गरीबों की फ्रिज तैयार करने में जुटे कुम्हार:पुश्तैनी धंधे को छोड़ दूसरे व्यवसाय में हाथ आजमा रहे नवयुवक

सोरांव, प्रयागराज- गर्मी शुरू होते ही एक तरफ जहां मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग फ्रिज और इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों का प्रयोग करना शुरू कर देता है तो दूसरी तरफ गरीब परिवार इन संसाधनों से दूर अपने लिए मटके की जुगाड़ में लग जाते हैं। इन मटको को तैयार करने के लिए इलाके के कुम्हारों ने भी कमर कस ली है और अधिक से अधिक संख्या में गरीबों की फ्रिज तैयार करने में जुट गए है
हालांकि इलाके के एक चौथाई परिवार ही इस काम में लगे हैं बाकी इस धंधे को छोड़ दूसरे व्यवसाय में हाथ आजमा रहे हैं।
आज से लगभग तीन दशक पूर्व सोरांव ग्रामसभा समेत आसपास के दर्जनों ग्राम सभाओं में कुम्हार गर्मी की शुरुआत से ही सैकड़ों की संख्या में मटके आदि बनाने का काम शुरू कर देते थे। उस वक्त इलेक्ट्रॉनिक समेत विभिन्न संसाधनों का प्रयोग उच्च वर्ग के परिवार ही करते थे लेकिन समय बीतने के साथ ही टीवी, फ्रिज आदि मध्यमवर्गीय परिवार में पहुंचा तो मध्यम वर्गीय परिवार भी मटको का प्रयोग छोड़ इन संसाधनों का प्रयोग करने लगे। जबकि कुम्हार पुश्तैनी धंधे को चलाते हुए अपनी जीविका को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन परिवार में बढ़ती संख्या और इस व्यवसाय में गिरती आमदनी ने उन्हें दूसरे धंधों की ओर जाने को मजबूर कर दिया है। आज इलाके के एक चौथाई परिवार ही पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं जबकि अन्य परिवार दूसरे धंधों व नौकरियों में हाथ आजमा रहे हैं । वर्तमान समय में सोरांव के माधवपुर सधन गंज गांव में लगभग डेढ़ सौ कुमारो का परिवार है जिसमें केवल 25 परिवार ही ऐसे जो अपने परंपराओं का निर्वाह कर रहे हैं जबकि अन्य परिवार दूसरे व्यवसाय में जुटे हैं। गांव के रामानंद प्रजापति का कहना है कि अब नवयुवक इस धंधे से बिल्कुल कतरा रहे हैं और पुश्तैनी धंधे को छोड़कर दूसरे धंधों की ओर जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि चाक हाथ से चलाते हैं जबकि 1 दिन में 6 से 7 सौ कुल्हड़ व लगभग 8 से 10 मटके बना लेते हैं। मटको की डिमांड बढ़ने के चलते अब इस ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। एक मटके की कीमत लगभग 80 रुपये होती है जिसे आसानी से बाजार में बेचा जा सकता है। बताया कि कुल्हड़ में चाय पीने से लोगों का स्वास्थ्य सही रहता है लेकिन थर्माकोल और प्लास्टिक की सामग्रियों ने मिट्टी के कुल्हड़ को लोगों से दूर कर दिया है। हालांकि अभी भी अच्छी दुकानों पर कुल्हड़ की डिमांड होती है। उन्होंने बताया कि कुल्हड़ के लिए लगभग 5 सौ रुपये ट्राली की मिट्टी खरीदी जाती है जबकि मटकों समेत अन्य बर्तन बनाने के लिए 1 हजार ट्रॉली की मिट्टी खरीदी जाती है। आगे बताते हुए कहा कि पहले मिट्टी मुफ्त में उपलब्ध हो जाती थी। जिसके चलते पूंजी की बचत होती थी। लेकिन अब मिट्टी को भी खरीदना पड़ता जिसके कारण केवल परिवार का गुजारा ही चल पाता है।

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