अधूरी कहानी अधूरा फसाना, किसानों का यह दर्द पुराना”

प्राचीन काल में जब दो राजा परस्पर युद्धक्षेत्र में युद्ध करते थे, तो हजारों निर्दोष सैनिक और नागरिक मारे जाते थे और शेष प्रजा विजेता राजा के ऊपर आश्रित हो जाती थी । यदि राजा अच्छा होता था, तो प्रजा में हर्ष रहता था और दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा के मध्य शोक-विषाद की लहर चलती थी । वस्तुतः इस प्रजा के रूप में ग्रामीण परिवेश में कार्य करने वाले श्रमिक वर्ग बहुसंख्यक था और उसमें भी किसानों की संख्या अधिक थी। इसका प्रमाण यह है कि तत्कालीन भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप “बन्द अर्थव्यवस्था” अर्थात् “क्लोज्ड इकॉनमी” का था। कुछ काल खण्ड के उपरान्त भारत में विदेशी आक्रान्ताओं का आगमन हुआ और उन्होंने भारतीय ग्रामीणांचल में निवास कर रहे किसानों और श्रमिकों का भरपूर शोषण किया । यह कहानी वर्ष 1947 तक जारी रही, क्योंकि कहा जाता है कि अंग्रेजों का वश चलता, तो वे जमीन पर स्वतःस्फूर्त घास पर भी टैक्स लगा देते । यह भूमिका वर्तमान के किसान आन्दोलन से भी सम्बन्ध रखती है, इसलिए प्रासंगिक है। आजादी के 73 वर्ष बाद भी किसान सडकों पर आया हुआ है ।

असल में बात यह है कि आज तक की सरकारों ने किसानों के लिए मात्र वोटबैंक की ही राजनीति की है । उनके हितों पर घडियाली आंसू बहाते हुए समय-समय पर कुछ समितियां बना दी जाती हैं, लेकिन उनकी सिफारिशें नहीं मानी जाती हैं । इस सन्दर्भ में कृषि पर स्वामीनाथन रिपोर्ट एक प्रमुख उदाहरण है । यद्यपि वर्तमान केन्द्रीय सरकार के मंसूबे किसानों के हितों में दिखाई देते हैं, तथापि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर इन कानूनों में भी पूर्व की भांति अस्पष्टता नजर आ रही है । वर्तमान में पिछले कई दिनों से भारत के अनेक राज्यों के किसान दिल्ली सीमा के चारों ओर आन्दोलित हैं। इस व्यापक आन्दोलन के कारण सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। इस आन्दोलन का कारण हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा पारित तीन महत्त्वपूर्ण कृषि विधेयक हैं ।
आज भारत की अर्थव्यवस्था भले ही पांच ट्रिलियन से ज्यादा की है, लेकिन वर्तमान में भी किसानों फटे-पुराने मलिन वस्त्रों से ही पहचाना जाता है । जबकि वास्तविकता यह है कि कोरोना महामारी में भारत को सर्वाधिक स्थायित्व तथा जीवन-संरक्षण ग्रामीणांचल से ही प्राप्त हुआ है। ध्यातव्य है कि किसानों की दोगुनी आय करने के विषय में सरकार अवश्य निर्देश जारी करती रहती है, किन्तु ये निर्देश उनके हित संरक्षण हेतु नाकाफी हैं। इन सबके मध्य अन्नदाताओं की कुछ समस्यायें हैं, जैसे- किसानों को नकदी फसल गन्ने का समय पर पेमेन्ट न होना, लाइन में लगे-लगे ट्रकों और ट्रैक्टर-ट्रालियों में गन्ने का वजन कम हो जाता है। जिसकी भरपाई कोई नहीं करता है और उसकी हानि किसान को ही उठानी पडती है। आयुर्वेदिक औषधियों की बात की जाये, तो बाजार में शतावरी का 50 ग्राम चूर्ण 200 रूपये से अधिक में मिलता है, जबकि व्यापारी वर्ग किसानों से शतावरी को लगभग 300 रुपये प्रतिकिलो के हिसाब से खरीदारी करता है। किसान के खेतों में जैविक रूप से उगाई गई शिमला मिर्च किसान 15-20 या 30 रुपये/प्रतिकिलो बेंचता है, जबकि अर्द्धनगरीय या नगरीय बाजार क्षेत्रों में इसी शिमला मिर्च का भाव न्यूनतम 60-70 रु./प्रतिकिलो से ज्यादा का होता है। यही हालत गेहूं, धान, दाल, फल तथा फूलों के सम्बन्ध में भी है । जब किसान आलू की फसल हेतु बीज खरीदने जाता है, तो उसका दाम मंहगा होता है और जब आलू खेत में तैयार होता है, तो वह सस्ता होता है । किसान अपने खेतों में रबी-खरीफ और जायद के मौसम में पचासों प्रकार की फसल पैदा करते हैं, किन्तु औपचारिक रूप से एमएसपी मात्र 23 फसलों पर ही दिया जाता है। अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि किसान को किस प्रकार के घाटे का सामना करना होता है और किसानों की भारत में दुर्दशा क्यों है।

