उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल-उत्तराखंड गैरसैण कल प्रकाश पंत और धन सिंह रावत आन्दोलनकारीओं को दिक्षित आयोग की रिपोर्ट का हवाला दे रहे थे।
शर्म आनी चाहिए इस सरकार को जो जनता विरोधी है। सभी जानते हैं दिक्षित आयोग ने सरकार की सहुलियत के लिए रिपोर्ट तैयार की थी।
मै आपको दिक्षित आयोग की रिपोर्ट की जानकारी दे रहा हूं इसे समझें कैसे सरकार अपना हित साधने में लगी है।
*शंकर सिंह भाटिया की कलम से
उत्तराखंड विधान सभा के बजट सत्र 2009 में दीक्षित आयोग की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी गई थी। हालांकि आयोग ने अगस्त 2008 में ही सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। चार चरणों की इस रिपोर्ट के सिर्फ तीसरे चरण को ही सदन में रखा गया। सरकार ने ऐसा क्यों किया, इसे लेकर विधायक तक भ्रम में थे। इसकी जानकारी चैथे चरण की रिपोर्ट में दर्ज है, जो सदन में पेश नहीं की गई। जिसमें आयोग के अध्यक्ष ने सिपफारिश की है कि तीसरे चरण को आयोग की संस्तुति माना जाए। भ्रामक आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित इस रिपोर्ट में जिस पक्षपातपूर्ण तरीके से स्थायी राजधानी स्थल के लिए देहरादून का पक्ष लिया गया है, वह आयोग की वस्तुनिष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
दीक्षित आयोग की रिपोर्ट का बारीकी से अध्ययन करने पर लगता है कि पहले चरण से ही यह स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि राज्य की राजधानी के लिए देहरादून जैसा शहर सबसे मुपफीद है। तीसरी रिपोर्ट जिसे आयोग की सिपफारिश बताया गया है, की प्रस्तावना में कहा गया है-‘प्रथम चरण की रिपोर्ट से जो प्रमाण उभरकर आया वह था कि राष्ट्रीय एवं राज्यों ;प्रांतोंद्ध की राजधानी का हमेशा उनके प्रदेशों के भौगोलिक केंद्रों पर होना संभव नहीं है।’ यह पृष्ठभूमि देहरादून के कमजोर पक्ष को मजबूती देने के लिए तैयार की जा रही है। पहले चरण में विभिन्न राज्यों की राजधानियों का विवरण दिया गया है। राजधानी के लिए जल स्रोत, भूमि की उपलब्धता, भूमि का मूल्य, टोपोग्रापफी और जलवायु, विद्युत आपूर्ति, प्राकृतिक ड्रेनेज सिस्टम, निर्माण सामग्री की उपलब्धता, सामुदायिक विकास, भविष्य में विस्तार की संभावनाएं और निवेश की क्षमता को मुख्य कारक बताया गया है।
दूसरे चरण की रिपोर्ट में राजधानी के मानकों को तय किया गया है। आयोग के मानकों के अनुसार यदि टोपोग्रापफी और जलवायु पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो सिपर्फ तराई और मैदानी क्षेत्रा ही राजधानी के लिए उपयुक्त हैं। पहाड़ की टोपोग्रापफी और जलवायु राजधानी के योग्य नहीं है। जल स्रोतों के मामले में भी पर्वतीय क्षेत्रा पीछे हैं। पहाड़ में राजधानी की जरूरत के मुताबिक भूमि भी उपलब्ध नहीं है। शहरी विकास की तो वहंा कोई संभावनाएं ही नहीं बनती हैं। निवेश करने की संभावना भी वहां नहीं के बराबर हैं। आयोग के मानकों के अनुसार पहाड़ में राजधानी बनाए जाने से पारिस्थितिकी के लिए खतरा पैदा हो जाएगा और यह प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी खतरनाक है। दूसरे चरण के अंत में रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंचती है कि देहरादून खासकर सौंग नदी के किनारे वाला क्षेत्रा निर्विवादित रूप से राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त स्थल है। दूसरे स्थल के रूप में काशीपुर को भी रिपोर्ट में हरी झंडी दिखाई गई है। बाकी अन्य स्थलों को रिजेक्ट कर दिया गया है।
