अब कुछ भी सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम नहीं रह गया है सिर्फ विज्ञापनों का चक्कर – राजू चारण

राजस्थान- कल्पना कीजिए कि आप बाज़ार में कोई छोटी-मोटी चीज़ लेने गए हैं और ऐसी चीज़ जिसके अनेक विकल्प उपलब्ध हो मान लीजिए, आप टूथ पेस्ट लेने गए हैं। अगर आपने पहले से तय कर रखा है कि अमुक ब्रांड का ही पेस्ट लेना है, तब तो बात अलग होगी। आप पेस्ट खरीदेंगे और घर पर लौट आएंगे, लेकिन अगर आप ख़ुद निश्चित नहीं हैं कि आपको किस ब्रांड का पेस्ट खरीदना है तो आप दुकानदार से अनुरोध करेंगे कि वह आपको बड़िया वाला टूथ पेस्ट दिखाए। आप उन्हें देखकर उलटेंगे पलटेंगे, उन पर लिखी इबारत को ध्यान से पढ़ेंगे, उनकी कीमतों की तुलना करेंगे, और फिर बहुत सम्भव है कि मेरी ही तरह आप भी दुकानदार से उसकी सलाह मांगें. मैं अकसर ऐसा ही करता हूं. यह न पूछें तो ही बेहतर होगा कि उस सलाह को मैं कितना मानता हूं. मेरा अनुभव यह रहा है कि हर दुकानदार किसी न किसी उत्पाद को बहुत ज़ोर-शोर से अपना समर्थन प्रदान करता है‌‌,कुछ लोग यह मानते हैं कि उनकी सलाह सदाशयतापूर्ण होती है तो कुछ लोग यह बताते हैं कि दुकानदार उसी उत्पाद की अनुशंसा करता है जिसे बेचने में उसे ज़्यादा मुनाफ़ा होता है. सच जो भी हो, ज़्यादातर दुकानदार अपने सुझाए गए उत्पाद के समर्थन में एक बात ज़रूर कहते हैं, कि “इसके तो टीवी और अखबारों में भी खूब बडे़ बडे विज्ञापन आते हैं”. मतलब यह कि जिस उत्पाद के विज्ञापन ज़्यादा आते हैं वह औरों से ज़्यादा अच्छा होता है! बहुत लोग दुकानदार के इस तर्क से सहमत भी हो जाते हैं. दुकानदार के तर्क से सहमत न भी हों तो विज्ञापन के प्रभाव से तो शायद वे भी नहीं बच नही पाते होंगे। आजकल विज्ञापन किया ही इसलिए जाता है कि विज्ञापित उत्पाद की छवि आपके दिलों दिमाग में बैठ जाए, और उसके जो गुण अखबारों के विज्ञापन में बखाने गए हैं उन सब पर नहीं तो उनमें से कुछ को तो आप मान ही लेंगे अगर ऐसा न होता तो विज्ञापन का कारोबार इतना फल फूल क्यों रहा होता? यहीं यह बात भी ध्यान में रखने की है कि कुल मिलाकर विज्ञापन का मामला बड़ा ही दिलचस्प है किसी उत्पाद के गुण बताने के लिए जो विज्ञापन किया जाता है, उसका खर्च कौन वहन करता है? उसे बनाने और बेचने वाला या उसे खरीदने वाला? जब हम कोई उत्पाद खरीदते हैं तो उसकी लागत वगैरह के साथ-साथ उस पर किए गए विज्ञापनों का खर्चा भी हम ही वहन करते हैं ये है न अजीब बात! मैं तो बहुत बार यह सोचता हूं कि जिन उत्पादों का बहुत धुंआधार विज्ञापन किया जाता है, अगर उनका विज्ञापन किया ही न जाए, तो वे कितनी कम कीमत पर हमें मिल सकते हैं!

