बरेली। भारतीय संस्कृति की अमिट छाप जहां भारतीयता को गौरवान्वित करती है। वहीं समाज में पाश्चात्य संस्कृति अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही है। जिसका प्रभाव युवा पीड़ी पर पड़ रहा है। यूं तो हमारी बेटियां भारतीय संस्कृति को अपनाते हुये जीवन यापन करती हैं लेकिन कभी-कभी वह पाशचात्य संस्कृति की ओर आकर्षित होकर उसे अपनानें लगती है। जिससे उन्हें दी जानी वाली भारतीय संस्कृति की पहचान पर प्रश्र चिन्ह लगाती है। जिसका प्रमाण आज के युग में तेजी से बढ़ रहे पारिवारिक जीवन यापन के बदलते लाइफ स्टाइल पर भी पड़ रहा है और जिससे पारिवारिक माहौल भी प्रभावित होने लगा है। यह बात तो एकदम सही है कि बेटी को हमारे समाज में बहुमूल्य हीरे की तरह और देवी की तरह सम्मानजनक माना जाता है। मगर शायद आज इस परिभाषा को हम लोगों ने ही दूषित करके रख दिया है। जिसका मूल कारण हमारी परिवरिश है। हमने बेटी को बेटी की तरह नही बल्कि बेटों की तरह पालना शुरू कर दिया है और एक सोच मन में बसा ली है कि बेटियां कहीं से भी बेटों से कम नही होती है। हम में से अधिकतर ने बेटियों को उनके मूल संस्कारों और आदर्श गृहणी शिक्षा से उन्हें पूरी तरह से वंचित कर रखा है। आज के आधुनिक युग में बेटियों को शस्त्र, शास्त्र, पाकविधा रिश्तों की मान मर्यादा जैसे आदर्श गृहणी गुण सिखाने की बजाय उन्हें स्वछंद शो पीस बनाने की होड़ सी लगा रखी है। बहुत ही कम ऐसे परिवार मिलेंगे। जहां बेटियों को उनके मूल ज्ञान से परिचित कराया जा रहा हो और उनकी शिक्षा दीक्षा उनकी गरिमा के अनुरूप हो रही हो। इस आधुनिकता की दौड़ में हमने बेटियों को रोजगार परक बनाने पर बहुत अधिक जोर दिया है। जिसका नतीजा उनके अंदर आधे अधूरे नारीगुण ही विकसित हो पाते हैं जबकि जब हम उस बेटी को पूरे सम्मान से विवाह कर उसके पति के साथ विदा करते हैं तो वह हमारी आधी अधूरी बेटी अपनी बाकी की जिंदगी सिर्फ अपने नारी स्वरूप को विकसित करने में निकाल देती है और तमाम बेटियां इस तरह का प्रयास करने की बजाय स्वछंद स्वरूप को अपनाना ज्यादा बेहतर समझती हैं और उन्हें अपने पति और सास ससुर की सीख कष्टप्रद लगती है और सबसे पहले वह सभी पारिवारिक रिश्तों को खत्म कर एकल परिवार चलाने का दवाब बनाने लगतीं हैं और जिन माता पिता ने अपने पुत्र को बड़ी उम्मीद से पाला होता है। वह उन्हें उसी से दूर कर देती हैं और अक्सर यही हालात उनके मायके में बने हुए होते हैं क्योंकि वहां भी एक आधी अधूरी बेटी को एक पूर्ण नारी का जीवन जीने के लिये वैवाहिक संस्कारों के साथ घर की लक्ष्मी बनाकर लाया गया होता है मगर अफसोस अक्सर हालात और अधूरा ज्ञान उसे अपना घर बसाने की बजाय बिगाडने की परिस्थिति पैदा करा देते हैं और उनके माता पिता भी उसी कष्ट को भोग रहे होते है जो कष्ट जाने अनजाने मे वह बेटी अपनी ससुराल मे पैदा कर रही होती है और कभी कभी इस तरह के विवाद इतना विकराल रूप धारण कर लेता है कि वह उनके रिश्तों को ही निगल जाता है और इसके लिये आधुनिक संचार माध्यम भी अपनी पूरी भूमिका निभा रहे हैं इसका नतीजा वर्तमान में पारिवारिक अदालतों के बाहर लगी भारी भीड़ के रूप में कभी भी देखा जा सकता है और सिर्फ यही नही अपने इस अधूरेपन को पूरा करने की जद्दोजहद में न जाने कितनी ही बेटियां अपना जीवन तक खो देती हैं जोकि बेहद दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है और इसके लिये भी उनका अधूरा नारीत्व ही जिम्मेदार है क्योंकि बेटी के रूप में दिए गए आधे अधूरे संस्कार और ज्ञान किसी को भी पत्नी और घर की बहू के रूप में कभी स्वीकार नही होते हैं और वह अधूरी बेटियां कभी भी पूरी नारी नही बन पाती है। यह भी सच है कि हम सभी अपनी बेटियों को ऐसे अधूरे संस्कार और ज्ञान नही दे रहे है मगर एक कटु सत्य यह भी है कि अधिकतर लोग अपने घरों से एक आधी अधूरी बेटी को ही बिदा कर पा रहें है।
यशेन्द्र सिंह एडवोकेट बरेली
बरेली से कपिल यादव