नई दिल्ली- भारी विरोध और विपक्षी दलों की कड़ी आपत्ति के बावजूद राज्यसभा में भी आरटीआई संशोधन बिल 2019 पास हो गया। विपक्ष इसे सिलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग कर रहा था लेकिन इस पर हुए मतदान में विपक्ष को 117 के मुक़ाबले 75 मत ही मिले।
राष्ट्रपति की मुहर के बाद आरटीआई में संशोधन लागू हो जाएगा। नए संशोधन के तहत केंद्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी। साथ ही सूचना आयुक्तों का सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर का दर्ज़ा भी ख़त्म हो जाएगा।
विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का कहना है कि सरकार ने आरटीआई एक्ट को कमज़ोर करने के लिए संशोधन किया है जबकि न तो इसमें बदलाव की कोई मांग थी और ना ही ज़रूरत।
हालांकि सरकार इन आरोपों को ख़ारिज कर रही है कि आरटीआई संशोधन बिल से इसकी स्वायत्तता कमज़ोर होगी। कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह का कहना है कि इस तरह के आरोप बेबुनियाद हैं और इनका कोई आधार नहीं है। उन्होंने कहा कि नियम कैसे बनाए जाएं, उसके लिए संशोधन अनिवार्य था। सेक्शन 27 में संशोधन लाया गया है। आरटीआई की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का संबंध सेक्शन 12 (3) से है। इसके साथ सरकार ने कोई छेड़छाड़ नहीं की है।
आरटीआई एक्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है कि केंद्र सरकार बिना कारण इस क़ानून को कमज़ोर करने में लगी हुई थी। वो कहते हैं कि केंद्र और राज्य के चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें केंद्र सरकार जब तय करेगी तो स्वायत्तता कहां रह जाएगी। ये संघीय प्रणाली पर भी एक बहुत बड़ा आक्रमण है।
निखिल डे के अनुसार अभी तक सूचना आयुक्तों का दर्ज़ा चुनाव आयुक्तों और सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर था। इसका मतलब ये था कि अगर इन्हें किसी भी सरकारी महकमे से सूचना निकालनी होती थी तो ये दर्जा उन्हें सक्षम बनाता था। उन्होंने बताया कि आरटीआई एक्ट की धारा 13, 16 और 27 में संशोधन किया गया है। ये वो प्रावधान हैं जो आरटीआई आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल और उनका दर्ज़ा निर्धारित करते हैं।
भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला समेत कई मुख्य सूचना आयुक्तों ने सरकार से इस संशोधन बिल को वापस लेने की अपील तक की थी। उनका कहना है कि इस संशोधन से सूचना आयुक्तों की ख़ुदमुख़्तारी पर असर पड़ेगा। वो कहते हैं कि सूचना आयोग के सामने जो 90 फ़ीसदी मामले आते हैं उनमें सरकार से ही सूचना लेकर लोगों को दिया जाता है लेकिन अगर उसी सरकार को आयुक्तों की सेवा शर्तें तय करने का अधिकार दे दिया गया है तो ज़ाहिर है कि इस क़ानून में कमज़ोरी आ गई है।
साल 2005 में जबसे ये क़ानून बना है लोग सरकारी सूचनाओं को नियत समय में पाने के हक़दार बन गए हैं। इस क़ानून के सहारे सरकार के अंदर की कई महत्वपूर्ण सूचनाएं सामने आईं, जिनका संबंध लोगों से व प्रशासनिक महकमे से था। आरटीआई एक्ट ऐसा पहला क़ानून है, जो क़रीब डेढ़ दशक में ही एक जनांदोलन बन गया और आम लोग ख़ुद को सशक्त महसूस करने लगे थे।
इधर निखिल डे का कहना है कि इस संशोधन के ज़रिए सरकार ने इस क़ानून की रीढ़ पर आक्रमण किया है और इससे पूरा क़ानून ही कमज़ोर होगा। बदले हुए आरटीआई एक्ट के तहत सूचना आयुक्तों क्या पहले की तरह काम कर पाएंगे, इस पर वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं कि सूचना आयुक्त जिस हैसियत से फ़ैसले देते थे, अब वो ऐसा नहीं कर पाएंगे।
वो कहते हैं कि अफ़सोस की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद कहा था कि सरकार को आयोगों से अपनी कमज़ोरियां पता करने की ज़रूरत है। ये सरकार के लिए बहुत ज़रूरी था कि इस आयोग की ताक़त बरक़रार रहे। सत्तारूढ़ दल विपक्ष को लगातार ये भरोसा दिलाने की कोशिश करता रहा है कि वो इसका दुरुपयोग नहीं होने देगा लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि एक कमज़ोर सूचना आयोग को सरकारी महकमे सूचना देने में कितना तवज्जो देंगे।
लोग मानते रहे हैं कि आज़ादी के बाद सरकार पर लोगों की निगरानी का एक बड़ा हथियार रहा है। आरटीआई और इसने लोकतंत्र को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाई है।
निखिल डे का कहना है कि आज की तारीख़ में इस देश में 60 से 80 लाख लोग सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक 80 आरटीआई एक्टिविस्ट इसके लिए अपनी जान गंवा चुके हैं। लोग मोहल्ले की राशन की दुकान से सूचनाएं मांगते हुए पूरे देश का हिसाब मांगने लगे और देश के सबसे बड़े दफ़्तरों पर भी जनता की निगरानी बढ़ी।
उनके अनुसार, जिस नोटबंदी के आंकड़े सरकार देने से मना करती रही या चुप्पी लगाए रही, उसकी सूचनाएं सिर्फ़ आरटीआई से बाहर आ पाईं। राजस्थान में 10 लाख पेंशनभोगियों की पेंशन बंद कर दी गई थी. आरटीआई से जानकारी आई कि वे सभी ज़िंदा हैं, मरे नहीं हैं जैसा कि सरकारी काग़ज़ में दिखाया जा रहा है।
निखिल डे कहते हैं कि छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा मामला भी आरटीआई के दायरे में आने से लोगों को काफ़ी आसानी हुई थी।