धर्मनगरी हरिद्वार के साथ ही कावड़ पथ पर शहर व कस्बों के लिए अर्थव्यवस्था की रीड बन चुका कावड़ मेला

हरिद्वार- कांवड़ मेला, लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का मेला है। इसमें न सिर्फ श्रद्धालुओं की आस्था ही निहित है बल्कि धर्मनगरी के हजारों व्यापारियों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी माना जाता है। लेकिन, कांवड़ की शुरूआत को लेकर धर्माचार्यो के अलग अलग मत हैं। इस बारे में यहां तक भी कहा जाता है कि कांवड़ यात्रा का शास्त्रों, पुराणों और ग्रंथों में कोई जिक्र नहीं मिलता। इसके अलावा कुछ धर्माचार्यो के अनुसार कांवड़ प्रथा भगवान परशुराम की ओर से चलाई गई थी, जो कालांतर में बदलती गई और आज यह रूप ले लिया।

श्रावण मास में लाखों शिव भक्त भगवान शिव के जयकारों के साथ धर्मनगरी से गंगा जल भरकर विभिन्न शिवालयों में अभिषेक के लिए ले जाते हैं। श्रावण मास में ही नहीं बल्कि फाल्गुन मास में भी कांवड़ का प्रचलन बढ़ गया है और फाल्गुन का कांवड़ मेला भी श्रावण जैसा ही हो गया है। कांवड़ क्या एक प्रचलन मात्र है, इस विषय में धर्माचार्य अलग अलग बात कहते हैं। कावंड़ की शुरूआत कहां से हुई इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता है। धार्मिक मामलों में महिपाल शास्त्री ने बताया कि कांवड़ का कोई प्रमाणिक आधार नहीं है। यह एक प्रचलन मात्र है जो शिव की आस्था से जुड़ा हुआ है। शिव भक्तों की असीम आस्था और विश्वास के कारण ही लोग सैकड़ों किलोमीटर चलकर गंगा जल को शिव अभिषेक के लिए ले जाते हैं। इसके अलावा महिपाल शास्त्री यह भी बताते हैं कि कांवड़ का कालांतर में तरीका और ध्येय बदल गया है। सतयुग में भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम ने सर्वप्रथम अपने माता पिता को पृथ्वी के चारों धर्मस्थलों की यात्रा कांवड़ से ही कराई थी। इसके बाद त्रेता युग में श्रवण कुमार को भी जब यह पता चला कि उनके अंधे माता पिता पवित्र स्थानों के जल से ठीक हो जाएंगी तो उन्होंने भी अपने माता पिता को कांवड़ में बैठाकर ही यात्रा कराई थी। इसके बाद से तरह से आस्थावान लोगों ने कांवड़ के रूप बदले। कुछ दशकों से कांवड़ शिव भक्ति का एक रूप बन गई है। कालांतर में भले ही कांवड़ के स्वरूप बदले हों, समय के साथ लोगों के विचार वेशभूषा आदि बदले हों लेकिन, जिससे कठिन से कठिन रास्तों में भी इन कांवड़ियों की आस्था नहीं डिगती।

– रुड़की से इरफान अहमद की रिपोर्ट

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