बरेली। कोरोना की दूसरी लहर मे लगाए गए लॉकडाउन ने गरीब परिवारों को आर्थिक बोझ तले दबाकर रख दिया है। सब कुछ बर्बाद करने के बाद संक्रमण की रफ्तार कम होने के बाद अभी भी मलिन वस्तियों में रहने वाले दैनिक कामगारों के परिवारों में भुखमरी जैसी नौबत आ गई है। परिवार के छोटे छोटे बच्चे, जिनकी उम्र हाथ में किताब और कंधे पर बस्ते की है वह परिवार के सदस्यों का पेट भरने के लिए डलावघरों में पडने वाले कचरे मे रोजी रोटी की तलाश करते देखे जा रहे है। सुबह से शाम तक कचरा इकट्ठा करके बेचने पर 70-80 रूपए ही मिल पाते हैं। बच्चों की भारी मेहनत के बाद भी परिवार को भुखमरी के उभरना मुश्किल हो रहा है। बही दूसरी ओर सरकार गरीबो को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने को ले खाद्य सुरक्षा अधिनियम को अमलीजामा पहनाया। इतना ही नहीं गरीबों के कल्याणार्थ व सहायतार्थ कई योजनाएं चलायी। बावजूद गरीब तबके की गरीबी अब तक दूर नहीं हो पायी। इनके बच्चे आज भी कूड़े के ढेर पर अपना भविष्य तलाशते हैं। समाज में एक ऐसा भीे वर्ग है जिनका जीवन ही कचरे के ढेर पर टिका है। यानि कूड़े की ढेर पर ही वह अपनी रोटी की जुगाड़ में लगा होता है। कूड़े की ढेर पर जिदंगी से जूझते और बीमारियों की खुली चुनौती कबूलते कुछ चुनने वालों की जमात आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। सूरज की पहली किरण के साथ पीठ पर प्लास्टिक का थैला या बोरा लिये निकल पड़ने वाले इन बच्चों के स्वास्थ्य या सुरक्षा की गारंटी कोई लेने को तैयार नहीं। कूड़ा-कचरा व गंदगी के बीच रहने वाले को आज मानवीय संवदेना से भी परे समझा जाता है। गरीब परिवार के बच्चों के लिए तमाम योजनाएं संचालित की जा रही है लेकिन योजना का लाभ ऐसे परिवारों को नहीं मिल पा रहा है। जिनको वास्तव में मिलना चाहिए। जागरूक लोग ही योजनाओं का लाभ लेकर खुद का फायदा करते देखे जा रहे है। सरकार के तमाम प्रयास के बाद भी श्रम विभाग से लेकर बाल कल्याण विभाग आज तक सर्वे करकेये नही जान पाया है कि जिले में कितने बच्चे श्रम कर रहे है। चुने सामान को ले ये बच्चे कबाड़ी वालों के पास जाते हैं और कबाड़ी वाले कुछ पैसे देकर कुछ सामान खरीद लेते हैं। यह पैसा न्यूनतम मजदूरी के समान भी नहीं होता है। बावजूद जोखिम लेकर कूड़े की ढेर से दो जून की रोटी जुगाड़ करने में मशगूल रहते हैं ये।।
बरेली से कपिल यादव