डूबता रेगिस्तान का जहाज,ऊंटों की विलुप्ति से मडरा रहे संकट के बादल – रविन्द्र सिंह भाटी

बाड़मेर/राजस्थान- ऊटों की तेज गति से कम होती संख्या से मालूम होता है कि वे रेगिस्तान में अब कुछ वर्षों के मेहमान है।ऊंटों के संरक्षण के लिए तत्काल कार्रवाई नहीं गई तो रेगिस्तान का परिस्थितिक तंत्र गड़बड़ाएगा ही,साथ ही ऊंट से भविष्य की चुनौतियों का मुकाबला करने की संभावनाएं भी खत्म हो जाएगी।वर्तमान हालातों में ऊंट पालकों ने दिल पर पत्थर रखकर ऊंटों को भगवान भरोसे आवारा छोड़ना शुरू कर दिया है जो कभी ऊंटों के भरोसे जीवन जी रहे थे।

दुनिया में करीब 47 देशों में 35 मिलियन संख्या ऊंटों की है। अफगानिस्तान,चीन,भारत,इजरायल ,मंगोलिया, ईराक ,मोरक्को,तुर्की देशों में ऊंटों की संख्या गिरती जा रही है।दुनिया में 3.3मिलियन ऊंट मांस के लिए उपयोग में लाए जाते हैं।

वर्ष 2012में भारत में ऊंटों की संख्या 4 लाख थी।वर्ष 2019 ने इनकी संख्या 2.50 लाख रहगई।राजस्थान में वर्ष 2012 में ऊंटों की संख्या 3.26लाख थी और वर्ष 2019 में इसकी संख्या 2.13 लाख रह गई है। गुजरात,हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ऊंटों की संख्या दिनोदिन गिर रही है ।

‌भारत में ऊंट की संख्या सबसे ज्यादा राजस्थान में है,यहां यह रेगिस्तान का जहाज कहलाता है।राजस्थान में ऊंट को वर्ष 2014 में राज्य पशु का दर्जा दिया गया। उष्ट्र विकास योजना शुरू की गई लेकिन अब प्रचलन में नहीं है।

वर्ष 2015 में राजस्थान ऊंट बिल (दी राजस्थान कैमल प्रोहिबिशन ऑफ स्लॉटर एंड रेगुलेशन आफ टेंपररी माइग्रेशन ऑर एक्सपोर्ट बिल) पारित किया गया ताकि ऊंटों की हत्या पर प्रतिबंध हो जाए । लेकिन ऊंट पालकों के लिए यह बिल उनकी आजीविका और ऊंटों के लिए मौत का फरमान बन गई है।ऊंट बिकने के लिए पशु मेलों में आना बंद हो गए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की प्रमुख धुरी खत्म हो गई है।मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और खासतौर से मालवा के इलाके में संकट के समय चराई के लिए आने वाले ऊंटों की संख्या भी कम हो गई है।

लेकिन केवल यह बिल ही ऊंटों का संकटकारक नहीं है।थार के जनजीवन के साथ जुड़े ओरण,गोचर,बीड जैसी व्यवस्थाओं की पूरी तरह से की जा रही उपेक्षाओं के चलते थार का न केवल पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ा है वरन ऊंटों सहित समस्त पशुधन, वन्यजीव के लिए भी संकट खड़ा हुआ है।भारत सरकार द्वारा लाए गए जैवविधता संरक्षण कानून,कृषि,वन नीति में जैव विविधता के संरक्षण और पशुपालक आसानी से पशु चराई करा सके,सरकारों के लिए निर्देश जारी किए गए हैं। लेकिन अभी तक सामलात जमीन के संरक्षण,विकास के लिए सरकार का ध्यान नही गया है।स्टेट रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर जोधपुर के अनुसार रेगिस्तान के केवल दस जिलों में ही बीस हजार वर्ग किलीमीटर जमीन सामलात की है।इसके संरक्षण और विकास से ही थार का जीवन और ऊंट भी सुरक्षित हो पाएगा।ओरण गोचर में 38 प्रकार की वनस्पतियां ऊंट को प्रिय रही है।इसमें खास तौर से कांटी,सोनेलो, बेकर, सनतर,मूरत, केर,बोरडी,मुरली, कंकेडी,फॉग, खेजड़ी, मोथ सबसे ज्यादा पसंदीदा।सब विलुप्त हो रही है।

आरबी की गफन के हनीफ के अनुसार एक ऊंट को छ माह पालने के लिए पचास हजार रुपए का कुतर,ग्वार्टी,पाला चाहिए। ऊंट पालक की आय खत्म होने,चारागाह खत्म होने से मारवाड़ के लोग उसे कैसे पाले?

