Breaking News

सरहदी इलाकों में जर्जर शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्थाओ पर ध्यान देना जरुरी

बाड़मेर/राजस्थान- भारत में शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्थाओ की जितनी दुर्दशा है, उतनी तो हमारे पड़ौसी देशों में भी नहीं है। ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें यदि भारत सरकार जमकर पैसा लगाए और ध्यान दे तो भारतवर्ष दुनिया के विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में अगले दस साल में ही पहुंच सकता है।

भारत में शिक्षा और चिकित्सा की परंपराएं दुनिया की सबसे प्राचीन हैं और समृद्ध हैं। इन दोनों क्षेत्रों में भारत का दबदबा इतना मशहूर था कि चीन और जापान से लेकर अरब राष्ट्रों और यूरोप से भी छात्र भारतवर्ष में अधययन करने के लिए आते थे और सदियों तक आते रहे हैं लेकिन बाहरी आक्रमणकारियों ने अपनी अहंकारवृत्ति के चलते भारत की पारंपरिक शिक्षा और चिकित्सा प्रणालियों को हतोत्साहित किया। उसके कारण शोधकार्य बंद हो गया और आज का भारत पश्चिम का नकलची बन गया। अब भी जो देश संपन्न और शक्तिशाली हैं, यदि हम उनके इतिहास को देखें तो पाएंगे कि उनकी समृद्धि और शक्ति का रहस्य भारत-जैसे प्रगत राष्ट्रों के शोषण में तो छिपा ही है, उससे भी ज्यादा इसमें है कि उन्होंने सबसे ज्यादा जोर शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्थाओ पर लगाया है।

द्वितीय महायुद्ध के पहले तक अमेरिका अपने बच्चों को उच्च शिक्षा और शोध तथा अपने मरीजों को चिकित्सा के लिए ब्रिटेन और यूरोप भेजा करता था लेकिन ज्यों ही उसने इन दोनों क्षेत्रों में पैसा लगाना और ध्यान देना शुरु किया, वह विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति बन गया। आज भी जो राष्ट्र इन दोनों मदों में सबसे ज्यादा खर्च करते हैं, उनकी जनता का जीवन-स्तर हमसे लाख गुना कहीं बेहतर है। भारत में हम अपने समग्र उत्पाद (जीडीपी) का शिक्षा पर तीन प्रतिशत भी बड़ी मुश्किल से खर्च करते हैं जबकि मोटी आय वाले कई छोटे राष्ट्र हमसे दुगुना खर्च करते हैं। कुछ राष्ट्रों, जैसे केनाडा में विद्यालयीन शिक्षा बिल्कुल मुफ्त है। हमारे यहां सरकारी स्कूलों की हालत तो अनाथालयों जैसी है और जिन्हें अच्छा माना जाता है, ऐसे अंग्रेजी माध्यम के नीजी स्कूल तो बेहिसाब ठगी के अड्डे बने हुए हैं। हमारी स्कूली शिक्षा आज भी हमारे बच्चों को बाबूगरी के अलावा क्या सिखाती है? उन्हें मौलिक चिंतन, इतिहास बोध, कार्यक्षमता और जीवनकला में निपुण बनाने की बजाय वह डिग्रीधारी बनाने में अधिक रूचि लेती है।

पिछले एक दशक से यही हाल हमारी चिकित्सा-व्यवस्थाओ का भी है। स्वास्थ्य-रक्षा पर हमारी सरकारें एक डेढ़ प्रतिशत खर्च करके संतुष्ट हो जाती हैं। करोड़ों लोगों को स्वस्थ जीवन-पद्धति सिखाने का कोई अभियान उनके पास नहीं होता। बच्चों की शिक्षा में आसन-प्राणायाम और स्वास्थ्य संबंध जानकारियों की अनिवार्यता कहीं नहीं है। एलोपेथी का लाभ उठाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमारे आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथी और हकीमी में शोध और उपचार को प्रोत्साहित किया जाए तो कुछ ही वर्षों में भारतीय लोगों की कार्यक्षमता और दीर्घायु में विलक्षण वृद्धि हो सकती है।

– राजस्थान से राजूचारण

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *