सोंच! वन ही है जीवन का आधार

उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल- रसायन और भौतिकता के दौर में हम जहां चीजों को अपने अनुरूप ढाल रहे है वहीं एक बात भूल रहे है कि मानव संसाधन तेजी से खत्म भी हो रहे है। हम कुछ भी कर ले मगर प्रकृति से आगे नही निकल सकते है अगर कोशिस भी कर ली तो समझो बिनाश निश्चित है।

आज बात वनों की कर रहा हूँ जिस के अत्यधिक दोहन से हमारा जीवन खरते में पड़ चुका है पर्यावरण में परिवर्तन बहुत तेजी से आरहा है जिस का सीधा असर मानवजाति पर व सभी प्राणियों पर पड़ रहा है।

अनेकों जीव जंतु बिलुप्त होने की कगार पर खड़े है। तो सोचो कल मानव जाति को भी किस मुस्किल का सामना करना पड़ेगा। किसी जमाने में कुछ ही रोग हुआ करते थे। जिन का इलाज घरेलू भी था और सस्ता भी था मगर आज हम प्रायः देख रहे है एक नई रहस्यमयी बीमारी का जन्म हो रहा है जिस का इलाज खोजने में वर्षों लग रहा है। यह वज्ज है धरती की ओजोन परत में आये बदलाव की मौसम में आये बदलाव की वजह से। धरती के इर्दगिर्द सुरक्षा परत धीरे धीरे कमजोर पड़ रही है। भारत के 13 राज्य आज भयानक जल संकट से जूझ रहे है। राजस्थान में ही 15 जिल्ले सूखे की मार झेल रहे है। महाराष्ट्र के 11 जिल्ले, उत्तराखण्ड के 4 जिल्ले उत्तरप्रदेश के 22 जिल्ले मध्यप्रदेश के 10 जिल्ले उड़ीसा तमिलनाडु तिलनगना झारखण्ड के 17 जिल्ले भी इस जल संकट की मार झेल रहे है।

हम को कुछ इस तरह के उपाय करने चाहिए जिस से पर्यावरण भी बना रहे और जीवनशैली भी बरकरार रहे,,,श्री अटल बिहार व श्री राममोहन लोहिया श्री सतगुरु जग्गी जी की उन योजनाओ पर किसी ने ध्यान नही दिया जिन में नदियों को आपस में जोड़ने की बात है। आज देश में कहीं सूखा कहीं बाड़ की स्थिति बनी हुई है। अगर सभी नदियों को जोड़ा जाए तो सारी समस्या खत्म हो जाएगी। कावेरी जल बिबाद,सतलुज जल बिबाद जैसी घटनाएं भी रुक जाएगी।

कुछ कठोर कदमों के साथ हम सब को आगे बढ़ना होगा भविष्य में हम को पानी की बहुत आवश्कता होने वाली है सऊदी से आज हम तेल का ब्यापार कर रहे है वो दिन भी आने वाला है जब किसी अन्य देश से पानी का ब्यापार चलेगा। इस के लिए हम आज ही तैयार रहे तो सही है दुनियाँ के 13 देश आज ग्राउंड-D के दायरे में है। कुछ कदमों को कारगर करिके से उठाए हम तो सही है।

जैसे-: जंगल में गिरी पेड़ों का उपयोग,जंगलों में फलदार पेड़ लगाना,लिप्टिस चीड़ जैसे पेड़ों को खत्म करना,जंगलों में खाल बनाना,नदी नालों व जंगलों में चकडाम बनाना,पानी के स्रोतों में पौधे लगाना, जंगल में आग लगाने वाले को कठोर आजीवन कारावास और पौधा रोपण का काम देना,पर्यावरण विदित लोगों को सँगठिक कर के कार्य करना,किसानों के लिए वन अधिनियम में ढिलाई देना,ग्रामीणों का मुख्य आय वन से जोड़ना उन के द्वारा वनों का संरक्षण करवाना,आग बुझाने के आधुनिक तरीके अपनाना,ग्राम पंचायत को वन सम्पदा की जिम्मेदार से जोड़ना और हर तिमाही में कार्य की समीक्ष करना,हर ग्रामीण परिवार का दायित्व हो महीने में 1 पौधा लगाए वरना जुर्माना भी लगेगा,शहरी जीवन में घर में पौधे जरूर हो वतना जुर्माना लगेगा,कचरे का निवारण सही तरीके से हो,जैविक व कम्पोस्ट खाद की जानकारी सब को दिया जाए, बड़ी फैक्टरी के पूरे csr पैसे का 50% पर्यावरण पर खर्च किया जाय, महीने में कोई एक दिन पर्यावरण दिन मनाया जाय,