आजकल विज्ञापनों में कही गई हर बात सच नहीं होती है. बहुत बार वह अर्ध सत्य होती है, बहुत बार इस तरह घुमा फिरा कर कही गई होती है कि बिना कहे भी आप वह समझ लेते हैं जो हालांकि कहा तो नहीं गया होता है लेकिन कहने वाला चाहता है कि आप वही समझें, बहुत बार विज्ञापन में किए गए दावे एकदम मिथ्या होते हैं, लेकिन क्योंकि हमारे पास न इतनी सामर्थ्य होती है और न इतनी फुरसत कि उन विज्ञापनों की सत्यता को लेकर कोई कानूनी कार्यवाही करें, उनके झूठ का कारोबार निर्बाध फलता फूलता रहता है। कभी-कभार कोई विज्ञापन अपने झूठे वादों-दावों के लिए पकड़ में आता भी है तो इस पूरे कारोबार की सेहत पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता है।

जो कुछ उत्पादों के मामले में होता है वही सब कुछ और बहुत बड़े पैमाने पर अब जनसेवाओ के क्षेत्र में भी होने लगा है, इस जनसेवा में राजनीति को भी शामिल माना जाए! जन सेवाएं करने वाले बहुत सारे संगठन अपनी सेवाओं का घनघोर प्रचार प्रसार करते हैं और इस तरह वे अपनी सेवादार वाली छवि आपके दिल-ओ-दिमाग पर चस्पा कर देते हैं. इस स्थापित छवि का वे कई तरह से लाभ उठाते हैं। अगर उनकी संस्था को आर्थिक सहायता की ज़रूरत होती है तो आप उस ज़रूरत को पूरा करने के लिए आगे आते हैं और उनकी संस्थाएं और अधिक समृद्ध होती है. इसी निर्मित छवि के दम पर बहुत सारे समाज सेवक, सरकारी, ग़ैर सरकारी,देशी, विदेशी सम्मान पाते हैं बहुत बार यही छवि राजनीतिक दलों में जाने की उनकी राह को सुगम बनाती है‌। यह छवि निर्माण का काम अब बहुत व्यवस्थित और पेशेवराना हो गया है. बड़ी-बड़ी पीआर ,पत्रकारिता करने वाले, जन संपर्क एजेंसीज़ बढ़िया फीस लेकर आपके छवि निर्माण करती हैं. इस काम में मीडिया घराने और संस्थान भी खूब सहयोग देते हैं।

राजनीति में भी आजकल यही हो रहा है और उसका चलन बढ़ता ही जा रहा है‌। विधायकजी आपके पैसों से आपकी कॉलोनी पर एक दो गेट लगवाते हैं और उस पर खुद का नाम बडे़ बडे अक्षरों में सुशोभित कर देते हैं। विधायक-मंत्री अपनी तस्वीरों वाले विज्ञापन आए दिन अखबारों में छपवाते हैं, उनमें आपके हमारे काम की सूचनाएं बहुत कम, उन्हीं का यशोगान अधिक होता है. बड़े बड़े होर्डिंग्स आपके गली मुहल्ले और नुक्कड़ पर से नेताजी की छवि अपनी मुस्कान बिखेरती रहती है और उस मुस्कान का खर्चा आप हम ही वहन करते हैं। हमारा कोई नेता विदेशों में जाता है और हमें ख़बर मिलती है कि वहां भारतीयों ने मिलकर उसका बहुत भव्य स्वागत किया. नेताजी का स्वागत अर्थात हमारे देश का सम्मान. हम उस नेता के प्रति कृतज्ञ होते हैं कि उसने विदेशी धरती पर हमारे देश का मान बढ़ाया. लेकिन हम इस बात को या तो जान नहीं पाते हैं या जानकर भी अनदेखा कर जाते हैं कि विदेश में हमारे नेता का जो भव्यातिभव्य सम्मान हुआ, उसका आयोजन किसने और क्यों किया? उस पर जो लाखों करोड़ों रुपये पैसा खर्च हुआ वह कहां से आया? बहुत बार तो ऐसे सम्मान आयोजको से मिलकर युवा नेताजी स्वयं ही आयोजित करवा लेते हैं. मारवाड़ी में कहावत है कि भाई धणी का धणी कौन? किसमें हिम्मत है जो उनसे खर्चे का हिसाब मांगे? सूचना का अधिकार केवल कागज़ों में दबकर रह गया है. सरकार के पास आपकी मांगी हुई जानकारी न देने के हजारो अनगिनत तर्क हैं. यह बात हमने हाल के समय में खूब देखी है. तो बड़े नेता जनता के खर्च पर अपना सम्मान आयोजित करवाते हैं और भोली जनता को यह बता कर कि देखो हमारा कितना सम्मान है, उसकी प्रशंसा और उसके वोट हासिल करते हैं. इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि हमारे देश में भी अनेक विदेशी नेता आते हैं. हम उनमें से कितनों के सम्मान में जाने का कष्ट उठाते हैं?असल में ऐसे सम्मान समारोहों में लोग आते नहीं, ब्लकि लाये जाते हैं. ठीक अपने देश में होने वाली चुनावी रैलियों में जुटने वाली हजारों लोगों की भीड़ की तरह. बस अंतर इतना होता है कि देशी भीड़ जरूर सस्ती होती है, विदेशी भीड़ महंगी. देशी भीड़ ट्रकों, ट्रैक्टरों और हद से हद बसों में लाद कर लाई जाती है, विदेशी प्रशंसकों के लिए चार्टर्ड विमान और पंच सितारा सुविधाएं बहुत सामान्य हैं. और हों भी क्यों न? जब माल-ए- मुफ्त हो, तो दिल को बेरहम होने का हक़ तो स्वयं ही मिल जाता है। हमारे नेता आए दिन विदेशी दौरे पर जाते हैं, वहां तो उनका स्वागत होता ही है, अब एक नया फैशन और चला है, विदेश से लौटने पर नेताजी के स्वागत सत्कार का और यह सब विभिन्न मीडिया माध्यमों पर हमें लगातार परोसा जाता है। हमारे मन में नेताजी की छवि निरंतर उजली होती रहती है, और इस छवि स्थापन का खर्चा भी हम ही उठाते हैं. हमें एक पल को भी यह सोचने का अवकाश नहीं दिया जाता है कि जो कुछ हमें दिखाया जा रहा है वह सब सहज-स्वाभाविक और स्वत: स्फूर्त न होकर पूरी तरह से उनके अपनों के द्वारा ही रचित स्क्रिप्टेड है।

