विकास या सत्ता की भूख,क्या है बिहार की राजनीति

2019 का लोकसभा चुनाव इस बार बिहार में एक अलग ही रंग में दिखेगा , और यह चुनावी रंग कैसा होगा सभी दलों को बेसब्री से इंतजार है। बिहार की राजनीति कभी भी साफ और सहज नही रही ।
यहाँ की राजनीति जाति के आधार पर निर्भर करती है , और यहाँ के नेता इसे अच्छी तरह से समझते हैं , हर चुनाव में चाहे वो पंचायत चुनाव हो या विधान सभा की चुनाव या फिर लोकसभा की चुनाव सब जाति के ऊपर निर्भर है ।
राज्य में अलग अलग राजनीति दल के लोग हमेशा से एक विशेष जाति को टारगेट कर चुनाव लड़ते आये हैं और जीत कर सत्ता में आते है ।
मुस्लिम समुदाय और यादव समुदाय के लोग उसी पार्टी को वोट करते है जो सिर्फ उसकी बातों को कहते हैं उनको लगता है कि यही वो पार्टी है जो हमारे हक के लिए लड़ते हैं , बाद में भले ही उसका विकास हो या न हो , उसकी गरीबी , बेरोजगारी दूर हो या न हो , राजपूत ब्राह्मण की अलग पार्टी , ओबीसी बनिया की अलग पार्टी । कभी कभी तो ऐसा लगता है लोग इस समाज मे अलग अलग भागो में बंट गए हैं । लगता क्या है, सही में बंट ही गए है । यही वजह है कि किसी भी समुदाय का आज तक समुचित विकास नही हो पा रहा है। गौर करने वाली बात है कि जाति के नाम पर या धर्म के नाम पर हम बंट गए हैं , या फिर हमें बाँट दिया गया है । ये समझने की जरूरत है। अटकलें लगाई जा रही हैं कि आखिर नीतीश कुमार ने ऐसा क्यों किया, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में राज्य की बागडोर उनके हाथ में है.

पिछले कुछ समय से बिहार की राजनीति में नीतीश को अपने आधार के खिसकने का डर पैदा हो गया था. असल में उनके और बीजेपी के वोट बैंक एक दूसरे से ‘ओवरलैप’ करते हैं, दोनों का आधार उच्च जातियों, गैर यादव पिछड़ी जातियों, अति पिछड़ी और ‘महा दलित’ जातियों में है. नीतीश के लिए अपनी छवि बहुत अहमियत रखती है. भारतीय जनता पार्टी की ओर से उन पर इसी कारण धावा बोला जा रहा था कि वो भ्रष्टाचार से समझौता कर रहे हैं. अगर उनका इस्तीफ़ा नहीं होता तो आने वाले दिनों में ये हमला और बढ़ता.

मुख्यमंत्री रहते लालू के साथ नीतीश को ज़्यादा आज़ादी हासिल थी क्योंकि महागठबंधन में लालू ज़्यादा दबाव में थे.अगर नीतीश महागठबंधन में रहते तो विपक्षी राजनीति का हिस्सा भी बनते.

जहां तक बीजेपी की बात है, वो 2019 के आम चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार में अपनी बढ़त को बनाए रखना चाहती है. इनके बिना केंद्र की सत्ता में दोबारा आ पाना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा.

अभी दोनों राज्यों में उनके पास 102 लोकसभा सीटें हैं. इसलिए बिहार में नीतीश को अपने पक्ष में लाना उनके लिए बहुत ज़रूरी था. इसके मार्फ़त उनकी नज़र राज्य की उच्च जातियों, मध्य वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग और दलित तबके को संगठित करने पर है.

बिहार में नीतीश ने जो कुछ किया, वो राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई है, ये लड़ाई न तो सिद्धांत की है न ही विचारधारा की है. न ही इसमें ईमानदारी बनाम ग़ैर ईमानदारी का मुद्दा है.

दूसरा, बिहार के लिए केंद्र से पैसा नहीं आ रहा था. लालू के साथ नीतीश का जो दो साल का कार्यकाल रहा है उसे बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता. स्थानीय लोगों के पास कहने को ऐसा कुछ नहीं है जो उन्होंने इस दौरान ख़ास किया हो.

लोग उनके इससे पिछले कार्यकाल को ही याद करते हैं. इस बात को लेकर नीतीश खुद चिंतित थे.

और तीसरा, नीतीश का वोट बैंक कभी भी सेक्युलर वोट बैंक नहीं रहा है. उनका वोट बैंक बीजेपी के वोट बैंक से ओवरलैप करता है. जब नीतीश ने नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक पर पक्ष लिया था तो उसका कारण था कि उनके जनाधार में भी ऐसी ही भावना थी.

– पूर्णिया बिहार से शिव शंकर सिंह

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

किसी भी समाचार से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है।समाचार का पूर्ण उत्तरदायित्व लेखक का ही होगा। विवाद की स्थिति में न्याय क्षेत्र बरेली होगा।