अखबार या समाचार पत्र अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा उदाहरण है पर दिनों दिनों समाचार पत्रों की घटती संख्या और शासकीय नियम कानून और कायदे के जटिलता के कारण मृत पाए होने की स्थिति में हैं। लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों की आखिर दुर्दशा के पीछे वह कौन है जो नहीं चाहते लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों जो जिले तहसील या ब्लॉकों से निरंतर व नियमित प्रकाशित होते हैं वह प्रकाशित हो सके आम जनता की आवाज बन सके जो क्षेत्रीयता की कला संस्कृति को बचा सकते हैं पर आज देखने को या आ रहा है कि जहां अखबारों को तो सरकार अभिव्यक्ति की आजादी मानती है परंतु जब किसी अखबार में सरकार की नीतियों की आलोचना होता है तो उस अख़बार को या उस अख़बार में कार्य करने वाले पत्रकारों को टारगेट कर उसे दंडित या फिर उसे फसाने का कार्य या उसे प्रलोभन देने का निरंतर प्रयास हो रहा है जिसका प्रमाण देश के विभिन्न राज्यों में दर्ज एफआईआर बताती हैं।
जहां पत्रिकारिता के नाम पर बड़े बड़े घरानों के अखबार दिन दूगनी रात चौगनी तरक्कती के साथ साथ अपने क्षेत्रफल को बढ़ाने के साथ-साथ प्रसार संखया में निरंतर बढ़ोतरी कर रही है पर वही इन बडे घरानों के अखबार पत्रकारिता के मूल व्यवसाय से हटकर हर तरीके के व्यवसाय जिसका की मकसद केवल लाभ और लाभ कमाने तक ही सीमित है। जहां पत्रकारिता का दायित्व एक सभ्य समाज तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने में आपनी महत्वपुर्ण भूमिका निभाती है वही आज के दौर में पत्रकारिता का अस्तित्व संकट की ओर है इसके लिए बहुत हद तक हम सब भी जिम्मेदार हैं एक और जहां सरकार द्वारा अखबारों पर श्रम नीति, मजीठिया बोर्ड लागू है जिसके तहत विभिन्न जिलों को विभिन्न श्रेणियों में बांट कर पत्रकारों और गैर पत्रकारों को वेतन देने की बात कही गई है जिसमें इस तरह के वेतनों का उल्लेख है जो लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों के प्रकाशकों व स्वामियों द्वारा किया जाना नामुमकिन सा लगता है फिर भी कई छोटे एवं लघु समाचार पत्र द्वारा इसका पालन करने की चेष्टा की जा रही है वही बड़े समाचार पत्रों के घरानों द्वारा प्लेसमेंट एजेंसियों से नियुक्ति कराई जा रही है एक और जहां सरकार द्वारा लगातार प्रिंट मीडिया के विज्ञापनों को छोटे आकार में प्रकाशित करने की हिदायत के साथ-साथ छोटे अक्षरों में प्रकाशित करने का निर्देश दे रही है वही छोटे से विज्ञापन देकर वेब साइटों में भी इसे प्रकाशित किया जा रहा है देखने को आया है कि कई राज्यों में वेब पॉलेसियांभी नहीं है, परंतु सरकार द्वारा करोड़ो रूपए का विज्ञापन इन्हे तथा शोसल मीडिया को परोसा जा रहा है जिससे प्रिंट मीडिया को पहले की तुलना में मिलने वाले विज्ञापनों की राशियों में भारी कटौती हो गई है एक और जहां लगातार प्रिंट मीडिया के खर्चों में बढ़ोतरी हो रही है जिसमें कागज जो कि जीएसटी लगने के बाद करीब 25 से 30 प्रतिशत तक महंगे हो गए हैं वही स्याही प्लेट सहित अन्य केमिकल्स के दामों में भी करीब 20 से 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापनों में लगातार 40 से 50 