देह शरीर का आत्मचिंतन…. राजू चारण

देह बेहद रोचक शब्द है, इसे पलटने पर ये हदें जैसा सुनाई देता है। हद-हदें अर्थात सीमा-सीमायें। तब प्रश्न खड़ा होता है किसकी सीमाएँ ?

भाषा विज्ञान में देह का एक और अर्थ होता है गाँव। इसी से देहात या देहाती निकला है। तो किसका गाँव ?

देह का एक अर्थ होता है परकोटा, सुरक्षा कवच। प्रश्न फिर खड़ा होता है किसका सुरक्षा कवच ?

तो ऐसा क्या है जो देहोत्तर है? देह से परे है,जो असीम है, जो देह में रहता है ? जिसके लिए हमारी देह एक परकोटे के जैसी है, जो उस देहोत्तर तत्व का सुरक्षा कवच है ? इसका अर्थ हुआ की हमारी देह तब तक ही महत्वपूर्ण है जब तक उसमें देह से परे तत्व का वास होता है।

विचारणीय ये है कि इस देह के रख रखाव, इसके मान, सम्मान, इसकी प्रतिष्ठा के लिए तो हम सदैव सतर्क, सनद्ध, उद्धत, चौंकन्ने रहते हैं यहाँ तक कि शरीर की आवश्यकता की पूर्ति हेतु हम कभी-कभी असभ्य और आक्रामक भी हो जाते हैं, किंतु इसमें रहने वाले उस देहोत्तर परम तत्व की तनिक भी चिंता नहीं करते, उसके आवास को हम अपने भाव, भाषा, भंगीमा से उसके लिए कारावास में बदल देते हैं। परिणामस्वरूप उस परम तत्व की उत्कंठा, कुंठा में बदल जाती है।

ज्ञात हो- लाखों किलोमीटर की यात्रा तय करने वाले साहसी, हज़ारों किलोमीटर भूमि पर अपना आधिपत्य जमा कर राज करने वाले राजे-महाराजे, पूरी धरती को जीतने वाले दुर्दम्य वीर भी अंत में अपनी देह के लिए मात्र छः क़दम भूमि ही प्राप्त कर पाते हैं। लेकिन जो देहोत्तर तत्व की परवाह करते हैं, जो अपनी देह को एक ऐसे स्वस्थ, सबल सेवक के रूप में तैयार करते हैं जो उसमें रहने वाले परमतत्व की ध्येयपूर्ति में सहायक हो, वे भूखंड की सीमा से निकलकर संसार के भावखंड में सदा के लिए स्थापित हो जाते है। इसलिए सम्राटों, शासकों, धनपतियों की अपेक्षा ‘संतजन’ युगों-युगों तक हमारी स्मृति में वर्तमान रहते हैं।

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