उत्तराखंड की लाेक गायिका कबूतरी देवी का निधन:पर्वतीय लोक शैली को पहुंचाया था अंतर्राष्ट्रीय मंच तक

पौड़ी गढ़वाल-उत्तराखंड की मशहूर लोक गायिका कबूतरी देवी के निधन हाे गया।आज उत्तराखंड ने लोक संस्कृति के क्षेत्र में एक अनमोल मोती खो दिया राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित उत्तराखंड की ती जनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी ने पहली बार दादा-नानी के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया पर्वतीय लोक शैली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचने में कबूतरी देवी का अभूतपूर्व योगदान रहा
सूत्रों के अनुसार खराब स्वास्थ के चलते उन्हें देहरादून रेफर किया गया किन्तु काफी समय तक इंतज़ार करने के बाद भी हेलीकाप्टर की व्यस्था ना हो पाने के कारण एवं स्वास्थ के ज्यादा खराब होने के कारण उन्होने पिथौरागढ़ के जिला अस्पताल में अंतिम साँस ली जो की दुर्भाग्यपूर्ण रहा ।

कबूतरी देवी के बारे में कुछ अंश

बेगम अख्तर और आकाशवाणी लखनऊ पर !! “आज पाणि झौं-झौ, भोल पाणि झौं-झौं, पोरखिन त न्है जूंला” और “पहाड़ो ठण्डो पाणि, कि भलि मीठी बाणी” जैंसे गीतों को जब वो हाई पिच पर गाती थी,लोगों के मुह से यही शब्द निकलते थे l
दुबली पतली काया, तराशे हुए नैन-नक्श, सुघड़ वेश-भूषा, मीठी सुसंस्कृत भाषा यही है कबूतरी देवी का परिचय l आप लोगों ने यदि ७०-८० के दशक में नजीबाबाद और लखनऊ आकाशवाणी से प्रसारित कुमांऊनी गीतों के कार्यक्रम को सुना होगा तो एक खनकती आवाज आपके जेहन में जरुर होगी। कबूतरी देवी की आवाज के लिए एक समय आकाशवाणी लखनऊ व नजीबाबाद तरसते थे।

पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गांव की कबूतरी देवी किसी स्कूल कालेज में नहीं पढ़ी, न ही किसी संगीत घराने से ही उसका ताल्लुक रहा बल्कि उसने पहाड़ी गांव के कठोर जीवन के बीच कला को देखा ,अपनाया, उसे अपनी खनकती आवाज से आगे बढ़ाया। जब टीवी या टेप तब नहीं था तब रेडियो में जो गीत प्रसारित होते थे कबूतरी उन्हें सुनकर याद करती। सुना, आत्मसात किया, फिर जंगल में घास काटते समय उसे सुर में साधा। यही थी रिहर्सल।

14 साल की उम्र में काली चंपावत जिले से सोर पिथौरागढ़ जिले ब्याह कर लाई गई कबूतरी के माता-पिता दोनों उस्ताद थे। ससुराल आकर कबूतरी देवी को अपनी गायकी आजमाने का मौका मिला। पति दीवानी राम उन्हें कई आकाशवाणी केन्द्रों में ले गए। संगीत की औपचारिक तालीम न लेने पर भी उनका अनुभव सुर व ताल को अपनी उंगली पर नचाना है वह गाने के साथ खुद हारमोनियम बजाती हैं तो साथी तबला वादक को सही निर्देश भी देती हैं। दरअसल कबूतरी देवी का संबंध पहाड़ की उस परंपरागत गायकी से रहा है जिसे यहां की मूल कला भी कहा जा सकता है। आज शायद संगीत प्रेमी उनको भूल गए हो लेकिन बीच-बीच में कला का सम्मान करने वाले कुछ लोग उन तक पहुंचते रहे हैं यही उनके जीवन का सबसे बड़ा संतोष है। कबूतरी देवी का जीवन संघर्ष यह समझने में मदद कर सकता है कि वास्तविक कला क्या होती है, वह कहां से उपजती है तथा उसका विज्ञान क्या है।

‘भात पकायो बासमती को भूख लागी खै कबूतरी देवी की कही इन पंक्तियों से हम उनके व्यक्तित्व का अंदाज लगा सकते हैं कि बिना किसी से कोई उम्मीद व अपेक्षा किए कैसे उन्होंने अपना जीवन सादे तरीके से जिया।

उत्तराखंड क्रांति दल ने कबूतरी देवी के निधन पर शाेक व्यक्त किया:-

उत्तराखंड जनपद देहरादून में युवा उक्रांद ने लोक गायिका कबूतरी देवी के निधन पर शोक व्यक्त किया । दुःख व्यक्त करते हुए सुशील कुमार ने कहा कि आज उत्तराखंड ने लोक संस्कृति के क्षेत्र में एक अनमोल मोती खो दिया / राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित उत्तराखंड की ती जनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी ने पहली बार दादा-नानी के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया ।सौरभ आहूजा ने कहा की पर्वतीय लोक शैली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचने में कबूतरी देवी का अभूतपूर्व योगदान रहा / न्यूज़ पेपर के माध्यम से संज्ञान में आया की खराब स्वास्थ के चलते उन्हें देहरादून रेफर किया गया किन्तु काफी समय तक इंतज़ार करने के बाद भी हेलीकाप्टर की व्यस्था ना हो पाने के कारण एवं स्वास्थ के ज्यादा खराब होने के कारण उन्होने पिथौरागढ़ के जिला अस्पताल में अंतिम साँस ली जो की दुर्भाग्यपूर्ण रहा ।

– पौडी से इंद्रजीत सिंह असवाल

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