रिसाइक्लिंग का दौर चले-:
डिजिटल भारत में हम इस अंग जोड़ना भूल गए है जिस के तहत हम कागज और कपड़े का स्तेमाल कम करें। हर सरकारी संस्थान को कागज बचाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए पाठ्यक्रम को भी कागज मुक्त बनाना होगा अगर हम डिजिटल भारत का सपना देख रहे है तो रिसाइकल पर ध्यान देना होगा,,चाही कपड़ा, कूड़ा,प्लास्टिक,दवाई,कागज,चमड़ा इत्यादि कुछ भी हो। niit, iit, iim,ssc,जितने भी hayreducation की परीक्षा है या किताबें है सब डिजिटल हो।

वन संरक्षक के लिए भारत में ही नही अपितु पूरे बिस्व में अनेकों आंदोलन हजारों साल से चल रहे है। मुख्य इस प्रकार से है-:

1-:: बिष्णोई आंदोलन-:करीब 600 साल पहले किसी ने सोचा होगा पर्यावरण के बारे में कोई समझ सकता है क्या। मध्यकालीन राजस्थान से हमें पर्यावरण चेतना का एक सुदूर उदाहरण मिलता है। विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भोजी (1451-1536 ई०) द्वारा अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम दिये गये थे। इन्हीं 29 नियमों अर्थात बीस और नौ के कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम विश्नोई पडा, इनमें से अधिकांश पर्यावरण के साथ सहचारिता बनाये रखने पर बल देते हैं जैसे हरे-भरे वृक्षों को काटने तथा पशुवध की पाबंधी। उस समय राजस्थान के जो कल्पवृक्ष थे, वे खेजडी के पेड़ थे, जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में भी पनप जाते थे। उनसे केवल पशुओं को चारा ही नहीं मिलता था, उनकी फलियों से मनुष्यों को खाना भी मिलता था। आगे चलकर जम्बोजी का प्रभाव लोगों के हृदय पर काफी गहराई तक पड़ा।

2-: अप्टिको आदोंलन-: यह उत्तरभारत के उत्तराखण्ड में 45 साल पहले चलाये गए चिपको आंदोलन का ही प्रारूप था इसी चिपको आंदोलन ने देश को अनेकों पर्यावरण आन्दोक दिए और वृक्षों की रक्षा के संदर्भ में गढ़वाल हिमालयवासियों का ‘चिपको’ आंदोलन का योगदान सर्वविदित है। इसने भारत के अन्य भागों में भी अपना प्रभाव दिखाया। उत्तर का यह चिपको आंदोलन दक्षिण में ‘अप्पिको’ आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरुकता का यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा। युवा लोगों ने भी जब पाया कि उनके गांवों के चारों ओर के जंगल धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं तो वे इस आंदोलन में जोर-शोर से लग गये। लोगों ने पाया कि कागज पर तो प्रति एकड़ दो पेड़ों की कटाई दिखाई जाती है लेकिन असल में काफी अधिक पेड़ काटे जाते हैं और कई क्षतिग्रस्त कर दिये जाते हैं, जिससे वनों का सफाया होता जा रहा है।

3-:: नर्मदा बचाओ आंदोलन-: अब्दुल कलाम जी ने कहा था अब तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा सायद उन का इसारा सही दिशा में था। यह आन्दोलन भारत में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों की परिपक्वता का उदाहरण है। इसने पहली बार पर्यावरण तथा विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया जिसमें न केवल विस्थापित लोगों बल्कि वैज्ञानिकों, गैर सरकारी संगठनों तथा आम जनता स्वयमसेवी संस्थान उद्धयोग जगत की भी भागीदारी रही। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायधिकरण का गठन किया ताकि जल संबंधी विवाद का हल करके परियोजना का कार्य शुरु किया जा सके। 1979 में न्यायधिकरण सर्वसम्मति पर पहुँचा तथा नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया जिसमें नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधों – गुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था। 1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की सरकार के अनुसार इस परियोजना से मध्य प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल मिलेगा, बिजली का निर्माण होगा, पीने के लिए जल मिलेगा तथा क्षेत्र में बाढ़ को रोका जा सकेगा। नर्मदा परियोजना ने एक गंभीर विवाद को जन्म दिया है। एक ओर इस परियोजना को समृद्धि तथा विकास का सूचक माना जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप सिंचाई, पेयजल की आपूर्ति, बाढ़ पर नियंत्रण, रोजगार के नये अवसर, बिजली तथा सूखे से बचाव आदि लाभों को प्राप्त करने की बात की जा रही है वहीं दूसरी ओर अनुमान है कि इससे तीन राज्यों की 37000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी जिसमें 13000 हेक्टेयर वन भूमि है। यह भी अनुमान है कि इससे 248 गांव के एक लाख से अधिक लोग विस्थापित होंगे। जिनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्र के हैं।

