निरशन के हाथीपांव की अकथ कहानी, अब खुद बदल रहे अपनी जिंदगानी

  • स्व उपचार पद्धति से खुद कम कर रहे फाइलेरिया
  • फाइलेरिया अटैक का खुद कर रहे उपचार

मुजफ्फरपुर/बिहार- 15 वर्ष की अवस्था में नरौली डीह, मुशहरी के निरशन साह को हुए फाइलेरिया ने मानसिक और शारीरिक विकार से भर रखा था। जैसे तैसे अपने जीवन के 61 वर्ष गुजरने के बाद निरशन को उस वक्त एक माकूल जिंदगी मिली, जब वह फाइलेरिया मरीजों के एक नेटवर्क सदस्यों के नजदीक आए। रोग तो नहीं गया पर अब खुद के स्वउपचार से उन्हें लगातार फाइलेरिया के अटैक, सूजन और भारी पैर से राहत मिल रही थी। अपने आराम मिलते मर्ज में निरशन के अंतर आत्मा ने एक आवाज लगाई कि जिस रोग ने उनके इस जीवन को नकारा बनाया उसके प्रति दूसरों को जागरूक किया जाए। जल्द ही निरशन अपने गांव नरौली डीह में एक जाना पहचाना नाम बन गए। लोगों को घर से बुलाकर लाना और एक जगह लोगों को जमा कर फाइलेरिया के प्रति लोगों को सचेत और जागरूक करना अब उनकी आदत बन चुकी है। पिछले महीने हुए आइडीए अभियान के दौरान भी निरशन ने दवा खिलाने वाले टीम को काफी सहायता की। उनके साथ घर -घर जाना और लोगों को दवा खिलाने में उनके योगदान को स्वास्थ्य विभाग भी सराहना करता है।

साल में दो बार आता था अटैक:

निरशन कहते हैं मुझे साल में दो बार फाइलेरिया का अटैक आता था। एक होली के आस-पास और एक छठ के करीब। हर बार गरीब को हजार रुपए की मार पड़ती। करीब दस महीने फाइलेरिया के एक नेटवर्क सदस्य के संपर्क में आया। कुछ ही समय में मुझे एमएमडीपी रोग प्रबंधन और सरकारी अस्पताल के फायदों का पता लग गया। पिछले वर्ष छठ में भी फाइलेरिया का अटैक आया था। बेटे ने अस्पताल जाने का सारा प्रबंध कर दिया था। मैंने मना कर दिया क्योंकि मुझे अब मालूम था कि फाइलेरिया के अटैक को सिर्फ एमएमडीपी रोग प्रबंधन के तरीकों से ही कम किया जा सकता है, दवाओं से नहीं। यह बात मैंने फाइलेरिया पेशेंट सपोर्ट के नेटवर्क सदस्यों के साथ सीखी। अब तो मेरा सूजन भी कम होने लगा है। पिछले दस महीनों का अंतर है कि अब मैं साइकिल भी चलाता हूं। एक फाइलेरिया मरीज को और क्या तरक्की चाहिए।

न मजदूर बन सके न किसान:

अपने द्वार में बैठे निरशन बड़ी गंभीरता से कहते हैं, पिताजी की ईंट भठ्ठी थी, अच्छी खासी जायदाद थी। फाइलेरिया के कारण न ही कभी मजदूर बन सका न ही किसान। जब फाइलेरिया के अटैक की शुरुआत हुई तो दस साल ऐसे ही झोला छाप के पास गुजार दी। इसी बीच शादी और बच्चे भी हो गए। कोई काम तो था नहीं। अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर ही खाने लगा। जब तक बच्चे कुछ लायक होते तब तक मेरे पास घर और नाम मात्र जमीनों के अलावा कुछ नहीं बचा था।

– बिहार से नसीम रब्बानी

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