साथ भुवनेश्वर के चरणों में ध्यानस्थ देखकर कहा कि इस महानतम तथा श्रेष्ठतम तीर्थ के दर्शन जन्म जन्मान्तरों के पुण्य कर्मों के बाद भी दुर्लभ हैं। शंकराचार्य को भगवान भुवनेश के दर्शन महाकाली की प्रेरणा तथा कृपा से ही संभव हो पाये थे। यहां श्री भुवनेश्वर तथा सभी देवी-देवताओं की विधिवत पूजा-अर्चना के पश्चात अंततः इस परम शक्ति को कीलित किया। साथ ही लोक कल्याण की दृष्टि से भगवान भुवनेश्वर की पूजा करने-कराने का दायित्व समीपवर्ती गांव के निवासियसों को सौंप गये*
गुफा के प्रथम तल में सर्वप्रथम शेषनाग के विशाल फन तथा उसके विषकुण्ड के दर्शन होते हैं। यहां शेषनाग क्षेत्रपाल के रूप में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि क्षेत्रपाल की अनुमति बिना भगवान भुवनेश के दर्शन के संभव नहीं हैं।

स्कंद पुराण के मानस खण्ड में एक कथा प्रसंग के अनुसार राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए इसी स्थान पर एक अद्भुत यज्ञ किया था। कथा के अनुसार एक बार राजा परीक्षित ने प्रहसन भाव में श्रृंगी त्रृषि के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया। इस पर त्रृषि पुत्र उलंग को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने राजा को सांप के डंसने से मृत्यु का श्राप दे दिया। अपने बचाव के लिए तब राजा ने एक विचित्र यज्ञ का आयोजन कर डाला और सम्पूर्ण भूतल व पाताल में मौजूद सांपों-नागों का हवन कर दिया। परन्तु तक्षत नाग देवराज इन्द्र के आसन के नीचे छुप गया। इन्द्र का यज्ञ चल रहा था, परीक्षित को भी निमंत्रण था। वहां तक्षत नाग ने राजा परीक्षित को डस कर उनके प्राण हर लिये। घटना के सात दिन बाद कलयुग आरंभ हुआ, फिर परीक्षित की मृत्यु हुई। शेषनाग की रीड़ की हड्डियां यहीं से समूची पृथ्वी के भीतर फैली बतायी जाती हैं।

– रमाकान्त पन्त

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