4-: साइलेंट घाटी-: दक्षिण में केरल की शांत घाटी 89 वर्ग km क्षेत्र में है जो अपनी घनी जैव-विविधता के लिए मशहूर है। 1980 में यहाँ कुंतीपूंझ नदी पर एक परियोजना के अंतर्गत 200 मेगावाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। केरल सरकार इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक थी लेकिन इस परियोजना के विरोध में वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रीय लोगों के स्वर गूंजने लगे। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के कई विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। इसके अलावा यह पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थिति की को भारी हानि पहुँचा सकता है। लेकिन राज्य सरकार इस परियोजना को किसी की परिस्थिति में संपन्न करना चाहती थी। अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस विवाद में मध्यस्था की और अंतत: राज्य सरकार को इस परियोजना को स्थगित करना पड़ा जो घाटी के पारिस्थिति के संतुलन को बनाये रखने में मील का पत्थर साबित हुआ।

5-: चिल्का बचावो-: कलिंग युद्ध का साक्ष्य चिल्का उड़ीसा में स्थित एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है जिसकी लम्बाई 72 कि०मी० तथा चौड़ाई 25 कि०मी० और क्षेत्रफल लगभग 1000 वर्ग कि०मी० है। चिल्का 158 प्रकार के प्रवासी पक्षियों तथा चीते की व्यापारिक रूप से महत्त्वपूर्ण प्रजातियों का निवास स्थान है। यह 192 गांवों की आजीविका का भी साधन है जो मत्स्य पालन खासकर झींगा मछली पर निर्भर हैं। 50,000 से अधिक मछुआरे तथा दो लाख से अधिक जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए चिल्का पर निर्भर है। मछली पालन तो कई शताब्दियों से चिल्का क्षेत्र का परम्परागत पेशा है। मछुआरों को यहाँ मछली पालन का अधिकार अफगानी शासन के समय से प्राप्त है। यहाँ तक कि बिट्रिश शासन में भी मछुआरों के अधिकारों की रक्षा ‘मछुआरों के संघ’ स्थापित कर की गई। अत: चिल्का का प्राचीन समय से मछली उत्पादन, सहकारिता तथा ग्रामीण लोकतंत्र का एक विशेष तथा प्रेरक इतिहास रहा है।

6-:वर्षा जल संरक्षण जत्न आंदोलन-: राजस्थान के अकालग्रस्त गाँव भावना कोल्याला.
7-: बीज बचावो आंदोलन-: 1990 में श्री धूम सिंह नेग श्री कुवंर प्रसून श्री विजय जरधारी द्वारा टिहरी के देवलघाटी क्षेत्र में चलाया आंदोलन.
8-: सन 2011 में केंद्र सरकार की प्लास्टिक कचरा हटाओ योजना।
9-: पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की मुख्य उपलब्धि जिस को 2015 में चलाया गया था।
10-: प्रतिपूरक वन रोपण निधि विधेयक 2015 में संसोधन कर के पारित करने।
11-: केंद्र की हरियाली मिशन के तहत यदि किसी के पास जमीन उपलब्ध है तो उन को निशुल्क 1000 पौधे सरकार मुफ्त देती है।
12-: टिहरी डेम परियोजना आंदोलन 1973

अब सवाल ये है कि क्या लिख देने से काम चलेगा तो यह भी सही नही है हर कोई अगर जागरूक हो तो सायद कुछ फर्क पड़ेगा।

आभार : देवेश आदमी

इंद्रजीत सिंह असवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

किसी भी समाचार से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है।समाचार का पूर्ण उत्तरदायित्व लेखक का ही होगा। विवाद की स्थिति में न्याय क्षेत्र बरेली होगा।