बाड़मेर/राजस्थान- क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक सरकारी स्कूल के शारीरिक शिक्षक का बेटा देश की राजनीति में भूचाल मचाएंगा, राजस्थान के सभी ताक़तवर नेताओं को गिने दिनों में अपनी राजनीतिक लोकप्रियता से अवाक् कर देगा इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं ?
पश्चिमी राजस्थान के भारत पाकिस्तानी बॉर्डर वाले इलाके में जहाँ रेत के धोरों पर हर वक़्त ख़ामोशियां झाँकती हैं और जहाँ उम्मीद की खिड़कियाँ जाने कितनी सदियों से बंद हैं, वहाँ आज हर शहर, गाँव और गली-गली में एक ही नाम का शोर है। वह नाम है युवा रवींद्रसिंह भाटी।
देश में ऐसी कौनसी जगह है, जहाँ भाटी का जलवा नहीं बिखरे, बाड़मेर तो बाड़मेर, गुजरात के सूरत जैसे शहर हों या महाराष्ट्र का पुणे, मुम्बई, बेगलुरु, हैदराबाद,सिकन्दराबाद हर नज़र इस युवा चेहरे के शौक़-ए-दीदार के लिए बेचैन है।
पिछले दिनों वे इन दोनों राज्यों के कई शहरों में प्रवासी राजस्थानी मतदाताओं से संपर्क साधने के लिए पहुँचे थे।
बाड़मेर लौटते ही उनके सियासी पैरहन की नमी बता रही है कि वे इन इलाक़ों में भीगे बादलों को छूकर लौटे हैं।
राज्य की सरहदों को लांघती उनकी लोकप्रियता की वजह के बारे में बाड़मेर इलाक़े के मूल निवासी और राजस्थान के प्रसिद्ध समाजवादी नेता अर्जुन देथा का तर्क है, “ यह छोरों की जमात है और जेम्स बॉण्ड कल्चर है। उनके सामने भाजपा-काँग्रेस के उम्मीदवार जाट हैं तो राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य, राजपुरोहित आदि और कुम्हार, कळबी, बिश्नोई, सुनार, सुथार, चारण सहित ओबीसी की कई जातियों के बेरोज़गार युवा भी जातिगत ध्रुवीकरण की वजह बने हैं।”
विधानसभा चुनावों में बाड़मेर जिले की शिव सीट से काँग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को पराजित कर राजस्थान की राजनीति में उदित हुआ यह निर्दलीय उम्मीदवार सितारा हर किसी के लिए एक पहेली है।
समाजशास्त्री राजीव गुप्ता बताते हैं, “इलाके का युवा लंबे समय से उपेक्षित था। उसकी आवाज़ को कोई नहीं सुन रहा था। बेराेज़गारी यहाँ की सबसे बड़ी समस्या है। भाटी ने इस सबको ताक़तवर तेवर और आवाज़ देकर एक पॉलिटिकल कैपिटल में कन्वर्ट कर दिया है।”
बाड़मेर लोकसभा क्षेत्र में तीन प्रमुख उम्मीदवार हैं : भाजपा के कैलाश चौधरी, जो केंद्र में कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री हैं। काँग्रेस के उम्मेदाराम, जो विधानसभा चुनावों में राजस्थान लोकतांत्रिक पार्टी के टिकट पर काँग्रेस के हरीश चौधरी के सामने बायतू से 910 वोट से हार गए थे। तीसरे रवींद्रसिंह भाटी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में खड़े हैं। हरीश चौधरी लोकसभा चुनाव से पहले ही उम्मेदाराम को आरएलपी से काँग्रेस में लाने में कामयाब रहे।
लेकिन भाटी जैसा माहौल आजादी से पहले और आजतक
कोई भी उम्मीदवार अपने पक्ष में नहीं बना पाया है। भाटी ने सोशल मीडिया की धमनियों में जो आग उंड़ेली है, उससे हर किसी को रश्क है। काँग्रेस उम्मीदवार उम्मेदाराम चौधरी के समर्थकों ने उन्हें ट्विटर पर कई बार ट्रेंड करवाने की कोशिश की; लेकिन वे वैसा रंग नहीं ला सके, जो भाटी ले आते हैं।
