बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने जब नवंबर 2023 में अपने भाई के बेटे आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उतराधिकारी घोषित किया था तो उसकी काफी पहले से यह संभावना जताई जा रही थी. लंदन में बिजनेस मैनेजमेंट व्यापार प्रबंधन का प्रशिक्षण लेकर राजनीति में उतरे आकाश को राजनीतिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए खुद को सक्षम साबित करना है. भारतीय समाज में किसी भी नेतृत्व के लिए राजनीतिक चुनौतियां अलग-अलग होती हैं. मसलन ब्रिटिश सत्ता के विरोध में आंदोलन के दौरान जो राजनीतिक चुनौती जवाहर लाल नेहरू के सामने थी, डा. भीमराव अम्बेडकर के सामने उससे बुनियादी रुप से भिन्न चुनौतियां थी. बहुजन समाज पार्टी के बनने की पृष्ठभूमि में डा. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत है. वह भारतीय समाज में सदियों से शासित और शोषित जाति-वर्ग को समानता की स्थिति में लाने की रही है. बहुजन समाज पार्टी का प्रयोग उत्तर प्रदेश में इस रुप में सफल माना जा सकता है कि वहां उसकी नेता मायावती के मुख्यमंत्रित्व में सरकार बनी और वह संसदीय लोकतंत्र में सत्ता की दौड़ में लगी लगभग सभी पार्टियों के साथ तालमेल के प्रयोग से गुजरकर ही संभव हो सका. पहली बार सरकार समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर बनाई तो दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी के साथ और तीसरी बार बसपा के चुनाव चिह्न पर जीतने वाले विधायको के बहुमत से बनी. एक सामाजिक अभियान से पार्टी के गठन और फिर सरकार का नेतृत्व कर बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश से बाहर विस्तार नहीं पा सकी और ना ही उत्तर प्रदेश में भी उसकी सत्ता हासिल करने की ताकत बच सकी. 2007 में 403 सदस्यों के सदन में 206 सीटें जीतकर और 30.43 प्रतिशत मत हासिल कर सरकार बनाने वाली बसपा 2022 के विधानसभा चुनाव में 12.88 प्रतिशत वोट पर सिमट गई. मायावती किसकी उत्तराधिकारी थीं, मायावती एक राजनीतिक आंदोलन की विरासत थी. भारतीय समाज में अछूत कहे जाने वाले जमाने से एक दलित महिला के राजनीतिक नेतृत्व करने की छवि को संसदीय राजनीति के विकास के लक्ष्य के रुप में पेश किया जाता रहा है. गांधी और लोहिया भी इसमें शामिल हैं, लेकिन कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन कर इस लक्ष्य को उत्तर प्रदेश में सरकार का गठन कर हासिल करने का दावा किया, लेकिन भारतीय समाज पर वर्चस्व रखने वाली संस्कृति का एक विशेष चरित्र हैं कि वह शासितों की अपेक्षाओं पर एक समय के बाद न केवल अपनी मुहर लगाता है बल्कि लंबे कालखंड में उन अपेक्षाओं को अपने ब्रांड के रुप में स्थापित कर देता है. मौजूदा समय में चुनावबाज लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीतिक दल एक दूसरी की छाया प्रति बनती दिख रही है. यह तो आमतौर पर लोग अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, लेकिन गौरतलब है कि यह उस दौर में हैं जब वर्चस्व रखने वाली संस्कृति खुद को अपराजेय होने की घोषणा करने की स्थिति में पहुंच गई है. मायावती का अपना उत्तराधिकारी अपने भाई के बेटे को घोषित करना आश्चर्य में नहीं डालता, क्योंकि बहुजन समाज पार्टी केवल चुनाव बाजी के लिए खुद को सिमेट चुकी है. समाज में परिवर्तन के लिए जो भी वैचारिक घाराएं हिन्दू-वर्चस्व के इर्दगिर्द सिमटी रही है उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत मानने वाली तमाम पार्टियां पारिवारिक विरासत बन चुकी है. तकनीकी तर्कों को छोड़ दें तो कॉग्रेस का नेतृत्व पांचवी पीढ़ी के हाथ में है. तमिलनाडु में करुणानिधि की तीसरी पीढ़ी राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए तैयार हो गई है. बिहार में सामाजिक न्याय की दूसरी पीढ़ी नेतृत्व संभाल चुकी है.