आखिर इनका दोष क्या है?

अनुराग सक्सेना

कोविड-19 के प्रकोप से जहां पूरा विश्व लड़ रहा है देश की सरकारें रणनीति बना रहीं है और काम कर रही है। भारत में भी इस महामारी की रोकथाम के लिए जनता कर्फ्यू का आव्हान कर जनता को विश्वास में लेकर लाॅक डाउन लगा दिया गया तीन चरणों के लाकडाउन के बाद अब चौथे चरण की तैयारी है लेकिन इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित होने बाले मजदूर वर्ग का क्या दोष था।
14 मई को भी देश में तीन हादसों में 16 मजदूर मरे गए। कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र में 16 मजदूर मालगाड़ी से कट कर मर गए। कोरोना वायरस के मद्देनजर घोषित लॉकडाउन की वजह से कोई 25 करोड़ मजदूर सड़कों पर है। ट्रेन, बस आदि वाहन नहीं मिलने पर पैदल ही सड़कों पर चल रहे हैं। सवाल उठता है कि मजदूरों की इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन हैं? देश में 50 वर्षों तक शासन करने वाली कांग्रेस और भाजपा की सरकार यह दावा करती रही कि मजदूरों के लिए बहुत कुछ किया गया है। सरकारों के इतने दावों के बाद भी देश का मजदूर वर्ग सड़कों पर है। लॉकडाउन में लोगों की मदद के लिए केन्द्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए का पैकेज भी जारी कर दिया, लेकिन फिर भी मजदूरों का पलायन नहीं रुक रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि 20 लाख करोड़ रुपए का फायदा कौन उठाएगा? सरकारें माने या नहीं, लेकिन देश की नई पुरानी नीतियों की वजह से मजदूरों की भलाई की कोई योजना नहीं है। जब फैक्ट्री मालिक ठेकेदार के जरिए मजदूरों से काम करवाएगा, तब ऐसे परिणाम सामने आएंगे। अधिकांश फैक्ट्री मालिक सीधे तौर पर मजदूरों की भर्ती नहीं करते। चूंकि ठेकेदार द्वारा अनुबंध पर काम करवाया जाता है, इसलिए मजदूर हमेशा ही दिहाड़ी मजदूर बना रहता है। ऐसे में फैक्ट्री मालिक की कोई जवाबदेही नहीं होती। सरकार भले ही उद्योगपतियों को लोन के तौर पर 20 लाख करोड़ रुपया बांट दे, लेकिन मजदूर का कोई भला होने वाला नहीं है। यदि फैक्ट्री मालिक और मजदूर के बीच अच्छे संबंध होते तो आज मजदूर की इतनी दुर्दशा नहीं होती।
मजदूर भी इस देश का नागरिक है और यदि 25 करोड़ से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हो तो देश के विकास की योजना बनाने वालों पर प्रश्न चिन्ह लगता है। सरकारें दावा करती है कि जरुरतमंद गरीब लोग के खातों में नकद राशि जमा करवाई जा रही है। राशन की दुकानें से खाद्य सामग्री नि:शुल्क दी जा रही है। सवाल उठता है कि जब देश का सर्वहारा वर्ग परिवार सहित सड़कों पर है तो फिर इन योजनाओं का लाभ कौन ले रहा है? जाहिर है कि सरकारों के दावे और जमीनी हकीकत में रात दिन का अंतर है।

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