उत्तराखंड:कुछ समझ में नही आता कि तड़प लें या रो लें इन पहाड़ों में

उत्तराखंड – कुमाऊँ मंडल सरोवर नगरी नैनीताल के पास ओखलकांडा ब्लाक के कुकना गांव की 28 साल की महिला दो-तीन दिन से बीमार थी। जब हालत बिगड़ गई तो अस्पताल ले जाना जरूरी था। यहां से सड़क तक पहुंचना किसी जंग से कम नहीं। कई किलोमीटर ऊंची-नीची पहाडिय़ों से उतरना बीमार के लिए असंभव है। पहाड़ों में दूर तलक कोई अस्पताल नहीं हैं। जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं भी तो उनमें डाक्टर नहीं, डाक्टर हैं तो अन्य सुविधाएं नहीं हैं। गांव के लोग कुर्सी पर दो लकडिय़ां बांध कर मरीज को सड़क तक पहुंचा रहे हैं। यहां से वाहन मिल गया तो तीन-चार घंटे बाद अस्पताल मिलेगा। प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने लायक धन नहीं है। सरकारी अस्पताल में डाक्टर देख ले इतना ही बहुत है। इन गांवों के वासिंदों के लिए उम्र पूरी जीना कठिन है। गर्भवती महिलाओं की और भी बुरी हालत रहती है।

जीवन जीने की कोई वजह नहीं, फिर भी हम जीते हैं। जिंदगी कोई अभिनय नहीं, हर घड़ी मुश्किलों से लड़ते हैं। ये तस्वीर तीन दिन पुरानी है। यहां सदियों पुराना जीवन आज भी अपनी गति से आगे सरक रहा है। हमसे सब कुछ छीन कर जीने लायक सुविधा तक नहीं देती, ये जुल्मी सरकार ।
…चार दिन की सैर करने के लिए पर्वतीय इलाके जितने सुंदर हैं, यहां रहने वालों के लिए उतने ही बदतर हैं। गर्मी का मौसम शुरू होते ही पहाड़ घूमने वालों की भीड़ लगेगी। पर्यटक नगरी, सरोवर नगरी, भीम नगरी, तालों के शहरों में प्रकृति का आनंद उठाने दूर-दूर से लोग पहुंचेंगे। सेवाभाव से यहां के लोग भी जुटे रहेंगे। कोई सड़क किनारे फल बेचेंगे, कोई साहबों को खूबसूरत इलाके घुमाएंगे। कोई इनसे आंख चुराएंगे, कोई लफंग लड़कों की आंखों से बचकर उनको रास्ता देंगे। दिन ढलते ही घोर पहाड़ी इलाकों में रात बिताने चले जाएंगे। दिनभर थक-हार कर सपने डरावने आएंगे। लगेगा कोई पीछा कर रहा है, किसी की नीयत महिला, बच्चों पर है। किसी की नजर गांव की जमीन और मकान पर है। नीद खुलेगी तो रोजी की चिंता सताएगी।
…सरकार का जोर है कि पहाड़ों को पर्यटन के रूप में विकसित किया जाए। योजना है कि केदारनाथ से लेकर हर मनोरम इलाकों में धनवानों के ठहरने के लिए आलीशान हट बना दिए जाएं। बिल्डर इस काम में पहले से ही लगे हैं। अब सरकार भी उनके साथ है। साल में 10-15 दिन की छुट्टियां बिताने के लिए फ्लैट और कोठियां बना दी गई हैं। आसपास के गांव वालों को ये भी पता नहीं कि ये कोठियां किसकी हैं, यहां आने-जाने वाले लोग कौन हैं। चौकीदार बताते हैं कि कोई दिल्ली का है, कोई नोएडा तो कोई मुंबई का है। गांव के लोग दूर नदी-गधेरों से पीने का पानी लाते हैं, लेकिन कोठियों के लिए पानी की पाइप लाइनें बिछी हैं।
…उत्तराखंड के कुमाऊं, गढ़वाल के मनोरम इलाकों में रहने वाले मूल निवासियों के लिए कुछ भी नहीं बचा है। न अस्पताल हैं, न सड़कें हैं और न ही बच्चों की शिक्षा के लिए ढंग के स्कूल हैं। यहां रोजगार शून्य है। शराब की दुकान के अलावा किसी दुकान में ग्राहक नहीं हैं। खेतों में अनाज नहीं उगता, बगीचों के फल बिकते नहीं।

सरकार के द्वारा युवाओं के लिए स्वरोजगार योजनाएँ दी गई है परंतु पहाड़ के युवाओं की पहुँच से बहुत दूर हैं युवाओं के अंदर हुनर की कमी नहीं है परंतु सरकार व वित्तीय सेवाएँ पहाड़ में पहाड़ियों पर काेई बडा जाेखिम नही लेना चाहती है जिस कारण अधिकांश युवा मायूस हाेकर पलायन करने को मजबूर है
…बीमारी पकड़ जाए तो अस्पताल तक पहुंचना मुश्किल है। रात के बीमार को एक खुराक दवा नहीं मिल सकती। उजाला होने तक जान बची रहे तो दूर शहर तक सुरक्षित पहुंचना संभव नहीं है। सड़क नहीं, पैदल चलने लायक रास्ते भी नहीं। युवा महानगरों में रोजी कमाने जा चुके हैं, बुजुर्ग कंधे हर जिम्मेदारी ढोने लायक नहीं बचे।

साभार: चन्द्रशेखर जोशी जी
इंद्रजीत सिंह असवाल

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