सियासत के खारेपन को पच नहीं लोकप्रियता की मिठास चाहिए जो इस लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से पांच भाजपा के पास हैं तो एक काँग्रेस और दो निर्दलीय हैं। भाटी सहित दोनों निर्दलीय भाजपा के खेमे में थे लेकिन उठा पटक का दौर अभी तक चल रहा है लोकसभा चुनाव के बाद में आगे क्या होगा कोई नहीं जानता है।
विधानसभा चुनाव से पहले भाटी को भाजपा में इस शर्त पर शामिल किया गया था कि उन्हें शिव से पार्टी उम्मीदवार बनाएगी। लेकिन टिकट स्वरूपसिंह खारा को दे दिया गया तो भाटी ने अपने समर्थको के साथ निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन भर दिया। वे पार्टी के साथ नहीं रहे और ज़बरदस्त चुनाव लड़कर शिव से जीत गए।
जीतने के बाद भाटी सियासी रूप से ख़ामोश रहे; लेकिन उनकी ख़ामोशी के रंग को भाजपा नेताओं ने नहीं समझा। अलबत्ता, उनसे मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने एक लंबी और हवाई मुलाक़ात भी की। भाटी को उम्मीद थी कि या तो उन्हें बाड़मेर से भाजपा टिकट देगी या इलाक़े में उन्हें ऐसा रिस्पॉन्स देगी, जिससे क्षेत्र में उनका कद और सम्मान बढ़े जैसे अन्य विधायकों का होता है । राजनीतिक आकाओं के कारण ऐसा नहीं हुआ तो भाटी नामांकन से पहले जनता के बीच पहुँचे और समर्थकों को आवाज़ दी तो ऐसी तस्वीर बनी कि उसने उन्हें एक सियासी चमकता हुआ सितारे में बदल दिया।
उदयपुर के सुखाड़िया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़सर रहे और अब राजस्थान की चुनावी राजनीति को देख-परख रहे प्रो. अरुण चतुर्वेदी बताते हैं, “भाटी का एक नए सितारे के रूप में उभरने के पीछे कास्टबेस, लोगों में नए चेहरे के प्रति सम्मोहन और पुरानी लीडरशिप के प्रति बेरुखी भी एक बड़ा कारण है।” चतुर्वेदी बताते हैं कि सचिन पायलट, राजकुमार रोत, हनुमान बेनीवाल आदि के प्रति लोगों के रुझान की एक बड़ी वजह यही है। लोग अब पुराने नेताओं से ऊब चुके हैं और वे राजनीति में कुछ नया देखने के प्रति लालायित हैं।
विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा के विद्रोही निर्दलीय के रूप में भाटी ने जीत दर्ज की थी और निर्दलीय काँग्रेस के बागी फ़तेहखान को 3,950 वोट से हराया था। भाजपा के स्वरूपसिंह खारा 22,820 वोट से तो काँग्रेस उम्मीदवार अमीन खान 24,231 वोट से पिछड़ गए थे। तीन पुराने दिग्गजों को हराने से बढ़ी लोकप्रियता भाजपा और कांग्रेस के तीन पुराने दिग्गजों को हराने से भाटी की लोकप्रियता चहुंमुखी और बढ़ गई। इससे पहले वे जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में एक समर्थक को एसएफआई के टिकट पर जितवा चुके थे, जो बाद में एबीवीपी में शामिल हो गया। विश्वविद्यालय की राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में भाटी पहली बार 2019 में उस समय पॉपुलर हुए, जब वे इस विश्वविद्यालय में विद्रोही उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और भारी वोटों से जीते।
