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उत्तराखंड: बार-बार होते हादसे!

उत्तराखंड राज्य के गठन के पूर्व में 1993 में भारी भूकंप आया जिसमें उत्तरकाशी व अन्य क्षेत्रों में भारी नुकसान हुआ जिसकी भरपायी नहीं हो पायी थी कि राज्य बनने के बाद जून 2013 जलप्रलय के रुप में भारी विनाशालीला देखने को मिली। दुःखद पहलू यह भी है कि हमारी केन्द्र तथा राज्य की सरकारें 1993 के बाद भी चेती नहीं । 2013 में उत्तराखंड राज्य के प्रमुख पावन स्थन केदारनाथ में भंयकर जल प्रलय ने सारे क्षेत्र को तहस-नहस कर दिया, प्राप्त समाचारों के अनुसार हजारों लोगों की जानें गई, आज भी सैंकड़ों की संचया में लापता ही हैं, इसके अतिरिक्त हजार-करोड़ों का नुकसान हुआ जिसका सही-सही आंकलन राज्य अथवा केन्द्र सरकार नहीं कर पाई। हां, प्रलय के बाद सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के अध्ययन रिपोर्ट अवश्य ही समाचार-पत्रों में प्रकाशित होती रही, समय-समय पर भी होती रही है। रिपोर्ट में भविष्य के लिए चेतावनी भी शामिल हैं।
मैं अपने अनुभव के साथ अध्ययन-विचार आप सभी के साथ बांटना चाहता हूं। परन्तु पहले आपको बता दूं कि मैं कोई भू-वैज्ञानिक नहीं हूं परन्तु मेरा स्वभाव है अध्ययन करना। मुझे सर्वप्रथम 1988 से नियमित 4 वर्ष तक लगातार उत्तराखंड ;तत्कालीन उत्तर प्रदेश का भागद्ध जाने का अवसर मिलता रहा। मेरी यात्राएं मुख्यतः गोपेश्वर, टीहरी गढ़वाल ;पुरानाद्ध और उत्तरकाशी क्षेत्र की रही। मेरी खोजी निगाहें और वैचारिक बु(ि से मुझे देखने का मिला उत्तरखंड का व्यापक विकास परन्तु उसके पीछे गैर-जिम्मेदारपूर्ण सोच अथवा योजनाएं। 1988 में मुझे अक्सर रास्ते में भू-स्खलन जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ता था, क्योंकि जगह-जगह पहाड़ से पत्थर गिरने के कारण रास्ते बंद हो जाते थे, मुझे याद है कि 1988 सितम्बर माह में जब मैं उत्तरकाशी जाने का अवसर मिला तो उत्तरकाशी से लगभग 8 किमी ;प्रसि( पर्वतारोहणी ब्रछेन्द्रीपाल के गांवद्ध पहले पहाड़ गिरने के कारण पूरा रास्ता बंद हो गया था और आवगामन पूरी तरह ठप्प हो गया था। बताया जा रहा था कि पहाड़ गिरने से उसके नीचे एक बस दब गई थी। स्थिति यह थी कि इधर के वाहनें इधर रह गए और उधर के वाहन उधर ही रह गए, तब हम सभी यात्री भागीरथी नदी के किनारे पहाड़ से थोड़ा नीचे उतर के जैसे-तैसे उस पार पहुंचे और अपनी यात्रा उत्तरकाशी के लिए पूर्ण की। इसी प्रकार श्रीनगर से 20 किमी आगे गोपेश्वर के रास्ते में एक यू-शेप का मोड़ आता है वहां पर लगातार पहाड़ गिरने के कारण घंटों अथवा कई दिनों तक मार्ग बंद हो जाता था और एक बात और थी पहाड़ से पानी गिरने के कारण दलदल भी हो जाती थी। यात्री उस दलदल भरे रास्ते में मिट्ठी से और पेड़ तोड़ कर उस दलदल को खत्म करने की कोशिश करते और यात्रा करते थे। परन्तु 1996 के बाद सरकार के सड़क संगठन ने उस क्षेत्र की सड़कों के रख-रखाव एवं निर्माण की जिम्मेदारी संभाली और चैड़ी और मजबूत सड़कों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। उल्लेखनीय उस समय टिहरी बांध का निर्माण भी पूरा होने जा रहा था इस बांध के साथ उत्तरकाशी क्षेत्र के साथ गोपेश्वर के रास्ते में भी छोटे-छोटे बांधों का निर्माण भी चालू था।