उत्तर प्रदेश में समाजवादी मुलायम सिंह ने भाई और बेटे के बीच में बेटे को राजनीतिक उत्तराधिकारी के रुप में चुना. इस कड़ी में एक अपवाद यह है कि महाऱाष्ट्र के शरद पवार ने जब अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का संकेत दिया तो पुरुष भतीजे अजीत पवार ने उनसे लगभग विद्रोह कर दिया. रामविलास पासवान के राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग पासवान बनते चले गए, उन्हें कोई घोषणा नहीं करनी पड़ी. भाई-भतीजे के बीच संघर्ष की एक मिसाल वहां भी मिलती है. भारतीय राजनीतिक दलों में जिस तरह से राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपे जा रहे हैं, उनका बारीकी से अध्ययन करें तो यह स्पष्ट करने में सुविधा हो सकती है कि वैचारिक स्तर पर भारतीय समाज किस हद तक आधुनिक और लोकतांत्रिक हो पाया है. इस लिहाज से बसपा नेता मायावती का अपने भतीजे को उत्तराधिकार घोषित करना कोई अलग सी राजनीतिक प्रवृति नहीं रही है. भारतीय समाज में जाति जब तक राजनीति के लिए स्वीकार्य होगी, परिवार और उसकी पगड़ी की संस्कृति मजबूत से जमी रहेगी. भारतीय समाज के बारे में यह राय भी बनी है कि जिस तरह से जाति-वर्ग अपने हितों के लिए धर्म की आड़ और तदनुसार धर्म का राजनीतिकरण राष्ट्र के नाम पर करते हैं उसी तरह से दूसरी तरफ वंचित हिस्सों के बीच भी जातिवाद इसी तरह की शक्ल बनाकर सत्ता तक की दौड़ को एक प्रतिस्पर्द्धा मान लेने का भ्रम निर्मित करता है. यह भी एक अलग समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है कि आखिर बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को उत्तराधिकार की घोषणा क्यों करनी पड़ी थी. यह वास्तविकता है कि राजनीतिक दल परिवारों तक सिमटते जा रहे हैं, लेकिन अपनी वैयक्तिक संपत्ति की तरह पार्टी को अपने परिवार के सदस्यों को सौंपने का रास्ता नेतृत्व द्वारा तैयार किया जाता है. घोषणा करने से बचा जाता है. स्मरण नहीं कि किसी भी नेतृत्व ने इस तरह उत्तराधिकार की घोषणा की हो. इस संदर्भ में एक पहलू यह जरुर उल्लेखनीय है कि बहुजन समाज पार्टी का बड़ा आधार दूसरी पार्टियों से इस मायने में भिन्न बचा हुआ है कि उसके साथ विचारधारा की एक विरासत सक्रियता बनाए हुए है.लेकिन एक बड़ा विचारधारात्मक सवाल उसके सामने खड़ा हो गया है. ब्राह्मणवाद की आलोचना और विरोध का मुख्य आधार यह है कि उस व्यवस्था में जन्म से ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत सुनिश्चित हो जाती है. यही परिवारवाद में विस्तारित होता है. परिवारवाद के विरोध का भी आधार यह रहा है कि जन्म से ही किसी राजनीतिक नेतृत्व के परिवार को ऊंचा मान लेते हैं. परिवादवाद जन्म के आधार पर ऊंच-नीच मान लेने की व्यवस्था को बनाए ही नहीं रखता है बल्कि उसे और भी मजबूत करता है. मायावती ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन की विरासत पर खड़ी पार्टी का तीन दशकों से ज्यादा समय से नेतृत्व कर रही है. इसके पक्ष में एक राय हो सकती है कि उन्हें अपना उत्तराधिकार घोषित करने का अधिकार मिलना चाहिए लेकिन बहुजन समाज पार्टी के लिए उत्तराधिकार घोषित करने की रजामंदी विचारधारात्मक आंदोलन के समक्ष प्रश्न खड़ा करती है. उसकी उर्जा को क्षीण करती है. इन सब बातों को ध्यान में रखकर कह सकते है कि बहुजन समाज पार्टी के भीतर यह प्रयोग सत्ता के लिए प्रयोगों से भिन्न नहीं रहा है. आकाश आनंद को संयोजक और उतराधिकारी पद के रूप में दिए गए थे. आकाश आनंद भी इस पद पर प्रयोग के दौर से गुजर रहे थे. उनके पद हासिल करने के बस पहले भाषण से लेकर सीतापुर तक के भाषणों का अध्ययन करें तो उनके सामने दो चुनौतियां साफ दिखती है. पहली पारिवारिक विरासत पर खरा उतरना और दूसरा बहुजन चेतना को एक आवेग देना. संकट है कि इन दोनों में टकराव है. आकाश आनंद ने अपने पहले भाषणों में युवाओं से कहा कि आंदोलनों से दूर रहें. सीतापुर तक पहुंचते-पहुंचते उन्हें बीजेपी और उसके नेतृत्व को अपना मुख्य प्रतिद्वंदी जाहिर करने के लिए बोलना पड़ा. आक्रमकता बहुजन राजनीति की गति है. उससे इस माहौल में बचा नहीं जा सकता है. दरअसल मायावती और बहुजन समाज पार्टी एक दूसरे के लिए विरोधाभास के हालात से गुजर रहे हैं, लेकिन यह कहना एक जातिगत पूर्वाग्रह है कि बहुजन समाज पार्टी बीजेपी की बी टीम है. कतई नहीं है.मायावती अभी खुद उस स्थिति को सुरक्षित रखना चाहती है जहां वे खड़ी है. वे कोई चुनाव जीतकर सरकार बनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी को तैयार नहीं करने की स्थिति में है. इस लिहाज से आकाश आनंद को हटाना हैरत में डालने वाली घटना नहीं है.आकाश का राजनीतिक भविष्य है और उसके लिए खड़े होने की जगह बन गई है.