भाटी उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े हुए थे और उनकी टिकट के लिए दावेदारी थी। लेकिन एबीवीपी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। भाटी ने विद्रोह कर दिया और वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतरे। जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में इससे पहले कोई भी निर्दलीय जीत नहीं सका था। लेकिन भाटी ने अनूठे तरीके से चुनाव लड़ा और न केवल निर्दलीय जीत दर्ज की; बल्कि 1300 वोटों का भारी अंतर भी खड़ा कर दिया।
विश्वविद्यालय में निर्दलीय अध्यक्ष बनने वाले भाटी पहले छात्र नेता कोई नहीं सोच सकता था कि भारी धनबल, भुजबल और जातिबल वाले छात्र नेताओं की रवायत को सरकारी स्कूल के एक पीटीआई का 21 वर्षीय बेटा, जो बाड़मेर के गडरा रोड से बेहद पिछड़े इलाके के सुदूर गांव दूधोरा से आकर राजस्थानी में एमए कर है, इस तरह चुनौती देगा। तेज बारिश में उड़ते परिंदे की तरह इस लड़के ने छात्रों की सियासत के सभी पुराने अक्स इस तरह तोड़े कि हर जगह उसकी चर्चा होने लगी और अब वह सियासत की मुख्यधारा में आकर आईनों को चटखाने लगा है।
गहलोत सरकार से भिड़ लिए थे विश्वविद्द्यालय की ज़मीन के लिए और राज्य की गहलाेत सरकार के एक निर्णय ने इस छात्र नेता की छवि को राज्य स्तरीय बना दिया था।
गहलोत सरकार के समय एक ऑडिटोरियम बनाने के लिए विश्वविद्यालय की 37 बीघा भूमि अधिग्रहण की जाने लगी तो भाटी ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया। उनका तर्क था कि 1200 करोड़ रुपए मूल्य की यह भूमि विश्वविद्यालय की है। इसे जेडीए कैसे ले सकता है!
अशोक गहलोत सरकार नहीं मानी तो उन्होंने विधानसभा पर विशालकाय प्रदर्शन किया और मुख्यमंत्री के गृहक्षेत्र में सरकार के लिए एक बड़ी सिरदर्दी पैदा कर दी। इस आंदोलन ने भाटी को युवा पीढ़ी के नेता की राज्य स्तरीय पहचान दे दी और उनकी चर्चा राजधानी में सबसे हॉट कैफ़ेज़ में एक हीरो के रूप में होने लगी। और उस प्रदर्शन से होने लगी थी जयपुर में चर्चा जयपुर शहर में कोई आठ-दस हज़ार ऐसे कैफ़े और टी-क्लब हैं, जहाँ सुबह से देर रात तक युवक-युवतियों का जमघट रहता है। इन कैफ़े में जैसी चर्चाएं भाटी को लेकर होने लगीं, वैसा कम युवाओं के बारे में होता है।
भाटी ने विश्वविद्यालय की जीत के बाद से ही भाजपा और काँग्रेस के नेताओं का सियासी जायका काफ़ी बिगाड़ना शुरू कर दिया था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते थे भाटी विधानसभा चुनाव आए तो भाटी दो सीटों में से किसी एक पर भाजपा के उम्मीदवार के रूप में लड़ना चाहते थे।
एक सीट थी सरदारपुरा, जहाँ से पिछली सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लड़ रहे थे और दूसरी थी बाड़मेर जिले में शिव, जहाँ से भाजपा के एक दर्जन से ज्यादा दावेदार थे। भाजपा के एक नेता बताते हैं कि सरदारपुरा से उन्हें टिकट दिया जा रहा था; लेकिन इसका विरोध इस कारण हुआ कि इससे इस लड़के की छवि पूरे देश में बन जाएगी और यह जोधपुर में कुछ नेताओं के लिए एक नया सिरदर्द हो जाएगा। मोदी नया विकल्प मिलते ही, वैसे भी टिकट काट देते हैं तो रवींद्र के बाद तो स्थिति बदल ही जाएगी!
