जगद्गुरू शंकराचार्य जी के प्राकट्य दिवस पर किया यज्ञ और पूजन

* सनातन धर्म के ज्योर्तिधर जगद्गुरू शंकराचार्य जी के दिव्य प्राकट्य दिवस पर कोटि-कोटि नमन

*अद्वैत एक ऐसा मंत्र है, जहां मानव-मानव एक समान सब के भीतर हैं भगवान

* एकरूपता भले ही हमारे भोजन में और हमारी पोशाक में न हो परन्तु हमारे बीच एकता जरूर हो-पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज

उत्तराखंड /ऋषिकेश। सनातन धर्म के ज्योर्तिधर भारत की महान विभूति जगद्गुरू शंकराचार्य जी के दिव्य प्राकट्य दिवस पर पूज्य महामण्डलेश्वर स्वामी असंगानन्द सरस्वती जी महाराज, पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज और अन्य पूज्य संतों ने पूजन किया।
परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज ने हिन्दू धर्म को आध्यात्मिक ऊँचाई, सागर सी गहराई और गंगा सी पावनता प्रदान करने वाले जगद्गुरू, शंकराचार्य जी को कोटि-कोटि नमन करते हुये कहा कि ‘‘अद्वैत परम्परा, सनातन धर्म और भारत के चारों दिशाओं में ज्योर्तिपीठ, शृंगेरी शारदा पीठ, द्वारिका पीठ, गोवर्धन पीठ आदि चार पीठों की गौरवमयी परम्परा को स्थापित कर सनातन संस्कृति को जीवंत बनाने वाले अद्भुत श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष के अवतरण दिवस पर अनेकों प्रणाम।
पूज्य स्वामी जी ने कहा कि जगद्गुरू शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित चारों दिव्य मठ आज भी सेवा, साधना और साहित्य का अद्भुत संगम है। जगद्गुरू शंकराचार्य जी ने अद्वैत रूपी अनमोल सिद्धान्त दिया। अद्वैतवाद के सिद्धान्त से जितने भी वाद-विवाद हैं सब समाप्त किये जा सकते हैं। अद्वैत ही ऐसा मंत्र है जहां कोई गैर नहीं और कोई भिन्न नहीं। अद्वैतवाद के प्रणेता द्वारा दिया गया यह सूत्र भारत ही नहीं पूरे विश्व को एक नई दिशा व नई ऊर्जा दे सकता हैं। अद्वैत एक ऐसा मंत्र है ’’जहां मानव-मानव एक समान सब के भीतर हैं भगवान’’ का दर्शन होता है।
आदि गुरू शंकराचार्य जी ने छोटी सी आयु में भारत का भ्रमण कर हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोने हेतु इन जीवनपर्यंत प्रयास किया। तभी तो पूजा हेतु ‘केसर’ कश्मीर से तो ‘नारियल’ केरल से मंगाया जाता है। जल, गंगोत्री से और पूजा रामेश्वर धाम में की जाती है, क्या अद्भुत दृष्टि है। जगद्गुरू शंकराचार्य जी ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक, दक्षिण से उत्तर तक, पूर्व से पश्चिम तक पूरे भारत का भ्रमण कर एकात्मकता का संदेश दिया। उनके संदेश का सार यह है कि एकरूपता भले ही हमारे भोजन में और हमारी पोशाक में न हो परन्तु हमारे बीच एकता और एकात्मकता जरूर हो; एकरूपता हमारे भावों में हो, विचारों में हो ताकि हम सभी मिलकर रहें और एक रहें। किसी को छोटा, किसी को बड़ा न समझें, किसी को ऊँच और किसी को नीच न समझें। हमारे बीच मतभेद भले हो परन्तु मनभेद न हो। मतभेदों की सारी दीवारों को तोड़ने के लिये तथा छोटी छोटी दरारों को भरने के लिये केरल से केदारनाथ तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक आदिगुरू शंकराचार्य जी ने पैदल यात्रायें की।
जगद्गुरू शंकराचार्य जी ने ‘‘ब्रह्म सत्यम्, जगन्मिथ्या’’ का संदेश दिया। ’’ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया’’ का ब्रह्म वाक्य दिया। ’’अहं ब्रह्मास्मि’’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और सर्वत्र हूँ। जो आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित है। इसमें एकता और अभिन्नता का अद्भुत दर्शन है। ‘‘सर्वत्र हूँ, सब में हूँ के उद्घोष’’ ‘‘सब ब्रह्म है और सर्वत्र है’’ ये सूत्र प्राणीमात्र एवं प्रकृति के संरक्षण की भी प्रेरणा देते हैं।
पूज्य स्वामी जी ने कहा कि जगद्गुरू शंकराचार्य जी ने वैदिक धर्म और दर्शन को पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु अथक प्रयास किये। तमाम विविधताओं से युक्त भारत को एक करने में अहम भूमिका निभायी। वह भी ऐसे समय जब कम्युनिकेशन और ट्रांसपोर्टेशन के कोई साधन नहीं थे। ऐसे परम तपस्वी, वीतराग, परिव्राजक, श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सनातन धर्म के मूर्धन्य जगद्गुरू शंकराचार्य जी को हम कोटिशः प्रणाम करते हैं।

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