बाड़मेर/ राजस्थान- हमारे कई अच्छे मित्र हर समय ऐसे लोगों के बारे में समय समय पर लिखते रहते हैं, जो अपनी सतही बातों या खुराफाती गतिविधियों से हमेशा सनसनी मचाते हैं या कोई निरर्थक विवाद पैदा करने की कोशिश हमेशा करते रहे हैं। इनमें कोराना भड़भड़ी के दौरान ‘सत्ता-भक्तों’ की बड़ी संख्या है, इनमें कुछ बॉलीवुड हालीवुड से भी जुड़े हुए हैं।
बॉलीवुड-कनेक्शन के चलते समाज के एक हिस्से में उनकी पहले से ही पहुंच रही है। अपने प्रोफेशनल काम से जनता के एक हिस्से में मिली वाह-वाही का पिछले कुछ सालों से वे बेशर्मी के साथ दुरुपयोग करते रहे हैं और लोगों की नजरों में झूठ के प्रचारक तक बन जाते हैं। इनमें कुछ इसके लिए इस कदर कुख्यात हो चुके हैं कि लोगों में उनके प्रोफेशनल काम का भी अब कोई खास असर नहीं रह गया है। मैं ऐसे तत्वों पर बिल्कुल नहीं लिखता हूं। मैं उन्हें इस लायक नहीं समझता कि उनका नाम लेकर उनकी मूर्खताओं और मूढताओं पर दो चार शब्दों को अपनी क़लम से लिखूं।
यहां पर शब्दों का ही अपमान होगा, मैं शब्द को ‘ब्रह्म’ नहीं कहता, जैसा बहुतेरे साहित्य-साधक हमेशा कहा करते हैं।किसी ‘ब्रह्म’ ने कभी ऐसा कहा होगा तो संस्कृत और हिन्दी वाले बहुतेरे ‘प्रकांड-अकांड पंडित’ कहने लगे ।
पर मैने तो शब्दों को हमेशा अपने जीवन में प्रकृति और मनुष्य के आसपास महसूस किया। शब्द किसी कथित ब्रह्म से नहीं, प्रकृति और मनुष्य के सदियों तक चले नि:शब्द संवाद से सृजित हुए हैं। मौन के दौर को लांघने की लंबी साधना से निकले हैं शब्द, वे भी मनुष्य के श्रम और संवेदना की रचना हैं इसलिए शब्द ही सबसे ज्यादा सुंदर हैं।
फिर इन सुंदर शब्दों का प्रयोग आजकल अकारथ क्यों ?
मनुष्यता की इतनी बड़ी थाती या सम्पदा का उपयोग हमेशा मनुष्यता के पक्ष में होना चाहिए। मनुष्यता को नष्ट और सभ्यता को संकट में डालने वाली निरंकुश-शक्तियों के विरुद्ध शब्द अगर शोला बनकर सामने आयें तो आने दीजिये, पर मनुष्यता को संकट में डालने वाली नकारात्मक शक्तियों के लिए मूर्खता के तमाम कीर्तिमान तोड़कर झूठ और सिर्फ झूठ बोलने वाले निकृष्टतम पिद्दियों के लिए अपने शब्दों को अकारण क्यों खर्च किया जाये! शब्द और शब्दों का मकड़जाल मेहनत से संचित हमारी अटूट सम्पदा हैं।
बीते दो-तीन सालों से बॉलीवुड या अलग-अलग क्षेत्र के बहुतेरे ‘लघु-मानव’ समाज और सभ्यता को गंभीर क्षति पहुंचाने वाली निरंकुशता और बर्बरता की शक्तियों के पक्ष में तरह-तरह की हास्यास्पद हरकतें करते रहे हैं। विचित्र-विचित्र बयान सोशल मीडिया और हाईटेक प्रणाली के साधनों पर देते रहे हैं उनमें ज्यादातर की बातें और हरकतें इतनी भौड़ी, वाहियात और जाहिलपन भरी रहीं कि उन पर सिर्फ हंसा जा सकता है। आम लोगों की भी उनके बारे में हमेशा ऐसी ही राय है, फिर उन पर अपने शब्दों को क्यों जाया किया जाय ?
हमने दुनिया के अनेक देश विदेशों और समाजों में देखा है कि वहां के बुद्धिजीवी, अभिनेता-अभिनेत्रियां और कलाकार अपने देश या दुनिया के किसी भी हिस्से में बड़ा संकट उत्पन्न होने की स्थिति में हमेशा स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समानता और भ्रातृत्व के महान् मानवीय मूल्यों के पक्ष में उतरते रहे हैं। हमारे देश में भी ऐसा देखा जा चुका है, स्वतंत्रता आंदोलन और आपात्काल के दौरान अनेक कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने भारी जोखिम लेकर सच, स्वतंत्रता और लोकतंत्र आदि का साथ दिया। लेकिन सिर्फ अपने निजी स्वार्थ, निजी कमाई, वैभव और सरकारी संरक्षण के लिए निरंकुश सत्ताधारियो की विरुदावली गाने वालों की भी कमी नहीं रही आजकल।
अपने ही देश में देख लीजिए, एक थे देवकांत बरुआ. हाल के कुछ वर्षो में तरह-तरह की ‘चिरकुटई’ करने वाले बॉलीवुड के कुछ ‘लघु-मानवों’ की तरह वह ‘अपढ़’ भी नहीं थे. काफ़ी पढे-लिखे थे बरुआ साहब. आज कहां है उनका नाम? इतिहास के कूड़ेदान में ! आज के इन लघु मानवों को तो कूड़ेदान में भी जगह नहीं मिलेगी।
हमारे अपने शब्दों की भी कुछ मर्यादाएं है, सत्ता के पोषक होने के बावजूद जिन ‘लघुमानवों’ को ट्विटर जैसे बड़े पूंजीवादी संस्थान द्वारा संचालित सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म ने भी प्रतिबंधित कर रखा है, उन्हें ‘अज्ञान के आनंदलोक’ में ही विचरने दें! उनसे तर्क वितर्क, विवेक और ज्ञान की बातें या संवाद की बात सोचना भी व्यर्थ है। संवैधानिकता, लोकतंत्र, समता और भ्रातृत्व के मूल्यों में यक़ीं करने वालों को ऐसे तत्वों पर हमारे को समय नहीं गंवाना चाहिएं ओर उन्हें अपनी बात ठोस मुद्दों पर करनी चाहिये, जैसा बहुत सारे मित्र बहुत शिद्दत के साथ कर रहे हैं। लोगों से सीधा संवाद होना चाहिए. हमारे समाज में ‘गहन है यह अंधकारा—-!’