*नागल में दुकान सजाए बैठे ग्राहकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं कुंभकार
*पर्यावरण संरक्षण, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के लिये उपयोगी हैं, मिट्टी के पात्र
सहारनपुर – वर्तमान में दीपावली जैसे प्रसिद्ध त्योहार भी हाईटेक टेक्नोलॉजी की जकड में आने से प्रजापति (कुंभकार) के परंपरागत व्यवसाय पर विपरीत असर पड़ा है, जिसके चलते यह व्यवसाय अब घाटे का सौदा होता जा रहा है, भूखे मरने की कगार पर पहुंच चुके प्रजापति समाज के अनेक लोगों ने अपने परंपरागत व्यवसाय को तिलांजलि दे अन्य व्यवसाय अपना लिए हैं।
यूं तो दीपावली के स्वागत को सजे बाजारों में कुंभकारों ने भी अपना योगदान देते हुए मिट्टी से बने बर्तनों की एक से बढ़कर एक दुकानें सजा रखी है मगर इसे किस्मत की मार कहें अथवा हाईटेक टेक्नोलॉजी का असर कि उन्हें दिन भर अपनी दुकानों पर बैठ कर ग्राहकों का इंतजार करना पड़ रहा है।
अगर चंद दशक पहले की बात करें तो अश्विन (असोज) मास के प्रारम्भ होते ही मिट्टी के बर्तनों की जोरदार बिक्री शुरू हो जाती थी, क्योंकि अश्वनी मास के शुक्ल पक्ष शुरु होते ही मां भगवती नवरात्रि हेतु जौं बोने के लिए प्रत्येक परिवार में पांच अथवा सात मिट्टी के पात्र एवं ढक्कन, घड़ा व सुराही आदि की जरूरत पड़ती थी, तदुपरांत अष्टमी व नवमी में दुर्गा विसर्जन हेतु कन्या को भोजन कराने को पत्तल के साथ कुल्लड़ भी मंगाए जाते थे, जो व्यक्ति इस दिन भंडारे आदि का आयोजन करते थे उनके यहां तो हजारों की संख्या में कुल्हड मंगाए जाते थे, साथ ही विवाह शादियों में भी पानी व रायता आदि पीने को भी कुल्हडों का प्रयोग किया जाता था, मगर अब उनका स्थान भी प्लास्टिक के गिलास व प्लेटो नें ले लिया है, घरों में पूजन हेतु घड़ा, करवा, जौंपात्र, मिट्टी के खिलौने व भगवान की मूर्ति का स्थान अब स्टील, तांबा, पीतल, शीशा व प्लास्टिक आदि नें ले लिया है, पहले जहां कुम्भकारों के घरों पर मिट्टी के बर्तन आदि लेने वालों की लाइनें लगी रहती थी वहीं अब दुकान लगाने के बावजूद इन लोगों को ग्राहकों की राह देखनी पड़ती है।
दीपोत्सव अर्थात दीपावली को दीयों का त्यौहार कहा जाता है, कुछ समय पूर्व तक मिट्टी के दीपक जला कर उन्हें अपने घरों में जगह-जगह रखकर पूरे मकान को अंदर से बाहर तक प्रकाशमान करने का कार्य हिंदू समाज के प्रत्येक परिवार में होता रहा है, परंतु यह स्थान भी अब चाइनीज झालरों, लड़ियों तथा दीपक आदि फैंसी आइटमों नें ले लिया है, प्रत्येक परिवार में इन दिनों जहां सैकड़ों की संख्या में दीपक खरीदे जाते थे वहीं अब मिट्टी के दीपक मात्र पूजा करने योग्य ही खरीदे जाते हैं, जिस कारण कुंभकार समाज के लोग अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़ने को मजबूर है।
कस्बा निवासी राजपाल व महेश प्रजापति का कहना है कि चंद वर्ष पहले तक उनके यहां मिट्टी के बर्तन खरीदने वालों की लाइन लगी रहती थी मगर अब स्टील व प्लास्टिक के बर्तनों व खिलौनों के आ जाने से उनके बर्तनों व खिलौनों की बिक्री बहुत कम हो गई है जिससे वह परेशान है।
कोटा निवासी मांगा व सोमपाल प्रजापति का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो मिट्टी के बर्तनों का व्यवसाय बीते जमाने की बात हो जाएगी, कंवरपाल प्रजापति व शाहपुर निवासी सुशील प्रजापति का कहना है कि जोहड व पोखरों के खत्म होने से मिट्टी का मिलना भी एक दुष्कर कार्य है इसके बावजूद भी जैसे तैसे करके मिट्टी लाकर बर्तन बनाते हैं मगर फिर उनके लिए ग्राहकों का इंतजार करते हैं, सरकार को इस व्यवसाय को जीवित रखने हेतु कोई न कोई उपाय करना चाहिए।
सरकार के प्लास्टिक पर पाबंदी के बाद कुछ उम्मीद इस व्यवसाय की उन्नति के लिये बढ़ गई है, पर्यावरण संरक्षण, स्वस्थ और स्वछता के लिये मिट्टी के पात्र बहुत उपयोगी है।
भारत के जागरूक नागरिक होने के नाते हम सभी को मिट्टी के दिये,और अन्य पात्रो की खरीदारी कर इस कला को विलुप्त होने से बचाना चाहिये।
– सुनील चौधरी सहारनपुर