तीसरे चरण की रिपोर्ट आयोग की नजरों में सबसे महत्वपूर्ण है। आयोग के अध्यक्ष वीरेंद्र दीक्षित ने तीसरे चरण की रिपोर्ट को ही आयोग की संस्तुति बताया है। तीसरे चरण की इस रिपोर्ट में स्थायी राजधानी के लिए प्रस्तावित सभी स्थलों का विवरण दिया गया है। देहरादून में नत्थूवाला-बालावाला को आयोग ने अधिमानी स्थल बताया है। सौंग के किनारे बसे इस स्थल को सबसे उपयुक्त पाया है। देहरादून के दूसरे स्थल चाय बागान को भी उपयुक्त पाया है, लेकिन उसे दूसरे स्थान पर रखा है। स्थायी राजधानी के लिए आयोग की नजर में काशीपुर दूसरा ऐसा स्थल है, जिसे उपयुक्तता की श्रेणी में रखा जा सकता है। देहरादून को राजधानी के लिए न चुने जाने की स्थिति में काशीपुर पर विचार किया जा सकता है। अन्य स्थलों गैरसैंण, आईडीपीएल )षिकेश, रामनगर और कालागढ़ को आयोग ने दूसरे चरण की रिपोर्ट में खारिज कर दिया है।
इन तीन चरणों की रिपोर्ट को देखने और पढ़ने के बाद यह कहीं से भी दीक्षित आयोग की रिपोर्ट नहीं लगती। तीनों चरणों की रिपोर्ट के मुख पृष्ठ पर ‘उत्तराखंड की स्थायी राजधानी स्थापित करने के लिए स्थल चयन हेतु संभाव्यता ;पिफजिबलिटीद्ध अध्ययन योजना और वास्तुकला विद्यालय, नई दिल्ली’ लिखा गया लिखा गया है। इन रिपोर्टों में कहीं भी दीक्षित आयोग का जिक्र नहीं किया गया है। इन रिपोर्टों की वैधता तब पता चलती है, जब चौथे चरण की रिपोर्ट में आयोग के अध्यक्ष वीरेंद्र दीक्षित ने तीसरे चरण की रिपोर्ट को आयोग की संस्तुति मानने की बात कही है।
सिर्फ एक संस्तुति
चौथे चरण की रिपोर्ट के आवरण में ‘उत्तराखंड राज्य के स्थायी राजधानी स्थल की संस्तुति’ लिखा गया है। 195 पेज की इस रिपोर्ट मेें सिपर्फ एक संस्तुति की गई है, जिसमें कहा गया है कि तीसरे चरण की रिपोर्ट को आयोग की संस्तुति माना जाए। इसके अतिरिक्त और कोई संस्तुति रिपोर्ट में नहीं की गई है। इस रिपोर्ट में वीरेंद्र दीक्षित ने सबसे पहले कौशिक समिति को खारिज किया है। दीक्षित आयोग की महत्ता पर प्रकाश डाला है और स्थायी राजधानी के लिए लोगों से मांगे गए सुझावों का विवरण विस्तार से दिया है।
दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में आंकड़ों का एक ऐसा संजाल बनाने की कोशिश की गई है, जिससे देहरादून निर्विवादित रूप से राज्य की स्थायी राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त स्थल उभरकर आए और गैरसैंण खुद ही रिजेक्ट हो जाए। आठ साल की मेहनत के बाद आंकड़ों के खिलाड़ी आंकड़ों से खेलते-खेलते खुद आंकड़ों के संजाल में इस कदर उलझ गए कि उनके पूर्वाग्रह खुलकर सामने आ गए। दीक्षित आयोग की रिपोर्ट खुद कई स्थानों पर आंकड़ों के भ्रमजाल में पफंसी हुई दिखाई देती है। रिपोर्ट के तीसरे चरण को ही लें, जिसे आयोग की संस्तुति मान लेने को कहा गया है-‘जौलीग्रांट हवाई अड्डा इस स्थल से लगभग पांच किमी दूर है।’ ;तृतीय चरण के रिपोर्ट के पेज नंबर 13द्ध वास्तव में यह दूरी 17 किमी से कम नहीं है।
गैरसैंण से खिलवाड़
