उत्तराखंड/पौड़ी गढ़वाल-माननीय सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत जी, देहरादून में इन दिनों किसी भी गली या सड़क से गुजरता हूं तो आपके पोस्टर और बड़े-बड़े होर्डिंग देख मन गदगद हो जाता है। आपने मलिन बस्तियों के हजारों लोगों के लिए जो अध्यादेश लाने का काम किया है वह तारीफ का काम है। किसी भी बसे हुए को उजाड़ना राजधर्म नहीं है। यह ठीक किया। सुना है कि अब आपके लिए धन्यवाद रैली होगी। इसका भी स्वागत है। आपके सार्वजनिक जीवन पर अधिक इल्जाम नहीं हैं और आपको एक सीधा-साधा, ईमानदार और कर्मठ नेता माना जाता है। इसका भी हमें सुखद अहसास होता है।
मैं पत्रकार हूं और आपकी समस्याओं को समझ सकता हूं। घोर दबाव और राजनीतिक अड़चनों की बात समझ पा रहा हूं। लोग, भले ही आपको कह रहे हों कि आपने अध्यादेश लाकर गलत किया, लेकिन मैं इसका पक्षधर हूं। मैं मलिन बस्तियों में जाता हूं, उनकी समस्याएं सुनता हूं। उनके दुखों को जानता हूं। उनको गलत बसाया गया, उनको वोट बैंक बनाया गया। आपकी कोई गलती नहीं है। दरअसल लोकतंत्र है। लोकतंत्र में मलिन बस्तियों के 20 फीसदी लोग 100 फीसदी वोट देते हैं और 80 फीसदी जनता 20 फीसदी वोट भी नहीं देते। तो नेता किसका पक्ष लें?
बस, मैं आपका थोड़ा सा ध्यान मलिन बस्तियों से हटाकर अपने पहाड़ की ओर ले जाना चाहता हूँ। हमारे बुजुर्गों ने दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद जैसे शहरों में चाय की दुकानों, होटलों और कोठियों में काम किया है। उनका संघर्ष बहुत जटिल रहा है। वे बहुत कम पढ़े लिखे थे क्योंकि पारिवारिक जिम्मेदारियां तब बहुत होती थी। संयुक्त परिवारों का जमाना था और सदभाव का भी।
यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि उनके कष्टों के बाद हमारी पीढ़ी आई और कुछ पढ़-लिख गये। कुछ अच्छे दिन आने लगे। अब हमारी भावी पीढ़ी का पहाड़ों से नाता नहीं रहा और जो पर्वतीय जिलों में रह रहे हैं वो घनीभूत पीड़ा से गुजर रहे हैं। गांव में अभाव तो है ही, जीवन दाँव पर भी है। आसमान में घुमड़ते बादल देख कई गांवों के लोगों की नींद उड़ जाती है। भूस्खलन या बादल फटने की आशंका से रात भर सो नहीं पाते हैं।
आप दून की 129 बस्तियों के लिए महज 15 दिन में अध्यादेश ले आए, लेकिन विडम्बना है कि इस राज्य में पिछले 18 वर्षों के दौरान विकास से कोसों दूर 380 से भी अधिक पर्वतीय गांवों के लिए कोई अध्यादेश नहीं ला सका। ये गांव विस्थापित होने हैं। कुछ गांव टिहरी डूब क्षेत्र के हैं तो कुछ उत्तरकाशी ईको सेंसिटिव जोन के तो कुछ रुद्रप्रयाग, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों के आपदाग्रस्त गांव। केदारनाथ आपदा में जमीन में धंसा सेमी गांव आज तक विस्थापित नहीं हो सका है। यहाँ आपदा में बहे पुल नहीं बन सके। ट्रालियां खींचने से स्कूली बच्चों के हाथ कट जाते हैं। मान्यवर, क्या यह संभव नहीं है कि एक अध्यादेश इन गांवों के लिए लाया जाता? क्या खैरासैंण के सूरज की कुछ किरणें पहाड़ की वादियों और घाटियों में नहीं पड़नी चाहिए?
आपको याद होगा, मधुबन होटल में जिस दिन डा. एनएस बिष्ट द्वारा आप पर लिखी किताब खैरासैंण के सूरज का लोकार्पण किया था, उस दिन पदमश्री बसंती बिष्ट ने कहा था, विरले ही इतिहास बनाते हैं, पहाड़ मर रहा है, उसे आबाद करने के लिए कुछ किरणें वहां भी फैला दो। अपनी संस्कृति और सभ्यता को बसा दो।
बस, मुझे आपसे विनम्रता से यही कहना है कि कम से कम जो गांव विस्थापित होने हैं, उनको तो बसा दो, मलिन बस्तियों की तरह। पहाड़ आपके गुणगान करेगा। आपकी नीयत में कोई खोट नहीं है। चरित्र पर दाग नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आपकी सराहनीय पहल है, लेकिन माननीय मुख्यमंत्री जी, हम बड़ी उम्मीद के साथ यह कहना चाहते हैं कि पहाड़ के गांवों को बसाने के लिए भी कुछ अध्यादेश टाइप का अधिनियम ले आएं तो अति कृपा होगी।
साभार- मोहित डिमरी
– उत्तराखंड से इन्द्रजीत सिंह असवाल की रिपोर्ट