उत्तराखंड – पहाड़ी जनपदाें में चीड(Pine)( कुलें ) के आस पास सूखते जलस्रोतो से पूछ लीजिये कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित इस प्रजाति के रहते आज दमा के कितने मरीज ठीक हुये हैं जो मात्र चीड की हवा ग्रहण कर जिन्दा रह रह रहे हैं.प्रकृति का यह रूप बनावटी है जो अंग्रेजों की बीजी हुई व्यवसाहिक फसल है तथा जिसे पहाड़ की धरती पर जबरन थोपा गया है.चीड एक ऐसा पेड है,जिसे साजिशन ,व्यापार धन्धे के लिए रोपा गया जिसकी कीमत पहाड़ के लोग सूखते जलश्रोतों और छोटी बहुउपयोगी वनस्पति के ह्रास से चुका रहे हैं,
तथाकथित पर्यावरणविद जब चीड से लदे-गदे पहाडों को देख कर झूमते हैं और हरियाली गीत गाने लगते है,तो बडा दुःख भी होता है अनभिज्ञ सीधे-सादे हमारे पहाडी लोग जिन्हें चीड के यह जंगल यहाँ का पर्यावरण लगते हैं उनके संज्ञान में लाना अति आवश्यक है कि चीड एक आभासी वन है जो जंगल होने का मात्र एक भ्रम है.
बजाय कि चीड के बांज,बुरांस व देवदार काफल व भीमल जैसे लाभकारी वृक्ष ही पहाड़ों की असली पर्यावरण संम्पति है.
पलायन आज हमारे लिए बड़ा जटिल प्रश्न बनता जा रहा है,हालिया सर्वेक्षण के आधार पर यदि रिपोर्ट का अवलोकन किया जाय तो ,पृथक राज्य बनने के बाद पलायन की मार से करीब तेरह सौ गाँव जनशून्य हए हैं और खाली पड़े सीमान्त गाँओं पर ड्रैगन की टेढ़ी नजर है जो कि चिंता का विषय है,राज्य सरकार को चाहिए कि वर्तमान वन नीति में चीड की फसल को पहाड़ के उपरों हिस्सों से नष्ट कर उसके बदले बांज बुरांस देवदार काफल व भीमल(जलवायु के अनुरूप)जैसे गुणकारी वृक्षों को रोपा जाय,तथा जिसके लिए समग्र रोजगार नीति तैयार हो ताकि पलायन की मार झेल रहे युवकों को इस कार्य में समुचित रोजगार का मिल सके जिससे युवकों में उत्साह पैदा हो और वह बेरोजगारी की मार से उभर सकें.बांज बुरांश देवदार काफल भीमल जलश्रोतो के लिए बहुत ही उपयोगी वृक्ष हैं,और जलश्रोतों के संरक्षण के बिना पानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती.जबकि चीड पानी के श्रोतों का बड़ा दुश्मन है .खेती से विमुखता का एक बड़ा कारण यह भी है कि सैकड़ों परिवारों के पास सिंचाई योग्य भूमि न होने के कारण उनका खेती में गुजारा नहीं हो पाता है.हर परिवार के पास यदि सिचाई योग्य खेत हों तो मेरा मानना है कि पलायन की इस अंधी दौड़ पर कुछ विराम अवश्य लगेगा ।
-पौड़ी से इन्द्रजीत सिंह असवाल की रिपोर्ट