उत्तराखण्ड के चमोली ज़िले से पलायन कम करने में असफल है मनरेगा

उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल- स्वतंत्र भारत के इतिहास में मनरेगा सबसे बड़ी और क्रांतिकारी योजना बताई जाती है। इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम-से-कम 100 दिनों का रोज़गार दिए जाने की गारंटी है। साल 2005 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते जब मनरेगा की शुरुआत हुई तब विचारधारा यही थी कि ग्रामीण इलाकों में रोज़गार की गारंटी मिल सके, जिससे ना सिर्फ गरीबी मिटे बल्कि मज़दूरों का पलायन भी कम हो। बदलते वक्त के साथ जैसे-जैसे मनरेगा ने सफलता के कुछ आयाम गढ़े, वैसे-वैसे आलोचकों ने इस योजना की कमियों का भी ज़िक्र करना शुरू किया। ये कहा गया कि मनरेगा भ्रष्टाचार में लिप्त हो चुकी है। जिन्हें वाकई में रोज़गार मिलना चाहिए था उन्हें नहीं मिल रहा है। इन सबके बीच, मौजूदा वक्त में मनरेगा की हकीकत जानने के लिए हमने चमोली ज़िले के घात ब्लॉक स्थित गांव कुरूड और पड़ोस के कुछ गांव की पड़ताल की।

कुरूड के सुभाष बताते हैं, “मनरेगा के तहत 100 दिन रोज़गार की बात तो छोड़ दीजिए साहब, मौजूदा वक्त में पांच दिन भी रोज़गार मिल जाए तो बहुत है। यदि सरकार ईमानदारी से हमें 100 दिन रोजगार मुहैया कराती तो पर्व त्यौहार के वक्त हमें पैसों के लिए मोहताज नहीं होना पड़ता। एक तो मनरेगा के तहत हमें काम नहीं मिलता और यदि गलती से हमने 5-6 दिन काम कर भी लिया तो मेहनताना मिलते-मिलते 6 से 8 महीने का वक्त लग जाता है।”
*“ मी कम पढ़ी लिखी च पर मनरेगा का नौं पर अफसर बाबु की लूट खसोट सब पता च”*
इसी गांव की मंजू देवी बाताती हैं, “4-5 वर्ष पहले हमें मनरेगा के तहत 30 दिन तो काम मिल ही जाता था, मगर अब बड़ी मुश्किल से हमें 10 दिन ही काम मिला करता है। इसके बाद अपनी मज़दूरी के पैसे के लिए लंबे वक्त तक इंतज़ार करना पड़ता है।”
कुरुड़ के पड़ोस के गांव कुंडबगड़ के हिम्मत सिंह ने तो अब मनरेगा के तहत रोज़गार मिलने की आस ही छोड़ दी है। हिम्मत सिंह कहते हैं , “राजनीति हमारे पल्ले नहीं पड़ती। फिर भी इतना तो समझता ही हूं कि सरकार हमारे साथ खेल खेल रही है। हिम्मत सिंह ने गड्वाली भाषा में कहा की “ मी कम पढ़ी लिखी च पर मनरेगा का नौं पर अफसर बाबु की लूट खसोट सब पता च”
कुरूड गाँव के बेरोजगार युवा नवीन की माने तो, ब्लोक स्तर तक आते-आते मनरेगा योजना भ्रष्ट अधिकारियों की भेंट चढ़ जाता है। नवीनजी कहते हैं, “हम बेरोजगार लोग हैं। हमें कोई भी व्यक्ति खुद को सरकार का प्रतिनिधि बताकर ठग लेता है। मनरेगा का भी यही हाल हो चुका है। मुझे तो मनरेगा के तहत पिछले एक वर्ष में एक रोज़ भी काम नहीं मिला है। अब मैनें आस लगाना ही छोड़ दिया है।”
इसी गाँव के विजय प्रसाद मनरेगा योजना के तहत काम करने के बाद काफी विलम्ब से पेमेन्ट मिलने का ज़िक्र करते हुए बताते हैं, “7-8 महीना बहुत लंबा वक्त होता है। ऐसे में ना सिर्फ ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट जाता है बल्कि विवश होकर काम ढ़ूंढ़ने शहर का रूख करना पड़ता है।”
साल 2015 की एक रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक द्वारा मनरेगा योजना को दुनिया का सबसे बड़ा लोक निर्माण कार्यक्रम बताया गया। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में ये कहा गया कि अभी तक भारत में 18.2 करोड़ लोगों को इस योजना का फायदा मिल चुका है और 15 प्रतिशत ज़रूरतमंद लोगों को इस योजना से सामाजिक सुरक्षा मिलती है। ऐसे में हिम्मत सिंह , नवीनजी और विजय प्रसाद जैसे गरीब मज़दूरों की निराशा, मनरेगा योजना पर कई बड़े सवालिया निशान खड़े करती हैं.
– गढ़वाल से प्रकाश गौड़ की रिपोर्ट

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

किसी भी समाचार से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है।समाचार का पूर्ण उत्तरदायित्व लेखक का ही होगा। विवाद की स्थिति में न्याय क्षेत्र बरेली होगा।