दूसरी तरपफ रिपोर्ट में गैरसैंण से संबंधित आंकड़ों के साथ खिलवाड़ किया गया है। जानबूझकर झूठे आंकड़े देकर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि गैरसैंण में राजधानी बनने की संभावना है ही नहीं। आयोग के तीसरे चरण की रिपोर्ट में गैरसैंण में जलापूर्ति पर लिखा गया है-‘रामगंगा का जल प्रवाह भी पर्याप्त नहीं है, इसलिए केवल कर्णप्रयाग से अलकनंदा ही जल का पर्याप्त स्रोत है। गैरसैंण स्थल और नदी के स्तर में लगभग 1600 मीटर का अंतर है, जिससे यह अत्यंत महंगा प्रस्ताव है।’ ;पेज 32द्ध तीसरे चरण की रिपोर्ट में गैरसैंण के बारे में आगे कहा गया है-‘इस स्थल की भूमि सामान्यतः असमतल और गहरे ढलान वाली है। और समुद्र तल से 1250 से 1550 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।’ ;पेज 34द्ध इस रिपोर्ट के अनुसार यदि 1550 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गैरसैंण को पानी पहुंचाने के लिए 1600 मीटर पानी लिफ्ट करना पड़ेगा तो कर्णप्रयाग समुद्र तल से 50 मीटर नीचे होगा। क्या कर्णप्रयाग समुद्र तल से 50 मीटर नीचे स्थित है? आयोग ने यह बात आंकड़ों और तथ्यों की सच्चाई सामने रखने के उद्देश्य से नहीं की है, बल्कि मकसद तो गैरसैंण की खामी सामने रखने का है। ताकि गैरसैंण के अंक कम हो।
गैरसैंण में जलापूर्ति के लिए प्रस्तावित योजना की बात पिंडर नदी से की जाती है। यह भी महंगी और कम सपफल रहने वाली लिफ्रट योजना से नहीं, बल्कि सुरंग बनाकर ग्रेविटी योजना से जलापूर्ति की बात की जाती है। रिपोर्ट तैयार करने वाले योजना और वास्तुकला विद्यालय नई दिल्ली के अध्ययनकर्ताओं ने यदि गैरसैंण, कर्णप्रयाग, अलकनंदा और पिंडर को स्थल पर जाकर देखा होता, तो वे ऐसी बचकानी बात कभी नहीं करते। हमेशा गैरसैंण के लिए पिंडर नदी से पानी ले जाने की बात की जाती है। इस सुरंग आधारित ग्रेविटी योजना से पहले राजधानी की जरूरत से अधिक बिजली का उत्पादन होगा, तब यह पानी प्रस्तावित राजधानी में पीने के लिए आपूर्ति किया जाएगा। यदि इस प्रस्तावित सच्चाई को मान लिया जाता तो गैरसैंण के अंक बढ़ सकते थे। इसलिए इस सच्चाई को दरकिनार करने के लिए अलकनंदा से पानी चढ़ाने की तर्कहीन बात दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में कही गई है?
रिपोर्ट तैयार करने वालों को देहरादून से जौलीगं्राट का प्रस्तावित मार्ग दिखाई देता है, लेकिन गैरसैंण की यह प्रस्तावित योजना और पिंडर नदी तक नहीं दिखाई देती? क्योंकि यह उनके पूर्वाग्रह हैं। उन्हें गैरसैंण के हर उस पक्ष को नकार कर नकारात्मक रूप में पेश करना है, जो कहीं से भी गैरसैंण के अंक बढ़ा सकता है। इसलिए उन्हें पिंडर नदी नहीं दिखाई देती। आयोग के लिए चुभने वाला सवाल यह भी उठता है कि क्या कभी आयोग के अध्ययनकर्ता गैरसैंण गए थे? यदि गए होते और आयोग के अध्ययनकर्ता होने के नाते राजधानी के लिए प्रस्तावित स्थल का तटस्थ होकर बारीकी से परीक्षण किया होता तो अपनी रिपोर्ट में चैखुटिया को भिकियासैंण तहसील के अंतर्गत और चमोली जिले में नहीं दर्शाते। तृतीय चरण की रिपोर्ट के पृष्ठ 34 में लिखा है-‘यह स्थल विकासखंड गैरसैंण तथा चैखुटिया के अंतर्गत आता है। जो चमोली जिले में गैरसैंण और भिकियासैंण तहसीलों के अधीन हैं।’ वास्तविकता यह है कि चैखुटिया और भिकियासैंण अल्मोड़ा जिले की तहसीलें हैं, गैरसैंण चमोली जिले की तहसील है।
