पूर्णिया/ बिहार – मोदी सरकार ने साढ़े चार साल में करीब 5000 करोड़ रुपये इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट के विज्ञापनों पर ख़र्च किए हैं. मनमोहन सिंह की पिछली सरकार साल में 500 करोड़ ख़र्च करती थी, मौजूदा सरकार साल में करीब 1000 करोड़ ख़र्च कर रही है.
अब ये आकंड़ा लगाना मुश्किल होता है कि देश मे विकास हो रहा है या फिर विज्ञापन , कही स्टेचू ऑफ यूनिटी के नाम पर , तो कहीं राम मंदिर के नाम , हर जगह एक ही प्रकार की खबरे सुनाई या फिर दिखाई जा रही है , आज कोई भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , या सत्ता में बैठे लोग देश की विकास , बेरोजगारी भुखमरी, किसानी,भ्रष्टाचार, महंगाई, कला धन की बाते नही करते , 35 लाख लोग इन विज्ञापनों में उस उम्मीद को खोज रहे होंगे, जो उन्हें नोटबंदी की रात के बाद मिली थी. बोगस धारणा परोसी गई कि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग सरकार के इस फैसले के साथ है. क्योंकि उसके पास कुछ नहीं है. एक चिढ़ है जो अमीरों को लेकर है.
विज्ञापनों का यह पूरा हिसाब नहीं है. अभी यह हिसाब आना बाकी है कि 5000 करोड़ में से किन किन चैनलों और अख़बारों पर विशेष कृपा बरसाई गई है और किन्हें नहीं दिया गया है.
गरीब लोगों के द्वारा दिया गया सरकार को टैक्स के रूप में रकम सत्ता धारी सरकार अपने मनमानी ढंग से खर्च कर देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रही हैं , 35 लाख लोग इन विज्ञापनों में उस उम्मीद को खोज रहे होंगे, जो उन्हें नोटबंदी की रात के बाद मिली थी. बोगस धारणा परोसी गई कि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग सरकार के इस फैसले के साथ है. क्योंकि उसके पास कुछ नहीं है. एक चिढ़ है जो अमीरों को लेकर है
पर इसका क्या अर्थ निकल कर सामने आया , आज तक भरतीय रिज़र्व बैंक नोट बंदी के पुराने नोटों को गिन नहीं पाई है । और इसका सटीक जानकारी देने में असमर्थ हो रही है । वर्तमान सरकार अपनी राजनीति को चमकाने में बेहिसाब सरकारी रकम को विज्ञापन में खर्च कर रही है , पर वो इस बात को भूल गई हैं कि जनता बेवकूफ बनाना इतना आसान नही है।
– शिव शंकर सिंह ,पूर्णिया, बिहार