उत्तराखंड! अस्तित्व की जंग है ” गैरसैंण ” आंदोलन

उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल- पहाड़ी सूबे में लंबे अरसे के बाद एक बार फिर एक बड़े आंदोलन की आहट सुनाई दे रही है l ” गैरसैंण ” में आंदोलन रुपी यज्ञकुण्ड में प्रज्वलित की गई अग्नि पहाड़ी जिलों की आवाम की यज्ञ आहुतियों से भीषण रूप धारण कर आस्थाई राजधानी की सड़कों से होते हुए सत्ताशाओ की आरामगाहो के नजदीक पहुँच गई है l

राज्य निर्माण के बाद से अपने न्यायोचित अधिकारों के प्रति पहाड़ी जनमानुष की उदासीनता और शहरी इलाकों की अत्याधुनिक सुविधाओं के आदि हो चुके स्वयंभू खांटी चांटी सत्ताशाहों के उपेक्षित रवैये के कारण विकास की दौड़ में पहाड़ पिछड़ता चला गया l इसको सूबे का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अविभाजित उत्तरप्रदेश के दौर में ” रमाशंकर कौशिक कमेटी ” द्वारा मुलायम सरकार को पेश की गई रिपोर्ट में दोनों कमिश्नरियों के केंद्र जिस ” गैरसैंण ” को राजधानी के लिए उपयुक्त माना गया था वो पहाड़ की विषम परिस्तिथियों में उपजे नेताओं के लिए गैर हो गया l एक ओर जहाँ सूबे के मैदानी क्षेत्र के कद्दावर नेता और वर्तमान में टीएसआर सरकार में नंबर टू की हैसियत रखने वाले काबीना मंत्री मदन कौशिक ने गैरमूल होने के बावजूद सदन में संकल्प प्रस्ताव लाकर गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित करने की मांग की थी वहीँ दूसरी तरफ पहाड़ी मूल के मुखिया मुख्तार स्थाई राजधानी पर पिछले 17 सालों से सूबे की असल आवाम को गुमराह करने के नित नए बायपास खोजते रहे हैं l ऐसे में सूबे के मुखिया के तौर पर पहाड़ी मूल के विधायक का चयन भी बिल्कुल औचित्यहीन साबित होता है l मौजूदा समय में पहाड़ी सूबे की 70 विधानसभा सीटों में से केवल 34 सीटें ही 9 पहाड़ी जनपदों के हिस्सें में हैं, जबकि 4 मैदानी जनपद 36 सीटों पर काबिज हैं l द्वितीय परिसीमन के बाद 9 पहाड़ी जनपदों में विधानसभा सीटों की संख्या घटकर केवल 27 सीटों पर सिमट जाएगी और तब तराई के जनपदों के खातें में 43 सीट होंगी l ऐसे में अगर वजीरेआजम और उनके कुछ तत्कथित सहयोगी वजीरों की दिली ख्वाहिश के अनुरूप बिजनौर व सहारनपुर को सूबे में शामिल किया जाता है तो फिर सियासी नक्कारखाने में कंदराओं के बाशिंदों की आवाज तूती की आवाज साबित होगी l ” गैरसैंण आंदोलन ” के जरिए पहाड़ को खोखला कर चुके सत्ताशाओ को पहाड़ की आवाम की असल ताकत का एहसास हो रहा है, जिसका प्रदर्शन करना पहाड़ के लिए बेहद जरुर भी था l गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग पहाड़ की बिखरी कृषि जोतों की तरह छोटे बेतरतीब आंदोलनों के जरिये पहले भी उठती रही है, पर एक बार फिर जिस तरह पहाड़ का युवा और पहाड़ की रीढ़ में कहीं जाने वाली महिलाएं स्थाई राजधानी के लिए लामबंद हो रहे हैं उससे निश्चित तौर पर एक लंबी घोर निराशा का अंत होता नजर आ रहा है l इतना जरूर है कि इस बार भी राज्य निर्माण आंदोलन की तरह आंदोलनकारियों की राह आसान नहीं होगी पर अगर यह आंदोलन अविरल जारी रहा तो वो दिन दूर नहीं जब पहाड़ अपनी पुरानी राजनैतिक शक्ति को पुनः हासिल करेगा l
– इन्द्रजीत सिंह असवाल,पौड़ी गढ़वाल

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