आठ साल की मेहनत के बाद कोई आयोग आंकड़ों तथा स्थलों के साथ इस कदर खिलवाड़ कर सकता है? इस खिलवाड़ के पीछे आयोग के पूर्वाग्रह छिपे हुए दिखाई देते हैं। यह दर्शाता है कि आयोग की पहली प्राथमिकता गैरसैंण को रिजेक्ट करने के लिए आधार तैयार करना है। क्योंकि देहरादून से एक मात्रा गैरसैंण का ही मुकाबला है। यह पर्वतीय राज्य की राजधानी को मैदान में स्थापित करने वालों के मंसूबों को पूरा करने का प्रयास है। देहरादून के पक्ष को मजबूत करने के लिए आयोग ने तथ्यों के साथ खेल किया है। यह न तो आयोग की लापरवाह कार्यप्रणाली है और न अल्पज्ञान है, बल्कि यह सोच समझकर किया गया कृत्य है। जिसमें दीक्षित आयोग बुरी तरह उलझ गया है। दीक्षित आयोग की वस्तुनिष्ठा और विश्वसनीयता पर यह बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा देता है। यही नहीं आयोग ने दो नए सिद्धांत प्रतिपादित कर गैरसैंण पर देहरादून को बढ़त देने के आधार तैयार किए हैं। इसमें एक है जनसंख्या की केंद्रीयता का सिद्धांत और दूसरा उत्तराखंड के जनमत पर एक शोध छात्रा के जनमत को अधिक महत्व देना। आयोग ने इन सिद्घांतों को स्थापित करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी है, इसके बारे में आगे विचार करेंगे।
आयोग का यह तर्क भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि -‘गैरसैंण राजधानी स्थापित किए जाने पर वाहन प्रदूषण तथा प्लास्टिक कचरे का खतरा हो सकता है, जिससे अन्यथा शांतिपूर्ण एवं प्राकृतिक वातावरण खराब हो सकता है और परिस्थितिकीय प्रणाली में हस्तक्षेप हो सकता है।’ राजधानी बनने पर कौन सा ऐसा स्थल है, जहां वाहन, प्लास्टिक प्रदूषण और पारिस्थितिकीय प्रणाली में हस्तक्षेप नहीं होगा? क्या आयोग बता सकता है?
कौशिक समिति को किया खारिज
दीक्षित आयोग की चैथे चरण की 195 पेज की रिपोर्ट के चैथे चेप्टर में ‘कंसिडरेशन आपफ कौशिक कमेटी रिपोर्ट’ का उल्लेख है। जिसमें आयोग के अध्यक्ष वीरेंद्र दीक्षित ने अपने गैरसैंण और चैखुटिया भ्रमण के दौरान वहां की जनता तथा नेताओं से मुलाकातों का हवाला दिया है। उनका कहना है कि जब वे इन स्थलों पर जनता से मिले तो उन पर गैरसैंण समर्थकों का भारी दबाव था कि गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी घोषित किया जाए। इन लोगों का कहना था कि पहले ही कौशिक कमेटी ने गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी घोषित कर दिया था। अब आयोग के पास कुछ करने के लिए नहीं है। आयोग को चाहिए कि वह कौशिक कमेटी की रिपोर्ट को आधार बनाकर गैरसैंण को राजधानी घोषित कर दे। श्री दीक्षित सवाल उठाते हैं कि यदि सरकार राज्य की स्थायी राजधानी की स्थापना से पहले स्थल चयन के लिए तकनीकी पहलुओं का परीक्षण कराती है, ढांचागत परीक्षण, पर्यावरण की अनुकूलता, पानी और भूमि की उपलब्धता जैसे तकनीकी पक्षों की परख कराती है तो इसमें किसी को ऐतराज क्यों होना चाहिए? आयोग का मानना है कि राजधानी स्थल चयन में इन पक्षों का विशेष ध्यान रखा ही जाना चाहिए। चैथे चरण की प्रस्तावना में दीक्षित कहते हैं कि एक उदाहरण मोहम्मद बिन तुगलक का है, जिसने बिना सोचे समझे दौलताबाद को अपनी राजधानी बना लिया और पिफर वापस दिल्ली आना पड़ा। उन्होंने संकेतों में गैरसैंण को दौलताबाद और देहरादून को दिल्ली कह दिया है।