भाटी बताते हैं कि उनके मन में सरदारपुरा से चुनाव लड़ने की बहुत इच्छा थी; लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया।
कुछ नेता भाटी को एक दायरे में ही रखने के पक्ष में थे; लेकिन उनकी इस जुगत ने भाटी को उस बॉल की तरह उछाल दिया, जो दबाने पर प्रतिक्रिया में अधिक उछलती है।
भाटी विधायक बन गए तो उन्होंने बिना शर्त अपना समर्थन भाजपा को दे दिया। वे सहज थे; लेकिन जैसे ही लोकसभा चुनाव आए, उससे पहले बाड़मेर जिले की प्यासी सियासत में हैंडपंप लगाने का एक मुद्दा उठा। पार्टी के एक नेता बताते हैं कि सत्ता और संगठन के स्तर पर इस नाज़ुक मुद्दे को बहुत संजीदगी से डील नहीं किया गया। वे बताते हैं, हैडपंप के इस मुद्दे का हत्था उछलकर सीधे सत्तारूढ़ भाजपा के माथे में ऐसे लगा कि उसके दर्द की मरहम बड़े-बड़े रणनीतिकारों को नज़र नहीं आ रही।भाजपा वाले सिर्फ हैंडपंप के लिए ज़मीनों को नापते रह गए और उससे बाग़ी हुए भाटी ने गुजरात और महाराष्ट्र के शहरों से प्रवासी मारवाड़ियो से समर्थन के बादल बटोर लिये।
सियासी हक़ीक़तों की समझ से कायनाती फ़ासला रखने वाले सियासतदानों ने सोचा था कि वे भाटी को कमज़ोर कर देंगे; लेकिन हुआ यह कि सत्तारूढ़ दल के लिए ऐन मंज़िल से रास्ता भटकने का खटका बेसबब ही हो गया है।
इसकी वजह बना वही मामला जब इसी साल 14 मार्च को राज्य के सिंचाई महकमे ने बाड़मेर जिले में हैंडपंप मंजूर किए जाने का एक परिपत्र जारी किया। इसमें भाटी के शिव विधानसभा क्षेत्र में 22 हैंडपंप मंजूर किए गए; लेकिन भाटी की अनुशंसा सिर्फ़ दो के लिए ही दर्शाई गई। बाक़ी सभी के लिए स्वरूप सिंह खारा का नाम था।
मतलब साफ़ था कि प्यासे शिव के लिए विधायक भाटी तो महज दो हैंडपंप लगवा रहे हैं और उनके सामने हारे हुए उम्मीदवार की अनुशंसा पर 20 हैंडपंप लगवाए जा रहे हैं।
संकेत यह गया कि भाटी कमज़ोर और खारा ताक़तवर नेता हैं। सियासी सफ़र की शुुरुआत में हुआ यह फ़ैसला नवनिर्वाचित विधायक भाटी के लिए एक अजीब सा दर्द लेकर आया। इससे उन्हें अपने सियासी सपनों का सितारा खंडित होते दिखा; लेकिन उनकी आँखें बुझी नहीं और उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया।
भाटी इससे पहले गोवंश बचाओ अभियान के माध्यम से 20 हजार गायों को बीमारियों से मुक्त करवाने का काम कर चुके थे। इससे आम ग्रामीणों में उनकी लोकप्रियता ने पैठ बना ली। रन फॉर रेगिस्तान और जनसंवाद जैसी यात्राओं ने भी उन्हें आम लोगों तक पहुंचने में मदद की। रविन्द्र सिंह भाटी के फोलोवर्स सोशलमीडिया पर जैसे फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर उनके चाहने वाले दुनिया भर में फैले हुए हैं और इस नेशनल शूटिंग प्लेयर की पहचान अब एक क़ामयाब निशानेबाज़ के रूप में भी हो चुकी है। उनके आसपास रहने वाले युवा बताते हैं कि भाटी जब भी कोई अभियान शुरू करते हैं तो उनकी आँखें सोना भूल जाती हैं और उनके ख़्वाब उनकी युवा साथियों की आँखों में चहलकदमी करने लगते हैं।
