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दिन-प्रतिदिन क्यों घटती जा रही है मीडिया की विश्वसनीयता

लोकतंत्र में मीडिया को चौथा खंबा कहा जाता है। मीडिया की स्वतंत्रता लोकतंत्र में अहम स्थान रखती है। एक वक्त था जब देश में मीडिया की शक्ति के सामने बड़े बड़े राजनेता और सत्ता के लोग खड़ें होने से घबराते थे। देश की आजादी में मीडिया का अहम योगदान रहा। एक वक्त तो ऐसा भी था जब देश के कई जाने माने संपादक, पत्रकार स्वतंत्रता संग्राम से सीधे जुड़े थे। महात्मा गांधी हो या जवाहर लाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी हो या माखनलाल चतुर्वेदी, डॉक्टर अंबेडकर हो या लाला लाजपत राय इन सभी महान विभूतियों ने अपनी लेखनी से समाज को एक नई दिशा दिखाई और अंग्रेजी सरकार की नीतियों पर लगातार अपनी कलम चलाने का काम किया। आजादी के बाद हमारे देश के संविधान ने मीडिया को पूर्णतः स्वतंत्र रखा और उस पर किसी भी तरह की पाबंदी अथवा शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। भारत के संविधान ने तो मीडिया को लेखन, मुद्रण, चित्र प्रकाशन, एवं विचारों के प्रसार का असीमित अधिकार दे रखा है। संविधान का अनुच्छेद फ्रीडम ऑफ स्पीच का अधिकार देता है। इसी अनुच्छेद में हमें कई तरह की मौलिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
भारत में मीडिया को असीमित अधिकार है। इन्हीं अधिकारों को लेकर आज देश में मीडिया की एक ऐसी शाखा उपजी है जिसने स्थापित मीडिया संस्थानों, पत्रकारों,संपादकों और लेखकों की विश्वसनीयता को खत्म करने का काम किया है। भारत में सूचना प्रौद्यागिकी के विस्फोट के बाद इंटरनेट पर बेसुमार तरह की सूचनाएं और जानकारी उपलब्ध है। हालत यह हैं कि देश के किसी भी हिस्से में घटने वाली कोई छोटी बड़ी खबर पलभर में देश-दुनिया में वायरल हो जाती है। इंटरनेट आधारित मीडिया चैनलों और समाचार पत्रों ने मीडिया की संपूर्ण परिभाषा, मानक, उद्देश्य, गरिमा, मर्यादा, नैतिकता, भाषाशैली और प्रदर्शन को पूरी तरह से बदल दिया है। अगर यह कहें कि इंटरनेट आधारित वेबचैनलों और समाचार पत्रों ने अपनी सुविधा के हिसाब से खबरों, जानकारियों, तथ्यों को पेश करना शुरू कर दिया है तो कोई गलत बात नहीं होगी। आज आलम यह हैं कि वेबचैनल अपनी सुविधा और दृष्टिकोण के हिसाब से किसी भी जानकारी को परोसते है और सनसनी खड़ी देते है। देखते ही देखते कुछ संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं, स्वयंभू पत्रकारों और अन्य पेशों से जुड़े लोगों ने इंटरनेट मीडिया के माध्यम से ऐसी साम्रगी को परोसना शुरू कर दिया है जिसे स्थापित मीडिया संस्थानों द्वारा बेहद हल्का माना जाता है।
मीडिया की विश्वसनीय पर आज देश में सबसे बड़ा संकट खड़ा है। ऐसे नौसिखिए लोगों के हाथ में पत्रकारिता की बागडोर है जिन्हें जर्नलिज्म के जे तक का नहीं पता। जिन लोगों ने अपनी पूरी आयु और अनुभव अपने संस्थान के लिए लगा दिए उन लोगों की लिखी खबरों पर नौसिखिए पत्रकार सवाल खड़े करने लगे हैं। हालात यह हैं कि चाय का ठेला लगाने वाले, फल बेचने वाले, प्रॉपर्टी का कारोबार करने वाले, जातिगत संगठन चलाने वाले, धार्मिक गतिविधियों के संचालन से जुड़े लोग धडल्ले से इंटरनेट आधारित वेब चैनलों पर अपने हिसाब से कंटेंट परोस रहे है। दिलचस्प बात यह हैं कि देश में इनकी रोकथाम के लिए सरकार के पास कोई भी नियामक अथवा निगरानी तंत्र नहीं है। जबकि देश में समाचार पत्र निकालने वाले लोगों के लिए भारत सरकार ने आरएनआई का गठन कर रखा है। जबकि हकीकत तो यह भी कि आरएनआई भी बिना की योग्यता अथवा मानक के बिना किसी भी व्यक्ति को समाचार पत्र अथवा पत्रिका निकालने की अनुमति प्रदान कर देता है।