पुष्करणा ब्राह्मणों की उष्ट्रादेवी और ओढ़ समाज में जस्मा देवी की सवारी ऊंट रही है। समाज में सवारी का अपना शिष्टाचार और कायदा था।ऊंट सवार के आगे बहु,बेटी, मां बैठ सकती थी और पत्नी उसके पीछे।यात्रा में ऊंट की मुहार महिला के हाथ में होती, जो सम्मान का प्रतीक था। ।ऊंट ऊंटनियों के दर्जनों नाम है। चाल के नाम भी ऊंट।ऊंटों पर लोक गीत, भणत,अनेक कहावते,मुहावरे भीी प्रचलित हैं। लेकिन ऊंट पर अब कोई सवार होना नही चाहता।कभी इन्ही ऊंटों के पुरखों में चिकल, मुधरा ऊंटों पर सवारी कर मूमल महिंद्रा,ढोला मरवण जैसी अनेक प्रेम गाथाये अमर हुई।खेती,पानी सींचना,व्यापार,यात्रा,युद्ध,सुरक्षा,खेल,मेले ऊंट ही चहुओर था। बैठने,लेटने के लिए इसके जट की बनी मजबूत और आकर्षक जिरोही, गंधा एवं भाखल,तंग, रस्सी,मोहरा एवं इसके चमड़े से घी रखने के लिए कुड़ी,पानी के लिए पखाल,जूतियां,बिलोने की वादी आदि बनती थी।इनका अब वक्त बदलने के साथ ही हाट बाजार नही और न ही शिल्प और बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए कोई योजना बनी।ऊंट की हड्डियों का कलात्मक सामग्री का संसार ही सिमट गया।बीकानेर की उस्ता कला संघर्ष के दौर में है।शौकत अली जैसे कलाकार विपरीत दौर में भी इसको संजोए हुए है। सुरा गांव में बनने वाली पीतल पर नक्काशी की ऊंटों के लिए पलाण बीते दिनों की बाते हो गई है।

युनाइटेड अरब अमीरात ने ऊंटनी के दूध की डेयरी स्थापित करके दुनिया के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया है। यहां ऊंटों की संख्या में बढ़ोतरी है।दूध का प्रसंस्करण,परीक्षण,वितरण वैज्ञानिक तौर तरीके से होता है। ऊंटनी के दूध से आजकल मधुमेह,क्षय रोग,ऑटिज्म एवं मंद बुद्धि के उपचार,दस्त, गठिया, हेपेटाईटीज में बेहद उपयोगी होता है। गावों में चाय,खीर,मिठाइयां भी बनती है।ऊंट पालकों के लिए ऊंटनी का दूध ही आहार था। ऊंटनी के दूध में गाय के दूध की अपेक्षा ज्यादा लौह तत्व एवं विटामिन सी होता है। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ने ऊंट के दूध को खाद्य आहार के रूप में मान्यता दे दी है।ऊंट की एंटीबॉडी से विषरोधी दवा का कार्य प्रगति पर है।1984 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय ऊष्ट्र अनुसंधान केंद्र की स्थापना ऊंटों के जनन, प्रजनन,पोषण,शरीर कार्मिकी,आनुवांशिकी,स्वास्थ्य की वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करने के लिए बीकानेर में की।संस्थान ऊंट को पूर्णतया दुधारु पशु के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत है।ऊंट संरक्षण के लिए लोकहित पशुपालक संस्था के हनवंत सिंह,कैमल लेडी नाम से ख्यात इल्से कोहलेर रोल्फसन भी कार्यरत है।

गर्म होती धरती,जलवायु परिवर्तन,पीने के पानी की समस्या, जीवन शैली में आए बदलाव के कारण दुनिया में विभिन्न रोगों से लड़ने की ताकत देने वाला ऊंट है।भविष्य की चुनौतियों का समाधान है।सरकार उपलब्ध ऊंटों के अनुसार क्लस्टर बनाकर गोशालाओ की तरह ऊंट शाला खोलकर पहले तो उनको बचाने का काम करे।साथ ही ऊंटों के स्वास्थ्य, कैमल डेयरी,ऊंट से जुड़े शिल्प,ऊंट पालकों के प्रोत्साहन का कार्य करे।ओरण गोचर सहित सामलात जमीन के संरक्षण और विकास का तत्काल बीड़ा उठाए।ऊंट बिल संशोधन करने या रद्द करने की कार्रवाई करे।ऊंट संरक्षण नीति तय करे ।यदि समय पर निर्णय नही हुए तो रेगिस्तान का जहाज ऊंट का विलुप्त होना, डूबना तय है। सदियों से ऊंटों के पुरखों ने पूरे रेगिस्तान को पाला आज उसको पालने वाला मरूधरा के वो मिनख ही नहीं रहे सभी गावों से शहरों और छोटे बड़े कस्बों में खेतों की जगह प्लाट और कालोनियों में अन्धाधुन्ध बसने लगे।

– राजस्थान से राजूचारण

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