अन्य राज्यों की तरह नहीं मिला है उत्तराखंड को पानी पर अधिकार

देहरादून- भारतीय संविधान में पानी राज्य सूची का विषय है। अंतरराज्यीय मामलों में केंद्र प जरूर हस्तक्षेप का अधिकार है, लेकिन एक राज्य का अधिकार छीन कर दूसरे राज्य को देने का अधिकार फिर भी नहीं है। सभी राज्यों को अपने राज्य के जल स्रोतों पर पूरा अधिकार है, लेकिन इस देश में एक राज्य उत्तराखंड भी है, जिसे अपने पानी पर अधिकार नहीं दिया गया है। उत्तराखंड के पानी पर या तो यूपी का अधिकार है या फिर तैयारी की जा रही है कि गंगा मैनेजमेंट बोर्ड गठित कर उत्तराखंड के पानी पर पांच राज्यों का अधिकार हो जाएगा।

यह कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब है सन् 2000 में उत्तराखंड राज्य गठन का श्रेय लेने वाली केंद्र की एनडीए सरकार इसके लिए जिम्मेदार है। भाजपा कहती है, वाजपेयीजी ने उत्तराखंड राज्य बनाया, मोदीजी सवांरेंगे। वाजपेयीजी ने ऐसा राज्य बनाया जिसके सबसे बड़े प्राकृतिक संसाधन जल से उसका अधिकार छीन लिया गया।

उत्तराखंड राज्य के गठन की प्रक्रिया में 1998 में राष्टपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 1998 उत्तर प्रदेश विधानमंडल के विचारार्थ भेजा। तत्कालीन उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार ने इस विधेयक के साथ 26 संशोधन के बिंदु केंद्र सरकार को नत्थी कर भेज दिए। इस प्रस्ताव के ग्यारहवें, बारहवें और बीसवें बिंदु सबसे महत्वपूर्ण है। ग्यारहवें बिंदु में राज्य सरकार केंद्र द्वारा भेजे गए प्रारूप के खंड 62 को पूरी तरह परिवर्तित करने की सिफारिश करती है। इस बिंदु के तीसरे भाग में राज्य सरकार सिफारिश करती है कि ‘‘विद्युत उत्पादन तथा संभरण के लिए वर्तमान सिंचाई या जल विद्युत परियोजनाओं तथा निर्माणाधीन परियोजनाओं को पानी की आपूर्ति करने के संबंध में जो व्यवस्था वर्तमान में चल रही है, वह चलती रहेगी, जिसमें अन्य बातों के अलावा यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी उत्तरवर्ती राज्य को जो अधिकार और लाभ वर्तमान परियोजनाओं में मिल रहे हैं या निर्माणाधीन सिंचाई या जल विद्युत परियोजनाओं के पूरा होने पर अभिप्रेत हैं, उनमें किसी प्रकार की कोई कमी न हो।’’

इस बिंदु के चैथे भाग में कहा गया, ‘‘वर्तमान में चल रही जल विद्युत परियोजनाएं तथा विद्युत पारेषण प्रणाली जैसा कि वे नियत दिन को थीं, वे उत्तरवर्ती राज्य उत्तर प्रदेश के राज्य विद्युत बोर्ड के पास रहेंगी। साथ ही इस बिंदु के अंत में जोड़ा गया है कि ऐसी परियोजनाओं के संबंध में उत्तर प्रदेश राज्य बिजली बोर्ड तथा उत्तर प्रदेश सरकार के अन्य सभी अधिकार यथावत रहेंगे। उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा बिंदु बीस में और स्पष्ट होकर उभरती है, जिसमें केंद्र से भेजे गए प्रारूप के खंड 76 को पूरी तरह परिवर्तित कर नया खंड प्रस्तावित किया गया है। इसके पहले भाग में राज्य सरकार सिफारिश करती है कि ‘‘उत्तराखंड में विद्यमान और निर्माणाधीन जल स्रोत परियोजनाओं के बाबत सभी अधिकार, स्वामित्व, निर्माण, संचालन, अनुरक्षण और नियंत्रण तथा दायित्व उत्तरवर्ती उत्तर प्रदेश सरकार में निहित रहेंगे और विद्यमान तथा निर्माणाधीन परियोजनाओं का लाभ उत्तरवर्ती राज्यों को उसी तरह प्राप्त होता रहेगा, जिस तरह नियत दिन से हो रहा है।’’