इस प्रकार की अन्यान्य समस्याओं से किसानों को प्रतिदिन दो-चार होना होता है। कभी उनके लिए लालफीताशाही घाटे का सौदा होती है, तो कभी उनके मंडियों में व्याप्त भ्रष्टाचार का शिकार होना होता है। वर्तमान में मुख्य समस्या एम.एस.पी. को लेकर है । इस सन्दर्भ में निष्पक्ष रूप से केन्द्र सरकार का कर्तव्य है कि किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तथा उनके हितों का संरक्षण करने के उद्देश्य से एक निश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण की बात करनी चाहिए। यद्यपि यह इस विधेयक में यह तथ्य किसानों के हित में है कि वे कार्पोरेट सेक्टर से सीधी बात करके अपनी फसल बेंच सकते हैं, किन्तु इसके विषय में भी एक न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की आवश्यकता है। जिससे किसानों का दोहन होने से उन्हें बचाया जा सके। इसके साथ ही इस सन्दर्भ में कुछ दण्ड निर्धारण की भी आवश्यकता है कि यदि किसी कार्पोरेटर ने या आढतिये ने एमएसपी से कम मूल्य पर किसानों से उपज खरीदने हेतु उन्हें मजबूर किया, तो कुछ निश्चित समय तक कारावास अथवा धनदण्ड दिया जा सकता है।
पूर्व की सरकारों ने किसानों को वोट बैंक मानकर उन्हें फसली कर्ज चुकाने हेतु समर्थ बनाने में दोइलचस्पी न लेकर उन्हें कर्जमाफी का झुनझुना पकडाया और देश की अर्थव्यवस्था को घाटे मे धकेल दिया। यद्यपि कृषि विधेयक पूर्व में भी बनाये गये हैं, तथापि उनसे अभी तक किसानों की आय में स्थिर-लाभ देखने को नहीं मिला है। यदि इन तीनों विधेयकों की बात की जाये, तो इन कृषि विधेयकों में से कुछ कार्य तो केन्द्र सरकार के सराहनीय हो सकते हैं, किन्तु कुछ बिन्दुओं की अस्पष्टता से किसानों के अन्दर भय व्याप्त है। इस भय के व्याप्त होने का कारण कानूनी अस्पष्टता के साथ-साथ विभिन्न राजनैतिक दलों की राजनैतिक रोटियां सेंकना भी है और किसान आन्दोलन को बदनाम करने के उद्देश्य से खालिस्तानी समर्थकों की देशविरोधी गतिविधियां भी शामिल हैं। सरकार इस सम्बन्ध में अवैध और असामाजिक तत्त्वों की पहचान कर उन्हें दण्डित करने का कार्य भी कर सकती है। इन सबके मध्य ट्विस्ट की बात यह है कि योगेन्द्र यादव, अरुन्धति राय जैसे मौसम की तरह बदलने वाले नेता किसान आन्दोलन की आड में अपनी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं।

डॉ. हरिराम मिश्र
प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली

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