जानें क्या है उत्तराखंड में 27 फरवरी को लगने बाले शहीद मेले का इतिहास

उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल- टिहरी राज्य की राजधानी श्रीनगर का प्राचीन रास्ता दुगड्डा से गुजरता था तथा लोग पैदल यात्रा करते थे। वर्ष 1857 में लैंसडाउन में अंग्रेजों द्वारा गढ़वाल रेजिमेंट का गठन होने के बाद भी कोटद्वार-दुगड्डा का रास्ता फतेहपुर-उमरीखाल तक कच्चा रास्ता था। सेना के लिए आपूर्ति का सामान खच्चरों पर लादकर लैंसडाउन जाता था तथा इसके लिए दुगड्डा के बहेदी में एक खच्चरों के ठहरने का स्थान था।
उस समय दुगड्डा एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक शहर था। वर्ष 1907 की बाढ़ में जब सिधबली के पास कोटद्वार की पुरानी मंडी बह गयी तब धनीराम ने दुगड्डा के बहेदी में एक नया बाजार बनाया। कई मारवाड़ी व्यापारी तथा बरेली, मोरादाबाद एवं बिजनौर से व्यापारी यहां आये और दुगड्डा में बस गये जिससे शहर अपने आप में एक व्यापारिक केंद्र के रूप में उदित हुआ। नजीबाबाद, हलदौर, चांदपूर आदि पड़ोसी शहरों से बड़ी मात्रा में वस्तुएं यहां बैलगाड़ियों या ऊंटों पर पर लायी जाने लगी और आगे इसे लैंसडाउन एवं पौड़ी, श्रीनगर, बद्रीनाथ तक पहुंचाया जाता। उस समय सुदूर नीति एवं माणा से भोटिया भी लोग यहां आकर अपने सामानों की बिक्री करते थे।
वर्ष 1920 तक कोटद्वार से दुगड्डा तक पक्की सड़क बनी एवं कार एवं मोटरगाड़ियां इस पर चलने लगी। वर्ष 1924 में इस सड़क को उमरीखाल तथा लैंसडाउन तथा वर्ष 1944 में पौड़ी तक बढ़ाया गया। वर्ष 1926 में कोटद्वार तक रेल आने पर धीरे-धीरे कोटद्वार वाणिज्य केंद्र के रुप में विकासित होने लगा। इस विकास को वर्ष 1934 में मोती बाजार की आग एवं वर्ष 1929 और वर्ष 1943 के प्लेग महामारी ने बिगाड़ दिया। वर्ष 1927 की बाढ़ ने भी दुगड्डा में व्यापार तथा वाणिज्य की हालत बिगाड़ दी जो कोटद्वार की ओर ध्यान केंद्रित करने में सहायक बना।
यह शहर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से भी निकट से संबद्ध रहा है। उस समय स्वर्गीय मुकुन्दीलाल वकील ने इसे अपने छिपने का मुख्य स्थान बनाया तथा वर्ष 1936 तथा वर्ष 1945 में दो बार स्वाधीनता संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू यहां आये। काकोरी घटना के शीघ्र बाद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद थोड़े समय के लिए छद्मवेश में वर्ष 1929 में यहां साथी देशभक्त भवानी सिंह रावत के आमंत्रण पर यहां आये थे जो पास के नाथोपुर गांव के वासी थे। आजाद के निशानेबाजी के अभ्यास को अब भी याद किया जाता है तथा यहां उनकी विशिष्टता का गवाह एक पेड़ अब भी मौजूद है। इस महान स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रत्येक वर्ष दुगड्डा के रामलीला मैदान में 27 फरवरी को शहीद मेला का समारोह होता है।

-पौड़ी से इन्द्रजीत सिंह असवाल की रिपोर्ट

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