कारण जो मेरे अध्ययन में आएः
आपको याद होगा कि 1987 में उत्तर भारत में भंयकर सूखा पड़ा था बरसात के सीजन में भी कोई विशेष तो क्या थोड़ी बहुत भी बरसात नहीं हुई थी। तत्कालीन सरकारों ने सूखे से निपटने के लिए कार्य किया, किसानों के लिए चिंता व्यक्त करते हुए उनको होने वाली दुःख दर्द की देखभाल अवश्य की होगी परन्तु उस सूखे के भविष्य में आने वाले विशेष कर पहाड़ी क्षेत्र में खतरे को वह भांप नहीं पाये, उधर 1988 में उत्तरी क्षेत्र में अच्छी वारिस हुई। आपको यहां पर बता दूं कि उत्तराखंड क्षेत्र जो बसा है वह पहाड़ी क्षेत्र में बसा है, वहां के पहाड़ जो बने हैं, उसके पत्थर पर्तदार हैं जिससे बच्चों की स्लेट बनती हैं और 1987 में पड़े भंयकर सूखे के कारण उत्तराखंड के पहाड़ों में भारी गर्म हो गए फिर 1988 में हुई भारी वारिस के कारण उस पत्थरों में ठंडक मिली और गर्म पत्थर में समायी हुई थी गर्मी, वह गर्मी गैस के रुप में परिवर्तित हो गई, जब पत्थर में गैस बन गई तो उसको निकलने के लिए जगह चाहिए और पत्थर पर्तदार होने के कारण वह गैस निकलने पर पत्थर फट गए और भू-स्खलन शुरु हो गया।
बांधों का निर्माण यानि प्रकृति से छेड़छाड़-
उत्तराखंड क्षेत्र में टिहरी बांध बनाने की योजना आजादी के बाद से शुरु की गई। बांध बनाने का उद्देश्य देश में पानी को संरक्षित करना और संरक्षित जल से बिजली पैदा करना था, बनने वाले बांधों के निर्माण को देख मैं हैरत में रह जाता था विशाल बांध और उसमंे बनने वाली विशाल सुरंगे, टिहरी ;पुरानीद्ध में मैंने उन सुरंगों को देखा था। जहां पर हमारी निगाहें नहीं पहंुच पा रही थी वहां बांध बांधने के लिए ड्रील मशीनें लगाकर पहाड़ों को छेदा जा रहा था। जगह-जगह बांध बनाने के लिए तरह-तरह की मशीनों का प्रयोग लगातार लगभग 30 वर्षों तक होता रहा। क्या आपने या सरकार अभियंताओं ने कभी सोचा कि इन गड़गड़ाहट का प्रभाव क्या होगा? क्या पहाड़ नहीं हिलेंगे?
परिवहन के प्रदूषणः
जिसके बारे में क्षेत्रीय जनता ने और बड़े-बड़े भू-वैज्ञानिकों ने कभी चेतावनी नहीं दी। मैंने वहां देखा कि यातायात के साधन की सुविधाओं असीमित थी, यह कह सकता हूं कि प्रत्येक दो से तीन मिनट में एक बस सुलभ थी, जबकि इतने यात्री उपलब्ध नहीं हुआ करते थे, अतः उस वाहन चालक अपने बस को हमेशा से स्टार्ट रखते थे जिससे यात्री उनकी बस में बैठने के लिए प्रेरित हो सकें। क्या चाूल इंजन वाली बसों से निकलने वाला प्रदूषण इन पर्तदार पहाड़ में वायु प्रदूष्ण नहीं फैलाता है?