कौशिक समिति की रिपोर्ट के बारे में वीरेंद्र दीक्षित का कहना है कि कौशिक समिति ने जनता से कुछ सवाल पूछे थे। जिसमें एक सवाल उत्तराखंड की राजधानी को लेकर भी था। इसी आधार पर कौशिक कमेटी ने एक तरपफ उत्तराखंड राज्य बनाने की सिपफारिश की, दूसरी तरपफ गैरसैंण को राजधानी बनाने का सुझाव दिया। केंद्र सरकार ने कौशिक कमेटी की रिपोर्ट के एक हिस्से को स्वीकार कर लिया। केंद्र सरकार ने राज्य का गठन तो कर दिया, लेकिन राजधानी के सवाल को नहीं माना। यह सवाल राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया। केंद्र सरकार ने उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी के लिए देहरादून को चुना। अब राज्य सरकार को स्थायी राजधानी का चयन करना है।
श्री दीक्षित को गैरसैंण में दो बार किए गए उनके घेराव की पीड़ा भी है। वह कहते हैं कि गैरसैंण समर्थक खुले दिमाग से सोचें। हालांकि स्थायी राजधानी चयन की इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेने वाले वीरेंद्र दीक्षित ने खुद इस मामले में खुले दिमाग से सोचने की जरूरत नहीं समझी। यदि उन्होंने खुले दिमाग से सोचा होता तो उत्तराखंड के सबसे विकसित शहर देहरादून के साथ राज्य के सबसे पिछड़े क्षेत्रा गैरसैंण में मौजूद सुविधाओं की तुलना नहीं करते। कौन नहीं जानता कि गैरसैंण में हवाई, रेल यातायात उपलब्ध नहीं है। वहां जलापूर्ति के लिए छोटी एक और बहुल ग्रामीण योजनाएं हैं, आवासीय सुविधाएं नहीं हैं। ऐसी ही सुविधाएं पहाड़ों तक ले जाने के लिए एक आंदोलन लड़ा गया है और पहाड़ में राजधानी का सवाल उसी से जुड़ा हुआ है। दीक्षित आयोग ने इस वाहियात तुलना में आठ साल का समय और राज्य की जनता की गाड़ी कमाई पानी की तरह बहाई है।
एक तरपफ श्री दीक्षित कहते हैं कि स्थायी राजधानी के सवाल को जनमत और तकनीकी पहलुओं का परीक्षण करने के बाद ही हल किया जाएगा। दूसरी तरपफ उत्तराखंड के जनमत का मजाक उड़ाते हुए एक शोध छात्रा अर्जिता बंसल के बिना सिर पैर के जनमत को बीच में ले आते हैं। यही नहीं उत्तराखंड के जनमत पर अर्जिता बंसल के जनमत को तरजीह भी देते हैं। वह यह भी कहते हैं कि जब गैरसैंण के लोगों से पूछा गया कि क्या वे राजधानी के लिए बाजार भाव से अपनी जमीन देने को राजी हैं, तो उनमें से कोई भी तैयार नहीं हुआ। बल्कि विदेशी पशु पालन केंद्र भराड़ीसैंण और नागचूलाखाल में राजधानी बनाने की बात कहने लगे। क्या वीरेंद्र दीक्षित ने नत्थूवाला-बालावाला जिसे अधिमानी स्थल घोषित किया है, वहां के लोगों से भी उनकी जमीन के बारे में पूछा? क्या इस क्षेत्रा के लोग स्थायी राजधानी के लिए अपनी जमीन खुशी-खुशी देने को तैयार हैं? उनकी सहमति के बाद ही दीक्षित आयोग ने नत्थूवाला-बालावाला को अधिमानी स्थल घोषित किया? यदि ऐसा है तो जमीन को लेकर वहां अभी से बवाल क्यों हो रहा है?
कौशिक कमेटी की रिपोर्ट को खारिज करते हुए श्री दीक्षित कहते हैं कि यह सिपर्फ जनमत के आधार पर दी गई रिपोर्ट है। आज के समय में राजधानी के लिए तकनीकी पहलुओं को नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए हर तरह के तकनीकी परीक्षण जरूरी हैं। ताकि कोई कमी न रह जाए। उन्होंने गैरसैंण समर्थकों से आग्रह किया है कि राजधानी भावनाओं और क्षेत्रावाद से तय नहीं की जा सकती, बल्कि शहरी विकास के सिद्घांतों के आधार पर तकनीकी पहलुओं की पड़ताल कर निर्णय लेना बेहतर होगा।
उत्तराखंड के जनमत पर अर्जिता बंसल भारी