देश में आज पत्रकारों की दशा बहुत दयनीय है। स्थापित संस्थानों द्वारा इंटरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बाद स्वयं के वेब पोर्टल स्थापित किए जा रहे है। समाचार पत्रों से धीरे-धीरे पत्रकारों और डेस्क स्टाफ को कम किया जा रहा है। इसका बड़ा कारण है कि इंटरनेट पर बेतरतीब ढंग से उपज रहे वेब पोर्टल और वेब चैनल है। इन पोर्टल और चैनलों का एक बड़ा वर्ग पाठक और दर्शक है। दरअसल देश में 100 करोड़ से अधिक लोगों के पास आज एंड्रॉयड फोन है। बहुत से एंड्रॉयड फोन धारक सामान्य तौर पर बहुत अधिक पढ़े लिखे नहीं है, कुछ केवल साक्षर भर है मगर यह लोग इन नौसिखिए पत्रकारों द्वारा परोसी गई जानकारी के सबसे बड़े यूजर है। कोढ में खाज यह हैं कि इंटरनेट पर प्रसारित इन चैनलों को इन्हीं यूजर्स की वजह से अच्छा खासा पैसा प्राप्त होता है।
आज के दौर में सोशल मीडिया को भविष्य का मीडिया कहा जा रहा है। मोबाइल फोन रिपोर्टर का कैमरा और लैपटॉप दोनों है। वह किसी भी व्यक्ति से अपनी सुविधा के मुताबिक बातचीत करता है उसे सनसनी खेज बनाता है और चंद लाइन लिख कर इंटरनेट पर फैला देत है। देश में बीते दिनों दो ऐसे प्रदर्शन हुए जिनके पीछे एक वर्ग के चंद लोगों की कुछ निहित मंशा थी। सीएए के विरोध में शाहिन बाग का धरना और दिल्ली के तीन बॉर्डर पर किसानों का प्रदर्शन इन दोनों आंदोलनों में इंटरनेट आधारित पत्रकारिता ने ऐसा भ्रम फैलाया जिसे लेकर पुलिस और प्रशासन हलकान रहा। मीडिया का अर्थ अपनी मनमर्जी चलाना, किसी की निजता का हनन करना, भाषा की मर्यादा को तार-तार करना, संवेदनशील मुद्दे को उछालना, धार्मिक भावनाओं को भड़काना, व्यक्तिगत टिप्पणी करना, तथ्यों से परे जाकर रिपोर्टिंग करना और अनैतिक लोगों का महिमामंड़न करना कतई नहीं है। मगर यह सब खूब हो रहा है या कहें कि सरेआम हो रहा है। एक वक्त था जब मीडिया के पेशे में बहुत पढ़े-लिखे और समझदार लोग थे, उनके पास शब्दों का एक व्यापक भंडार था, खबरों को गढ़ने और खबरों में तथ्यों का समावेश करने की उन्हें महारथ हासिल थी, उनकी लेखनी के बड़े बड़े लोग कायल थे, अगर कोई संपादक किसी राजनेता पर अप्रत्यक्ष तौर पर कलम चला देता था तो राजनेता का दम ही निकल जाता था। पत्रकारों को समाज में सम्मान के साथ देखा जाता था। प्रशासन और आला अधिकारी अगर अपने दफ्तर में पत्रकार को देख लेते थे तो कुर्सी छोड़ कर खड़े हो जाते थे। आज हालत यह हैं कि पत्रकार किसी खबर पर पक्ष जानने के लिए घंटों अधिकारियों के यहां बैठा रहता मगर कोई उन्हें जवाब नहीं देता। मीडिया की इस दशा की जिम्मेदारी किसकी है, मीडिया की विश्वसनीयता गिराने वाले कौन है, कौन फर्जी पत्रकारों को संरक्षण दे रहा है, कौन मीडिया का उपहास उड़ा रहा है, किसने मीडिया को कॉरपोरेट घरानों की बांदी बना दिया, किसने मीडिया के सम्मान को गर्त में डालने का काम किया। ऐसे बहुत से यक्ष प्रश्न है जिनके जवाब अगर नहीं तलाशे गए तो मीडिया का वजूद बहुत जल्दी खत्म हो जाएगा।

  • नरेन्द्र कुमार वर्मा
    वरिष्ठ पत्रकार
    दिल्ली

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