ताज़ा हालात बता रहे हैं कि इससे भाजपा की ही नहीं, काँग्रेस की भी सियासी ज़मीन बेअक्स होकर रह गई है और कई नेताओं के फ़लक के आईने मैले हो गए हैं। ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम के माध्यम से भाटी की लोकप्रियता शहर और गाँवों के साथ-साथ जाति और धर्म के दायरों को लाँघ चली है।
बाड़मेर के सुदूर गांवों में लड़के-लड़कियाँ आधी रात को भाटी के लिए रील बनाकर पोस्ट करते हैं। भाटी के माध्यम से बाड़मेर बॉर्डर के छोटे-छोटे गाँवों में युवाओं की नींदों में सियासत की ख़ुशबू घुल गई है तो जैसलमेर के बेहद पिछड़े इलाक़ों में बने गुडहालों (एक ख़ास तरह के कई अलग-अलग झोपड़ों से बना एक घर) दरीचों पर नए ख़्वाब महक उठे हैं।
जाट बनाम अन्य की राजनीति का मिथक इसकी एक वजह यह है कि इस इलाके में पिछले तीस-पैतीस साल से जाट सांसदों का वर्चस्व रहा है और राजपूत हाशिए पर होते चले गए हैं। दरअसल, पहले बाड़मेर राजपूत वर्चस्व वाला इलाका था; लेकिन साल 2009 के पुनर्सीमांकन के समय यहाँ से पाेकरण और शेरगढ़ जैसे राजपूत बहुल इलाकों को जोधपुर में मिला दिया गया।
ज़ाहिर सी बात है कि अब 26 अप्रैल को बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र में होने वाले चुनाव ने सभी को अपनी प्रतिष्ठा का एहसास करवा दिया है। यहाँ रिफ़ाइनरी का काम हुआ और उसमें अधिकतर भागीदारी जाट पृष्ठभूमि वाले लोगों की रही। इसका कोई सटीक अध्ययन नहीं हुआ है; लेकिन चर्चाओं के आधार पर इस इलाके में जाट बनाम अन्य का ध्रुवीकरण ज़ाेर पकड़ रहा था और भाटी के आते ही उसे एक आवाज़ मिल गई। भाटी के आसपास इतने युवा उमड़ आए हैं कि काँग्रेस से अधिक भाजपा भयभीत हैं; क्योंकि राजपूत मतदाता परंपरागत रूप से भाजपा का मतदाता है। साथ ही, वे अन्य ऐसी जातियों के युवाओं के आकर्षण का भी केंद्र बन गए हैं, जिन्हें आम तौर पर भाजपा समर्थक माना जाता है।
रेगिस्तानी इलाक़े में चली है ताज़ा हवा- राजनीति विज्ञान के प्रो. संजय लोढ़ा मानते हैं कि युवाओं को अच्छे विकल्प की तलाश है और जहाँ भी यह संभव है, लोग उस तरफ उमड़ रहे हैं। प्रदेश में थर्ड स्पेस की गुंजाइश है और भाटी के प्रति आकर्षण की वजह भी यही है। लेकिन बाड़मेर, बालोतरा और जैसलमेर की बेचराग़ रोही में आप घूमेंगे तो पाएंगे कि लोकसभा के इस अठारहवें चुनाव में पहली बार उम्मीद की कोई ऐसी खिड़की खुली है, जो लोगों को अपने नज़दीक लगती है।