दीक्षित आयोग ने जब काम करना शुरू किया तो सबसे पहले अखबारों में विज्ञापन देकर उत्तराखंड की जनता से राजधानी को लेकर उनका मत जानने का प्रयास किया। आयोग के अध्यक्ष खुद अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख करते हैं। आयोग द्वारा प्रस्तुत किए गए चार्ट के अनुसार 268 लोगों और संस्थाओं की प्रतिक्रियाएं इस बारे में आयोग को मिली। इसमें कुछ ऐसी भी थी, जो अंतिम तिथि के बाद आई, लेकिन आयोग ने उन्हें भी स्वीकार कर लिया। आयोग के अनुसार सबसे अधिक 126 सुझाव गैरसैंण के पक्ष में थे। उसके बाद 42 देहरादून और तीसरे स्थान पर 23 कालागढ़ के पक्ष में थे।
आयोग यह बात पहले ही मान चुका है कि कौशिक समिति ने जब गैरसैंण को राज्य की राजधानी के तौर पर चुना तो इसके लिए कोई तकनीकी परीक्षण नहीं किए गए, बल्कि जनता से कुछ सवाल पूछे गए थे। इसी जनमत के आधार पर कौशिक समिति ने गैरसैंण को राज्य की स्थायी राजधानी के लिए चुना था। इसका मतलब यह हुआ कि जनमत में हमेशा उत्तराखंड के मध्य बिंदु पर स्थित गैरसैंण न केवल सबसे आगे है, बल्कि अन्य सभी प्रस्तावित स्थलों के जनमत को मिलाकर भी यदि जोड़ दिया जाए तो वह गैरसैंण के आसपास नहीं ठहरता है।
दीक्षित आयोग को गैरसैंण का जनमत में इतना भारी पड़ना पच नहीं रहा था। प्रजातंत्रा के इस युग में कोई कितनी ही तकनीकी बात करे, जनमत को दरकिनार नहीं कर सकता है। दीक्षित आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती गैरसैंण के पक्ष में खड़े निर्विवादित जनमत को तोड़ने की थी। दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में अर्जिता बंसल का उदय इसी मकसद से हुआ। विधान सभा के पटल पर रखी गई तीसरे चरण की रिपोर्ट में जब अर्जिता बंसल द्वारा परखा गया जनमत का जगह-जगह उल्लेख आया तो किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि यह अर्जिता बंसल क्या बला है, यह बीच में ही कहां से टपक पड़ी। आयोग की तीसरी रिपोर्ट में स्थायी राजधानी के प्रस्तावित स्थलों के पक्ष और विपक्ष में भी अर्जिता बंसल के जनमत का उल्लेख बार-बार किया गया है।
दूसरे चरण की रिपोर्ट के पेज 20-21 में अर्जिता बंसल नंबूदार होती है। रिपोर्ट में पहले उत्तराखंड के जनमत को छह लाइनें समर्पित की गई हैं। उत्तराखंड के जनमत का एक वृत्ताकर चार्ट दिया गया है, जिसमें 45 प्रतिशत जनमत गैरसैंण के पक्ष में बताया गया है। अगले पेज में अर्जिता बंसल के जनमत का चार्ट दिया गया है। अर्जिता बंसल के जनमत का लब्बोलुआब यह है कि देहरादून के पक्ष में 46 प्रतिशत लोग हैं, जबकि गैरसैंण के पक्ष में सिपर्फ 10 प्रतिशत लोग ही हैं। चार्ट के नीचे लिखे नोट में कहा गया है कि अर्जिता बंसल की अप्रकाशित थिसिस से लिया गया है। लेकिन यह कहीं नहीं बताया गया है कि शोध छात्रा अर्जिता बंसल ने यह जनमत कैसे प्राप्त किया। क्या उत्तराखंड के लोग आकर अर्जिता को बता गए, अर्जिता ने दीक्षित आयोग की तरह अखबारों तथा मीडिया के जरिये जनमत जानने के लिए विज्ञापन प्रकाशित किया या पिफर अर्जिता बंसल ने घर-घर जाकर जनमत एकत्रा किया? यदि दीक्षित आयोग अपने द्वारा जांचे गए जनमत का संपूर्ण विवरण देने का दावा करता है, तो अर्जिता बंसल के जनमत में पारदर्शिता कहां है? यह भी संभव है कि यह सिपर्फ कागजी जनमत है, इसलिए इसका विवरण देना उचित नहीं समझा गया है। सवाल यह भी उठता है कि यदि आयोग ने पारदर्शी तरीके से जनमत प्राप्त कर लिया था, तो पिफर उसके बाद बिना सिर पैर के इस जनमत को बीच में लाने की जरूरत क्यों पड़ी?