औद्योगिक विकास और प्रदूषणः
उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद राज्य में सत्तारुढ़ सभी सरकारों ने राज्य में सकल उत्पाद बढ़ाने के लिए कोई दूरगामी परिणाम को सोचे बिना राज्य में वृहद स्तर पर औद्योगिक विकास की योजना बनाकर राज्य के ऊधमपुर जनपद को औद्योगिक नगरी के रुप में विकसित कर दिया। इसी प्रकार हरिद्वार जनपद के बाहरी क्षेत्र में भी विकसित कर दिये। ऊधमपुर क्षेत्र के लिए बताया जाता था कि इस क्षेत्र में भारी उद्योगों की संख्या लगभग 300 हंै, तब आप स्वयं समझ सकते हैं कि इन कारखानों के साथ स्थापित होने वाली लघु इकाईयों की संख्या कितनी होगी? निश्चित रुप से ऊधमपुर जनपद पहाड़ों तराई क्षेत्र में है लेकिन है तो पहाड़ी क्षेत्र में। क्या इन फैक्टरियों में वायु, जल एवं अन्य प्रदूषण कितनी मात्रा फैलता होगा? क्या कभी अध्ययन किया गया?
पर्यटन उद्योग का विकासः
उत्तराखंड राज्य मुख्यतः पयर्टन क्षेत्र में अग्रणी हैं। क्योंकि यहां पर प्रत्येक कण-कण में श्र(ा है। प्रत्येक जनपद, तहसील में भगवान भोले नाथ का निवास माना जाता है, इस राज्य से पतित पावनी गंगा का उद्गम होता है परन्तु राज्य की सरकार ने योजनाब( तरीके से पयर्टन उद्योग के विकास पर समुचित ध्यान न देकर बस पयर्टन क्षेत्र को बढ़ावा दिया। इस विकास में कोई मानक अथवा नियम स्थापित नहीं थे। हम पयर्टन के विकास के विरु( नहीं है परन्तु प्रदूषित पयर्टन उद्योग भी तो राज्य के विनाश का कारण हो सकती है। यदि हम काश्मीर के माता वैष्णों के मंदिर का उदाहरण ले तो वहां पर आने वाले पयर्टकों की कमी नहीं है वरन् प्रतिवर्ष संख्या बढ़ ही रही है इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश जहां पर एक नहीं अनेक माताओं के मंदिर प्रतिष्ठित है परन्तु वायु प्रदूषण कितना मात्रा में बढ़ा है? लेकिन उत्तराखंड राज्य में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जब केदार नाथ में दुघर्टना घटी तब राज्य सरकार को इतना नहीं पता था कि क्षेत्र में कितने यात्री फंसे हुए हैं। अर्थात उनके राज्य में कितने तीर्थयात्री इस समय मौजूद हैं!
हां, पुनः करते हैं कि उत्तराखंड में पयर्टन उद्योग का विकास तो हुआ। धार्मिक भक्त स्वतः ही उत्तराखंड के धार्मिक स्थलों की ओर आकर्षित होकर स्वयं ही उत्तराखंड पहंुचने लगे जिसका उत्तराखंड की जनता ने स्वार्थ में लिप्त होकर लाभ कमाना शुरु कर दिया। पयर्टकों के लिए भारी संख्या में होटल, रेस्टोरेंट आदि निजी तौर पर स्थापित कर लिए परन्तु सरकार द्वारा कोई भी मानक स्थापित न होने का परिणाम जल एवं वायु प्रदूषण से त्रस्त होकर प्रकृति ने स्वयं की कायापलट कर दी ।
कुल मिलाकर कहा जाये कि यह सरकारी उदासीनता की श्रेणी में आता है और अध्ययनों को नजरअंदाज करना आज उत्तराखंड के लिए विनाश का कारण बनता नजर आ रहा है। अध्ययन रिपोर्ट मात्र रिपोर्ट बनकर सरकारी कार्यालयों की शान बढ़ा रही है अथवा वह सरकारी उदासीनता का भाजन बन गई और परिणाम भुगता उत्तराखंड की जनता ने और उत्तराखंड के विकास ने। अतः अब भी समय है यदि समय के साथ नहीं चेते और केवल रोना रोते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड भारत के नक्शे से गायब हो सकता है यह मेरी भावना नहीं है वरन् प्राप्त रिपोटों की भावना है। हां, इतिहास गवाह है कि जब – जब प्रकृति कोई परिवर्तन लेती है वहां अपने निशान भी नहीं छोड़ती हां, बस इतिहासकारों के लिए एक ‘विषय’ छोड़ देती है। क्या हमारी सरकारें भी कोई निशान का प्रतीक्षा कर रही है अतः अब तो चेतो और….

पराग सिंहल
द्वारिका ग्रीन, फेस-2
ग्वालियर रोड, आगरा

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