केंद्र के प्रारूप के साथ उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भेजे गई इन सिफारिशों में उनकी मंशा साफ झलकती है। वह उत्तराखंड के सबसे बड़े प्राकृतिक संसाधन, जल स्रोत को उससे छीन लेना चाहती है। लेकिन उत्तर प्रदेश के किसी संसाधन पर उत्तराखंड को हिस्सा नहीं देना चाहती है।

उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने इन संशोधनों को अक्षरशः तो नहीं माना, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की भावनाओं का पूरी तरह से ध्यान रखा। इसके लिए भावी राज्य उत्तराखंड के अधिकारों की पूरी तरह तिलांजलि दे गई। यही वजह है कि जब उत्तराखंड राज्य बना तो गंगा नदी प्रणाली पर हरिद्वार में बना भीमगौड़ा बैराज, पौड़ी जिले के कौलागढ़ में राम गंगा पर बना रामगंगा बैराज और शारदा नदी प्रणाली पर बनबसा में बना लोहियाहैड बैराज उत्तराखंड में स्थित होने के बावजूद पूरी तरह से उत्तर प्रदेश के कब्जे में दे दिए गए। जो कि आज दिन तक उत्तर प्रदेश के नियंत्रण में ही हैं। उत्तराखंड के अंदर निजी क्षेत्र की विष्णुप्रयाग और श्रीनगर जल विद्युत परियोजनाओं की बिजली यईआरसी की दरों पर खरीदने का पहला अधिकार उत्तराखंड के स्थान पर उत्तर प्रदेश को मिल गया। सबसे बड़ी टिहरी परियोजना जिसमें 75 प्रतिशत मालिकाना हक केंद्र सरकार का है, बाकी 25 प्रतिशत मालिकाना हक उत्तराखंड को मिलना चाहिए, वह भी उत्तर प्रदेश के सुपुर्द कर दिया गया।

मोदीजी यह सब तत्कालीन केंद्र की बाजपेयी सरकार की करतूत है। जो अपनी पार्टी के उत्तर प्रदेश के नेताओ के दबाव में उत्तराखंड के हक छीन रहे थे। उत्तराखंड के टुटपुजिये नेता सबकुछ लुटाने की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़े खड़े थे। कोई चूं तक बोलने की स्थिति में नहीं था। भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनावों में खूब प्रचारित किया कि कि बाजपेयीजी ने उत्तराखंड बनाया मोदीजी सवारेंगे। साथ ही यह भी कहा कि पहाड़ की जवानी और पानी को उसके काम लाया जाएगा, आज तक की तरह यों ही बहने नहीं दिया जाएगा। पहाड़ की जवानी तो अपने आप रुक जाएगी, आप पहाड़ के पानी का वाजिब अधिकार उत्तराखंड को दिला दीजिए। यदि उत्तराखंड को पानी पर उसके संवैधानिक अधिकार मिल गए तो यही एक संसाधन, उत्तराखंड के युवाओं को इस कदर रोजगार दिला देगा कि उन्हें रोजगार के लिए कहीं और भटकना नहीं पड़ेगा।

मोदीजी इस चुनाव के बाद करीब एक साल के समय में आपने अपने वायदे पूरे करने की तरफ एक भी कदम नहीं बढ़ाया है। इसकी वजह उत्तराखं डमें आपकी पार्टी के नेताओं की नामझी और अज्ञानता भी है। उन्होंने उत्तराखंड के अधिकार देने वाले इन सवालों को आपके सामने रखा ही नहीं है। भाजपा के अंदर कुछ इस तरह का माहौल बना हुआ है कि यदि कोई राज्य हित के सवाल उठाने लगेगा तो उसे विद्रोही मान लिया जाएगा। इसलिए भाजपा के किसी नेता में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह उत्तराखंड के अधिकार को उठाने वाले इस सवाल को केंद्रीय नेतृत्व के सामने रख सके। इस समय उत्तर प्रदेश में एक समझदार व्यक्ति के नेतृत्व में भाजपा की सरकार है। समझदार इस सेंस में कि उन्होंने अब तक की उत्तर प्रदेश सरकारों वह चाहे भाजपा की रहीं हों, सपा या बसपा की जितने दुराग्रह दिखाए हैं, इस करीब एक साल में उन्होंने दूसरा ही दृष्टिकोण दिखाया है। हरिद्वार के अलकनंदा होटल के मामले में उनका यह दृष्टिकोण साफ तौर पर सामने आया है। उन्होंने यह समझदारी दिखाई है, जो संपत्ति जिस राज्य की है, उसे मिले। यही वजह है कि अब तक उत्तराखंड के इस होटल पर वेवजह टांग अड़ाए उत्तर प्रदेश के अधिकारी पीछे हटने को मजबूर हुए और उत्तराखंड की संपत्ति उसे मिली। यह तो छोटी-छोटी संपत्तियां हैं, जल बहुत बड़ा प्राकृतिक संसाधन है। मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड गंगा, यमुना और शारदा नदी प्रणालियों का उद्गम स्थल है। ये नदियां सैकड़ों किमी उत्तराखंड में बहकर उत्तर प्रदेश में प्रवेश करती हैं। उत्तराखंड में इन नदी प्रणालियों के बहने के दौरान इनकी जल संपदा और खनन संपदा उत्तराखंड को मालामाल कर सकती हैं। उत्तराखंड के युवाओं को पहाड़ों में ही रोजगार दिला सकती हैं। यदि इसके मालिकाना हक ही उत्तराखंड के पास नहीं होंगे तो कैसे इनका उपयोग राज्य के विकास और रोजगार सृजन में किया जाएगा?