दीक्षित आयोग के जनमत और अर्जिता बंसल के जनमत के नतीजों पर गौर करें तो सापफ दिखता है कि दोनों में देहरादून के पक्ष को मजबूत करने और गैरसैंण के पक्ष को कमजोर करने के लिए आंकड़ों के साथ हेरापफेरी की गई है। अर्जिता बंसल के जनमत में 40 प्रतिशत लोग देहरादून और 6 प्रतिशत लोग )षिकेश के पक्ष में हैं। )षिकेश देहरादून जिले में है, इसलिए तर्क दिया गया है कि देहरादून जिले के पक्ष में कुल मिलाकर 46 प्रतिशत लोग हुए। दूसरे चरण की इस तुलनात्मक रिपोर्ट में दीक्षित आयोग द्वारा किए गए जनमत में भाग लेने वालों की संख्या 251 बताई गई है। आयोग के चैथे चरण की रिपोर्ट में जनमत में भाग लेने वालों की संख्या 268 बताई गई है। दीक्षित आयोग की रिपोर्ट के अलग-अलग चरणों में इस तरह का अंतरविरोध उसकी गंभीर खामी की ओर इशारा करती है। चैथे चरण की रिपोर्ट के अनुसार इनमें से 126 ने गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के पक्ष में अपना मत रखा है। आयोग ने आंकड़ों में भी खुले तौर पर गैरसैंण के साथ पक्षपात किया है। गैरसैंण के पक्ष में खड़े 126 के अतिरिक्त पांच ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कहा है कि राजधानी कुमाऊं-गढ़वाल के मध्य स्थल पर बने। कुमाऊं-गढ़वाल के मध्य स्थल पर गैरसैंण के अतिरिक्त और कौन स्थल है? तीन लोग ऐसे हैं, जिन्होंने गैरसैंण या एक अन्य स्थान को राजधानी बनाने को कहा है। दो लोगों ने चैखुटिया और एक ने नागचूलाखाल को राजधानी बनाने की बात कही है। ये दोनों स्थल गैरसैंण के प्रस्तावित राजधानी स्थल की परिधि में आते हैं। इसके बाद भी आयोग ने इन ग्यारह जनमतों को गैरसैंण से बाहर माना है। जबकि अर्जिता बंसल के जनमत में )षिकेश के पक्ष के छह प्रतिशत मतों को देहरादून में शामिल कर लिया गया। जबकि )षिकेश खुद राजधानी स्थल की दौड़ में शामिल है। यदि आयोग के जनमत में वे ग्यारह मत गैरसैंण के पक्ष में जोड़ दिए जाएं तो 268 में से 137 मत गैरसैंण के पक्ष में हो जाते हैं, जो कुल मिलाकर आधे से अधिक होता है। जिसे दीक्षित आयोग सिपर्फ 45 प्रतिशत मानता है।
कौशिक समिति और दीक्षित आयोग के जनमत में गैरसैंण की बादशाहत आयोग को गंवारा नहीं हो रही थी। इसलिए अर्जिता बंसल का बिना सिर पैर का जनमत खड़ा किया गया। दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में जब जनमत का पक्ष रखने की जरूरत पड़ी तो आयोग ने कौशिक कमेटी तथा खुद आयोग के जनमत को दरकिनार कर दिया, वहां सिपर्फ अर्जिता बंसल का जनमत पेश किया गया। एक शोध छात्रा का आधारहीन जनमत, जिसकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो, वह उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्राी की अध्यक्षता वाली कौशिक कमेटी द्वारा लिए गए जनमत और खुद आयोग द्वारा लिए गए जनमत से ज्यादा विश्वसनीय कैसे हो सकता है? यदि आयोग ऐसा मानता है तो यह उसके पूर्वाग्रह से अधिक कुछ नहीं है। वास्तविकता भी यही है कि अर्जिता बंसल का जनमत आयोग को इसलिए खड़ा करना पड़ा ताकि सब पर भारी पड़ रहे गैरसैंण के जनमत का तोड़ निकाला जा सके।
गैरसैंण की बादशाहत सिपर्फ जनमत में हर बार सबसे आगे रहना ही नहीं है, बल्कि भौगोलिक रूप से दुरूह उत्तराखंड राज्य में उसकी भौगोलिक केंद्रीयता भी है। गैरसैंण के पक्ष में जनमत की बादशाहत को तोड़ने के लिए आयोग अर्जिता बंसल का जनमत ले आया, अब गैरसैंण की भौगोलिक केंद्रीयता को तोड़ने के लिए आयोग ने एक नया सिद्धांत गढ़ा है, जिसे जनसंख्यात्मक केंद्रीयता का सिद्धांत कहा गया है। मतलब यह कि जहां सबसे अधिक जनसंख्या है, उसे जनसंख्यात्मक केंद्रीय स्थल मानते हुए, भौगोलिक केंद्रीयता पर बढ़त दी जाए। गैरसैंण के दो मजबूत पक्ष रहे हैं, हमेशा जनमत में सबसे आगे रहना और उसकी भौगोलिक केंद्रीयता। दीक्षित आयोग को गैरसैंण की इन दो श्रेष्ठताओं का तोड़ ढूंढना था। पहला तोड़ वह अर्जिता बंसल के जनमत और दूसरा जनसंख्यात्मक केंद्रीयता के रूप में लेकर आया है।