कुछ स्थानीय राजनीतिक पर्यवेक्षक बताते हैं, एक्स या ट्विटर पर अभी एक लड़की रवींद्र सिंह भाटी के लिए लिखती हैं : दिल में इक लहर सी उठी है, कोई ताज़ा हवा चली है अभी। वे बताते हैं, जातिवादी रुझान को लेकर नाज़ुक मिज़ाजी वाले इस इलाक़े में एक गैरराजपूत लड़की का इस तरह लिखना साफ़ बता रहा है कि इस बार इस संसदीय सीट के सियासी कलेजे पर यह चोट काफ़ी नई है।
मोदी की सभा का नहीं हुआ कोई असर भाजपा के रणनीतिकारों के आग्रह पर पिछले शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहाँ बड़ी सभा को संबोधित किया है और इलाके के राजपूत और मुस्लिम मतदाताओं से अच्छा रुसूख रखने वाले पूर्व सांसद मानवेंद्र सिंह को काँग्रेस से भाजपा में लाने में सफल हुए हैं।
मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा सहित कई नेता बाड़मेर-जैसलमेर इलाकों में डेरा डाले रहे हैं तो अब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, फिल्म अभिनेता सनी देओल, बाबा बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री, पहलवान दिलीपसिंह राणा उर्फ़ खली सहित कई ताक़तवर नेताओं और प्रसिद्ध हस्तियों को भाटी के खिलाफ चुनाव प्रचार में झोंकने की तैयारियां हैं।
डबल अंजण की सरकार बनाम एकला चलो रे बन्दा….
चुनावी राहों पर सियासी हवाएँ गुमसुम खड़ी हैं और सारे मुसाफ़िर इस सोच में डूबे हों तो यह सवाल वाजिब है कि रेगिस्तान में डबल इंजन अठारवीं लोकसभा की डायरी में इस बार अपना लिख पाता है या नहीं? या फिर रवींद्र सिंह भाटी की एकला चालो रे का अंजण ही संसद में अपनी सीटी गुंजाएगा!
पूरे इलाक़े में माहौल पहली बार कुछ अलग सा है। हर कोई कह रहा है कि चला चला रे डिलैवर(ड्राइवर) गाड़ी, डूंगर (पहाड़) भागै, नंदी (नदी) भागै और भागै खेत, ढांडा (पशु) की तो टोळी (टीम) भागै, उड़ रई रेत ई रेत! गीत गूंज रहे हैं कि जयपुर से जद गाडी चाली मैं थी सूधी(सीधी) , असी ज़ोर को धक्को लाग्यो जद मैं पड़ गी ऊँधी(उल्टी) ! चला-चला रे डिलैवर गाडी चला!!!
“किस्सा कुर्सी का” इसी सीट से जुड़ी थी इंदिरा गांधी से संबंधित वह विवादित फ़िल्म बाड़मेर की सियासत प्रभावित करती रही है राष्ट्रीय राजनीति को बाड़मेर भले कितना ही रेगिस्तानी और रेतीला इलाक़ा रहा हो; लेकिन यह राज्य और देश की राजनीति को हिलाता रहा है। 1967 और 1971 के चुनाव में यहाँ से काँग्रेस के टिकट पर जीते अमृत नाहटा ने 1975 में चर्चित फ़िल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ बनाई थी तो हंगामा हो गया था और आपातकाल के उस दौर में सेंसर बोर्ड से लाकर इस फ़िल्म के प्रिंट तक जला दिए गए थे। 1971 के चुनाव में नाहटा ने राजस्थान की बहुत बड़ी शख़्सियत भैरोसिंह शेखावत को 55,573 वोट से बाड़मेर सीट पर हराया था। नाहटा वैश्य थे और शेखावत राजपूत। जाति वर्चस्व के बावजूद शेखावत की वह हार बहुत चर्चा में रही थी। राजस्थान की इस सीट से पहले दोनों सांसद निर्दलीय जीते थे।
( साभार सोशलमीडिया )