राजस्थान/बाड़मेर – जल्दी ही कागज पर अंगूठा टेक, कभी रहे न एक’ ये नारा लंबे समय से हमारे समाज को शिक्षा की अहमियत समझाता आ रहा है। इसके बावजूद पढ़ी-लिखी महिलाओं के सरपंची ठप्पा पर ज्यादातर ग्राम पंचायतें ससुर, जेठ, देवर और पति के आगे ग्राम पंचायतों में महिलाओं की आजादी आज भी अधूरी सी लगती है।
कई जगहों की सरकारी मीटिंग में देखने को मिलता है बाड़मेर जिले में भी पन्चायत राज् की पंचायतों में महिलाएं सरपंच जरूर बनी लेकिन असल में अधिकांश जगहों पर पंचायतों में उनके पति, ससुर या अन्य रिश्तेदार चलाते हुए हमेशा की तरह आपको भी नजर आएंगे। बैखौफ होकर वे पंचायत कार्यालय में उनकी सरकारी कुर्सीमा पर बैठेंगे और सरकारी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर भी करेंगे जबकि पंचायतीराज विभाग इसे आपराधिक कृत्य मानता है। ऐसा होने पर आईपीसी की धारा में मुकदमा भी दर्ज हो सकता है।
पंचायत चुनाव में आधी आबादी भले ही प्रदेश की पाच हजार से ज्यादा ग्राम पंचायतों में चुनाव जीतकर सरपंच बनने की कतार में थी लेकिन इससे ज्यादा खुशी भावी सरपंच पति, सुसर, जेठ और पुत्रो को है।
महिलाओं की आजादी अभी भी रहेगी अधूरी ….. इनके आगे ग्राम पंचायतों में महिलाओं की आजादी अभी भी अधूरी सी लगती है। गांवों की सत्ता में महिलाओं को भले ही सरकारों द्वारा पचास फीसदी आरक्षण का लाभ मिला हो लेकिन महिला सरपंच होने के बावजूद सत्ता की “चाभी” उनके हाथों में नहीं रहकर इन परिवार के “मोट्यारो ” के हाथ में रहने वाली है। ये बातें गांवों की चौपालों पर भावी सरपंच महिलाओ के भावी सरपंच पति, ससुर और पुत्र के साथ उनके जेठ पहले ही की तरह गावों में बोल रहे हैं।
राजनीति अनुभव रखने वाले महानुभावों का कहना है कि भावी महिला सरपंच पंचायत के कामकाज के बजाए चूल्हा-चौका के साथ-साथ खेती-बाड़ी संभालेंगी। उनकी जगह उनके पति रिश्तेदार प्रतिनिधि सरपंच बनकर पंचायती करेंगे। साथ ही ग्राम सचिव उनके पद का लाभ उठाने में कोई कसर नही छोड़ने वाले हैं। ग्राम पंचायतों में ग्राम सचिव भी ऐसी ही महिला प्रत्याशी को पर्दे के पीछे से सपोर्ट करने में लगे हुए हैं, जो साक्षर नहीं है और पहली बार राजनीति में कदम रख रही है, जिससे गांव की सत्ता चलाने के लिए ग्राम सचिव की पूरी दखल रहे।
वहीं भावी सरपंच बनने के बाद कम पढ़ी-लिखी महिलाओं का कहना है कि भले ही सरपंच का साफा उनके सिर पहनाया गया है। लेकिन गांव की सरकार चलाने में तो परिवार का पूरा दखल रहेगा। उधर पढ़ी लिखी महिलाओ से इस बात को लेकर बात की तो उनका कहना है कि पढ़े लिखे होने का गांव को फायदा मिलेगा। कुर्सी पर बैठने के साथ साथ गांव के विकास कार्यों में सभी फैसले वो खुद लेंगी, उनके परिवार में कोई दखल नहीं करेगा।
प्रधानमंत्री द्वारा पांच साल पहले राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस समारोह में ‘पंचपति’ राज की संस्कृति की ओर इशारा किया था। उनका मतलब स्पष्ट था कि पंचायती राज संस्थाओं, विशेषकर ग्राम पंचायत में निर्वाचित महिला सरपंचों का कार्यभार उनके पति या रिश्तेदार न संभालें। यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है कि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को इस बार 50 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है। महिलाओं को यह आरक्षण देने का उद्देश्य उनका राजनीतिक सशक्तीकरण करना था पर इसके बजाय उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्यों का सशक्तीकरण हो रहा है। जब सब काम पंचायतों के पति ही देखते हैं तो फिर क्या मतलब है महिलाओं को थौथा आरक्षण देने का?
राजस्थान में ग्यारह हजार से ज्यादा ग्राम पंचायतों का जिसमें पचास प्रतिशत पर महिला आरक्षण घोषित हुआ है। यह हाल पिछले ग्राम पंचायत चुनावों में भी था, जिस पर आज भी ग्राम पंचायत में सरपंचपति या प्रतिनिधि कहलाते पति ही हैं। दरअसल, पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद आरक्षित सीट पर पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकते. इसलिए वे अक्सर अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा कर देते हैं और जीतने के बाद अपना दबदबा कायम रखते हैं, वे अपनी पत्नी का सिर्फ मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
सरकारी बजट की आवक पर सरपंचपति या फिर रिश्तेदारों की गिद्ध दृष्टि रहतीं हैं।पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने कई सरकारी योजनाओं को लागू किया है, जिन पर ग्राम पंचायतों के सहयोग से अमल किया जाता है। इन योजनाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों से बड़े पैमाने पर निधियां मिलती हैं। सरपंच अपने विवेक के आधार पर विकास कार्य करवा सकता है। धन की इस आवक पर सरपंचपति की गिद्ध दृष्टि रहती है और वे ग्राम सचिव या अन्य अधिकारियों की मिलीभगत से घोटाले-गबन कर बड़ी राशि की बंदरबांट कर लेते हैं।
बहरहाल, सरपंचपति राज की संस्कृति की रोकथाम के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम महिलाओं के प्रति सोच को बदलना है। यह काम बालिका शिक्षा पर जोर देने और समाज सुधार आंदोलन के जरिए संभव है। इसके अलावा एक और उपयोगी सुझाव यह हो सकता है कि उन ग्राम पंचायतों में सचिव पद पर महिला की तैनाती की जाए। जहां जहां पर महिला सरपंच हैं. इससे महिला सरपंच अधिक सहज होकर काम कर सकेंगी. चुनावों में महिला सरपंचों की शैक्षणिक योग्यता खत्म करना सरपंचपति संस्कृति को बढ़ावा देने का सबसे बड़ा कारण माना जा रहा।
घरेलू कामकाज करने वाली महिला सरपंचों से पंचायतों के जटिल वित्तीय कामकाज में औसत कुशलता की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। जब तक निर्वाचित महिला सरपंच खुद स्वतंत्र तरीके से पंचायतों की जिम्मेदारी नहीं संभालतीं, तब तक महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण का सपना साकार नहीं हो सकता।
– राजस्थान से राजूचारण