क्या कौशिक कमेटी और खुद दीक्षित आयोग के जनमत के मुकाबले अर्जिता बंसल का जनमत ज्यादा सारगर्भित है? कौशिक कमेटी ने किस तरह राज्य की जनता का जनमत लिया था, साथ ही दीक्षित आयोग ने कैसे जनमत जाना, इसे कम से कम पारदर्शी तरीके से रिपोर्ट में रखा गया है। अर्जिता बंसल ने कैसे जनमत लिया, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। इससे लगता है कि यह गढ़ा हुआ जनमत है। इस तरह के जनमत की दीक्षित आयोग को जरूरत थी, इसलिए यह जबरदस्ती गढ़ा गया और आयोग ने अपनी सुविधानुसार अपनी रिपोर्ट में अन्य जनमतों को दरकिनार कर गढ़े गए जनमत को ही अधिक महत्व दिया।
जहां जनसंख्या अधिक हो वही राजधनी
दूसरा सवाल भौगोलिक केंद्रीयता पर जनसंख्यात्मक केंद्रीयता को थोपने का है। दुरूह भौगोलिक स्थिति वाले उत्तराखंड के केंद्रीय स्थल पर स्थित गैरसैंण और एक कोने पर हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित देहरादून के बीच कोई मुकाबला नहीं हो सकता है। इसलिए दीक्षित आयोग ने एक और सिद्धांत गढ़ा, वह था जनसंख्या की केंद्रीयता का सिद्धांत। आयोग ने जनसंख्या की केंद्रीयता को भौगोलिक केंद्रीयता पर वरीयता भी दी। मतलब यह कि जहां जनसंख्या अधिक है, राजधानी भी वहीं होनी चाहिए। दीक्षित आयोग का यह मनगढं़त जनसंख्या की केंद्रीयता का सिद्धांत उत्तराखंड राज्य की अवधारणा पर ही सीधे चोट करता है। उत्तराखंड राज्य की मांग जनसंख्या की अधिकता की वजह से नहीं की गई थी, बल्कि उत्तराखंड की मांग पिछड़े पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए की गई थी। राज्य गठन का औचित्य भी एक पिछड़े भौगोलिक क्षेत्रा के विकास को लेकर साबित किया जाता है। जहां जनसंख्या अधिक है, उसी क्षेत्र के विकास के लिए राज्य का गठन नहीं किया गया। दीक्षित आयोग का जनसंख्या की केंद्रीयता का सिद्धांत यही साबित करता है कि जहां जनसंख्या अधिक है, वहीं का विकास होना चाहिए, वहीं राजधानी की स्थापना होनी चाहिए। जो दस सालों में इस राज्य में हो भी रहा है।
वास्तविकता यह है कि दीक्षित आयोग ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ये दो सिद्धांत गढ़े हैं। यह गैरसैंण की, पहाड़ की श्रेष्ठता और मजबूत दावों को कमजोर करने के लिए गढ़े गए आधारहीन सिद्धांत हैं। इस तरह के निर्मूल बुनियाद पर गढ़े गए सिद्धांत किसी स्थल को स्थायी राजधानी बनाने के दावे का कैसे आधार बनाए जा सकते हैं? दीक्षित आयोग ने इसी तरह के निराधार सिद्धांत गढ़कर देहरादून का पक्ष मजबूत किया है। इससे लगता है कि दीक्षित आयोग आठ साल तक राजधानी स्थल चयन के लिए वस्तुनिष्ठा से प्रयास करने के बजाय एक स्थल विशेष के पक्ष में रिपोर्ट तैयार करने के लिए इस तरह के मनगढ़ंगत सिद्धांत गढ़ने में ही अपनी ऊर्जा और समय का अधिक उपयोग करता रहा। पूर्वाग्रहों से ग्रस्त दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार करना इस राज्य के हित में नहीं हो सकता है। स्थलों के चयन के मानकों में भी दीक्षित आयोग की स्थल विशेष की तरपफदारी का सिलसिला जारी है।
सहयाेग- नमन चंदाेला
इंद्रजीत सिंह असवाल,पौड़ी गढ़वाल