दुखद यह है कि उत्तराखंड की सरकारों ने अब तक राज्य के इन वाजिब हकों को पाने की इमानदार कोशिश तक नहीं की है। पता नहीं ऐसा क्यों है कि उत्तराखंड की सारी सरकारें यूपी तथा केंद्र के दबाव में रहीं हैं? केंद्र सरकार चाहे भाजपानीत एनडीए की हो या फिर कांग्रेसनीत यूपीए की वह भी यूपी के पक्ष में खड़ी रही हैं। सन् 2009 में एक जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए नैनीताल हाई कोर्ट ने यूपी सरकार को उत्तराखंड की पूरी परिसंपत्तियां उसे लौटाने के निर्देश दिए थे। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार सुप्रीम कोर्ट में यूपी के पक्ष में पक्षकार बनकर खड़ी हो गई। लेकिन शर्मनाक उत्तराखंड सरकार के लिए था, जो सुप्रीम कोर्ट में उत्तराखंड के परिसंपत्तियों के इस मामले में खड़ा होने की हिम्मत तक नहीं दिखा पाई। गौरतलब है कि तब उत्तराखंड में भाजपा की ही सरकार थी। सुप्रीम कोर्ट में उत्तराखंड के सिंचाई विभाग ने यह मामला उत्तर प्रदेश तथा केंद्र सरकार के खिलाफ लड़ा। समझा जा सकता है कि केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के सामने उत्तराखंड के एक अदने से सिंचाई विभाग की कोर्ट में खड़ा होने की क्या हैसियत रही होगी। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पूछा भी था, मामला उत्तराखंड की परिसंपत्तियों का है, उत्तराखंड सरकार कहां है? 2013 में सुप्रीम कोर्ट में यह मामला निर्णीत हुआ, जिसमें हाई कोर्ट के निर्देशों को स्टे कर दिया गया। 2012 तक राज्य में भाजपा की सरकार थी, 2012 में कांग्रेस की सरकार बनी। दोनों सरकारों का इस मामले में एक तरह का स्टेंड था, जो उत्तराखंड के खिलाफ था। उत्तराखंड के ऐसे नेतृत्व से क्या उम्मीदें की जा सकती हैं, जो उत्तराखंड की परिसंपत्तियों की लड़ाई लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकती है? यही उत्तराखंड का सबसे बड़ा दुर्भाग्य भी है।

भाजपा का वर्तमान नेतृत्व भी इसी स्टेंड पर खड़ा है, इसलिए पानी पर उत्तराखंड के प्राकृतिक अधिकारों का मामला वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के सामने नहीं उठा पा रहा है। बल्कि अपनी पार्टी की केंद्र सरकार के सामने दूसरी छोटी-छोटी मांगें रख रहा है। जब प्रधानमंत्री उत्तराखंड आकर यह वायदा करते हैं कि उत्तराखंड के पानी और जवानी का यू ही पलायन नहीं होने देंगे तो, यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि पानी पर उत्तराखंड का वाजिब हक उसे दिलाएं। लेकिन दुखद यह है कि इसकी तो कोई बात ही नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही पूछा जाएगा कि पानी और जवानी पर किए गए उनके वायदे का क्या हुआ? भाजपा यह न समझे कि प्रचंड बहुमत मिलने के बाद अब उसे कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। भाजपा नेतृत्व पानी पर उत्तराखंड के हक उसे दिलाने में विफल होता है तो उत्तराखंड के युवा उठ खड़े होकर अपने अधिकारों की लडाई लडनी होगी।
-इन्द्रजीत सिंह असवाल,पौड़ी गढ़वाल

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