इस पूरे खेल में जो नेता सत्तारूढ़ हैं उन्हें स्वाभाविक बढ़त हासिल रहती है। उनके पास अकूत सरकारी धन और उसे खर्च करने का निर्बाध अधिकार रहता है. विभिन्न आधुनिक युग के सेकड़ो समाचार माध्यम भी तरह-तरह से – जैसे विज्ञापनों से उनसे उपकृत होते रहते हैं अत: वे उन्हें बड़ी उदारता से कवर करते हैं। प्रतिपक्षी दलों के नेताओं को या उनसे इतर जन को यह सुविधा हासिल नहीं होती है। इसलिए हम सब यह देखते हैं कि समाचारों के माध्यमों में उनकी उपस्थिति बहुत कम दर्ज होती है, इस बात का भी लाभ सत्तासीन नेता उठाते हैं. वे अपने विभिन्न सूत्रों के माध्यम से यह प्रचारित करवाते हैं कि विपक्षी नेता निकम्मे और निष्क्रिय हैं, उन्हें जनता की कोई परवाह नहीं है. विपक्षी नेतागण की आवाज़ नकारखाने में तूती बन कर रह जाती है।

छवि निर्माण का यह पूरा कर्म कांड अब इतना फैल गया है और इसका आकार इतना विशाल हो गया है कि जो भी सार्वजनिक क्षेत्र में हैं वे इसके बग़ैर खुद को अपूर्ण सा महसूस करते हैं, यह उनके अस्तित्व की ज़रूरत बन गया है. लेकिन इसका एक अन्य परिणाम यह भी हुआ है कि जो लोग इस पूरे खेल को समझते हैं, उन्हें अब हर छवि अविश्वसनीय लगने लगी है। अगर हम किसी के अच्छे काम के बारे में जानते-सुनते हैं तो हमारी पहली प्रतिक्रिया अविश्वास की ही होती है. सोचते हैं इसे प्रचारित करने में इन्होंने कितना रूपये पैसा खर्च किया होगा? लोगों की अच्छाई पर से हमारे विश्वास का डिग जाना बहुत बड़ी त्रासदी है‌। वैसे त्रासदी तो यह भी है ही कि आप जनता की सेवा करना चाहते हैं लेकिन उसके लिए ढोल पीटने वालों की फौज के इंतज़ार में क्यों रुके हुए हैं! यह सब कुछ-कुछ वैसा ही मामला है जैसा स्टेज पर खड़े दुल्हा दुल्हन का वर माला डालने के लिए हमारे पत्रकारिता करने वाले मित्रों और फोटोग्राफ़रो के संकेत के इंतज़ार करने वाला होता है। अंतर बस इतना होता है कि नेताजी अगर बड़े होते हैं तो रिपोर्टर और फोटोग्राफ़र उनके इशारों पर नर्तकियों की तरह नर्तक करता है. लेकिन, यह देखना बहुत दुखद है कि अब कुछ भी सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम नहीं रह गया है।

– राजस्थान से राजूचारण

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