ज़िन्दगी फिर से सीखेगी उठकर चलना और अभाव में जीना

देश में सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा, बहुत कुछ बदल गया है। हालात, ज़िन्दगी को मौत के दरवाजे तक खींचकर ले आए हैं। स्मृति पटल पर अंकित पुराने मानचित्र को लेकर संघर्षों के दुर्गम सघन जंगल में एक नवीन सुगम पथ का निर्माण करना है। क्या लग रहा है कि एक बार फिर से उन्हीं सरल सुगम रास्तों पर लौट सकेगी ज़िन्दगी ? जीवन पहले जैसा आसान होगा और हालात सुधरेंगे ? तो फिर आप निश्चित ही सपनों के पखों पर सवार, परियों के देश में हैं। यह सब दिमाग से बिल्कुल ही निकाल दीजिए कि जिंदगी फिर से सुगम और सरल हो जाएगी। वैसे हम भगवान भरोसे जीने वाले देश के प्राणी हैं। आस्थाओं और मान्यताओं की काल्पनिक दुनियां में जीते हैं, और सुख-दुःख, सफलता-असफलता सब कुछ हरि इच्छा के नाम कर देते हैं। हमारी इसी कमजोर रग पर हाथ रखते हुए, मान्यताओं को ढाल बनाकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने कह दिया है कि देश में जो हालात हैं, वह ‘एक्ट ऑफ गॉड’ है… मतलब भगवान की मर्जी पर है। अर्थात, सब कुछ भगवान भरोसे है।

वैसे, तो हमारे ज्यादातर लोगों को जीडीपी क्या होती है, इसकी बिल्कुल समझ नहीं है। समझने से फायदा भी क्या। ठोस बुद्धि जनता समझती है कि जितना दिमाग जीडीपी समझने लगायेंगे, उतना दिमाग दो जून की रोटी कमाने में लगा लेंगे, तो जीवन सफल हो जाएगा। लेकिन फिर भी देश की अर्थव्यवस्था के बारे में जानना जरूरी है, तो आइए, सबसे पहले जानते है कि यह जीडीपी क्या बला है।

दरअसल, जिस तरह स्कूल की मार्कशीट से पता चलता है कि छात्र किस विषय में कुशल है और किसमें अकुशल ! ठीक उसी तरह जीडीपी हमारी अर्थव्यवस्था की आर्थिक गतिविधियों का आंकलन है। अगर जीडीपी डेटा कम हो रहा है, तो मतलब यह है कि देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। क्योंकि पिछले साल के मुकाबले इस अवधि में समुचित एवं पर्याप्त उत्पादन नहीं हुआ और सेवा क्षेत्र में भी काफ़ी हद तक गिरावट रही है। इसीलिए जीडीपी का कम होना, मतलब बरबादी की तरफ बढ़ना प्रदर्शित होता है। पिछली 31 अगस्त को जीडीपी को लेकर अप्रैल, मई और जून, तीन महीनों के जो आंकड़े जारी हुए हैं, वो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही चिंताजनक हैं। क्योंकि जीडीपी का यह ग्राफ शून्य यानी भूतल से भी बहुत नीचे, 23.90 फीसदी नीचे गिर गया है।

अर्थशास्त्रियों ने इस विषय में सरकार को बहुत पहले से चेतावनी देना शुरू कर दिया था। बताया था कि चार साल से देश की जीडीपी लगातार गिरती जा रही है। सन 2016 में हमारी जीडीपी साढ़े 8 और साढ़े 9 फीसदी पर थी। लेकिन, लगातार गिरते-गिरते आधार लाइन अर्थात शून्य से भी 23.90 फीसदी नीचे पहुंच गई। मतलब, हमारी जीडीपी रसातल में पहुंच गई है। मृग मरीचिका के रेगिस्तान में आधार हीन मुद्दों पर भटकाने वाली सरकार ने, एक डूबते जहाज पर अनुभवहीन पोतवाहक की तरह, जीडीपी को सिर्फ गिरते हुए देखने का काम किया, उसे बचाने, स्थिर करने या उठाने का कोई प्रयास ही नहीं किया।

अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार की तरफ से खपत बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए थे, जबकि सरकार डिमांड बढ़ाने की कोशिश करती रही। कोरोना तो बहाना है, अगर नहीं आता, तो भी तो हम गिर ही रहे थे। बचने के कोई हालात नहीं थे। मारवाड़ी में एक कहावत है – ‘रोने को हो रही थी, और पीहरवाले आ गए ! सो, रोने का बहाना भी मिल गया’। सरकार को अपनी नाकामियों के चलते जीडीपी की बरबादी का ठीकरा, कोरोना के माथे फोड़ने का बहाना मिल गया। हम गिरते फिसलते गढ्ढे की तरफ जा रहे थे, कि उसी समय कोरोना ने टक्कर मारी, तो खड्डे में गिरते हुए गहरी खाई क्या, कुएं में ही जा गिरे।

वित्त, व्यापार, उद्योग, बाजार, उत्पाद, व्यय, लागत, मुनाफा और ऐसे ही बहुत सारे तत्वों को मिलाकर जो कुछ बनता है, उस अर्थ जगत के जानकारों की राय में भारत जैसे अल्प और मध्यम आय वाले देश के लिए साल दर साल जीडीपी का विकास हासिल करना, बेहद जरूरी है, जिससे कि देश की बढ़ती हुई आबादी की महत्त्वपूर्ण जरूरतों को पूरा किया जा सके। बीते चार सालों से लगातार नौकरियां जा रहीं थीं और व्यापार भी बरबाद हो रहा था। लेकिन कोरोनाकाल में लॉकडाउन की वजह से जब एक ही झटके में सारे धंधे बंद हुए, तो 22 करोड़ लोग बेकार हो गए। अप्रैल से जून के तीन महीनों में ही 1 करोड़ 89 लाख लोगों की नौकरियां छिन गईं। परिस्थिति वश, 3 करोड़ से ज्यादा लोग आधी तनख्वाह पर काम करने को मजबूर हैं। सरकारी क्षेत्रों और संस्थानों में बढ़ते निजीकरण के कारण यह हालात आनेवाले समय में और भी बदतर रहेंगे।

बाजार खुल गये, खरीदारी शुरू हो गई, ऐसे में व्यापारी भी किसी हद तक खुश हैं। लेकिन यह खुशी कुछ ज्यादा लंबी नहीं होगी। क्योंकि जब खरीदने के लिए लोगों के पास पैसा ही पैसा नहीं होगा, तो बिकेगा क्या ? और जब बिकेगा ही नहीं, तो उत्पादन क्यों होगा ? इसलिए अव्वल तो हमारी कंपनियां अब 5 – 7 साल से पहले अपनी पुरानी ग्रोथ फिर से पाने की उम्मीद में ही नहीं हैं। फिर, यह भी तय है कि आने वाले 5 सालों में देश में ही नहीं दुनियां भर में शिक्षित बेरोजगारों की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी होने वाली है। क्योंकि इन सालों में शिक्षण संस्थानों से जो छात्र पढ़ लिखकर बाहर निकलेंगे, उनको रोजगार कहीं नहीं मिलेगा। वह बेरोजगारी देश को कहां और किस दिशा में ले जाएगी, कोई नहीं जानता !

सत्य तो यह भी है कि देश में 15 लाख करोड़ की उत्पादक गतिविधियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी। साथ ही भारत में 26 फीसदी डिमांड भी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। ऐसे में, जो भारत आने वाले दिनों में हमारे सामने होगा, वह वैसा तो बिल्कुल नहीं होगा, जैसा कि 2020 के फरवरी और मार्च तक था।

दिल्ली, मुंबई सहित देश के दूसरे शहरों और कस्बों में सुबह शाम करोड़ों लोगों का बाजारों में टहलने, अनाप शनाप खर्च करने और बड़े-बड़े मॉल व रेस्टोरेंट में बेतहाशा पैसा उड़ाने के दृश्य आगे के समय में अब शायद भूले-भटके ही दिखें। हालात बहुत डरावने होने वाले हैं। फिर भी अगर आप मानते हैं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा, तो सचमुच ही आप धन्य हैं और कृपा पात्र अन्धभक्त हैं। निर्मला सीतारामन ने आप जैसों के लिए ही कहा है कि यह सब ईश्वर की मर्जी है। हमारे कर्मवीर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पुण्य आत्मा सरकार भी शायद ईश्वर की इसी दैवीय अनुकम्पा पर मौनवृत धारण किए, किसी विशेष अवतार की प्रतीक्षा में है !

– एन0 के0 शर्मा

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