प्रतिशत की कमी आई है सरकार को यह सोचना चाहिए की प्रिंट मीडिया ना केवल समाज का आईना है बल्कि लोगों को रोजगार देने का एक जरिया भी है अखबार में न जाने कितने लोगों के परिवार प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से पल रहे हैं एक और जहां छोटे-छोटे जिले और कस्बे में अखबारों का प्रकाशन होने से भ्रष्टाचार को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है वही अगर कड़े नियम और कानून के दायरे में बांध दिया जावे तो इस तरह के छोटे एवं लघु समाचार पत्रों को समाप्त होने में समय नहीं लगेगा। सरकारों को सोचना चाहिए की छोटे और मध्यम समाचार पत्र के प्रकाशकों को समाचार पत्र प्रकाशित करने से क्या लाभ होता है? क्या वह केवल लाभ के दृष्टिकोण से अखबार का प्रकाशन करते हैं? यह फिर समाज को एक नई दिश देने के प्रयास के तहत किये जाने वाला कार्य है यह तो सरकारों को ही इस पर निर्णय लेना हैं पर यह एक विचारणीय प्रश्न है। एक ओर जहां बड़े घरानों के अखबार बड़ी तेजी के साथ रंगीन पृष्ठों के साथ न जाने कितनी पृष्ठ संख्या में प्रकाशित हो रहे हैं वही छोटे और लघु समाचार पत्र रंगीन एवं श्याम श्वेत में प्रकाशित होने वाले कम पृष्ठों के अखबार आर्थीक मंदी एवं सरकारों के गलत नीतियों के कारण दम तोड रहें हैं। एक कहावत है की बिना अर्थ सब व्यर्थ जहां अर्थ वहीं सामर्थ। लघु एवं मध्यम समाचार पत्र गली, मोहल्ले, ब्लॉक की बातों को वह आम जनता तक पहुंचाने का प्रयास सदैव करती रही हैं वर्तमान में डीएवीपी की नीतियों के चलते कई छोटे और मझोले अखबारों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया हैं आरएनआई से लेकर डीएवीपी के कठोर नियमों के कारण समाचार पत्रों को लघु मध्यम और बड़ों को जिस तरह से परिभाषित किया गया है उसके अनुसार उसका पालन कतई नहीं किया जा रहा है जहां लघु समाचार पत्रों को 15 प्रतिशत मध्यम को 35 तथा बड़ों को तथा बड़ों को 50 प्रतिशत तक का विज्ञापन देने का प्रावधान है पर इसका पालन नहीं हो पा रहा है डीएवीपी के कमिटमेंट पर जाने से यह साफ दिखाई दे रहा है सरकुलेशन के मापदंड को पूर्ण करने वाले तथा प्रसार संख्या में तथा क्षेत्र में अधिक दखलअंदाजी रखने वाले अखबारों को विज्ञापन देने में भेदभाव अपनाई जा रही है अखबारों को किस तरह कठोर नियमों से बांधा जाए इस का प्रयास किया जा रहा है पूर्व में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा अखबारी कागज में सब्सिडी की व्यवस्था की गई थी परंतु वर्तमान सरकार के द्वारा जीएसटी लगाए जाने से लघु एवं समाचार पत्रों का अस्तित्व संकट में है हाल ही में मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पीएमओ द्वारा भी जीएसटी लगाए जाने पर अनभिज्ञता जाहिर की गई वही हाल ही में छत्तीसगढ़ के भिलाई आए केंद्रीय मंत्री मेघवाल जी द्वारा प्रिंट मीडिया पर लगे जीएसटी को लेकर समाचार पत्र समूह के प्रकाशकों द्वारा जब मोदी सरकार के केंद्रीय मंत्री माननीय मंत्री मेघवालय जी को अवगत कराया गया तो उनहोने जीएसटी के संबंध में तो अखबार प्रकाशकों के मांगों को सही और न्यायोचित ठहराते हुए ऑन रिकार्ड कहा की प्राकाशकों की मांगो को तत्काल केंद्रीय वित्त मंत्री से बात कर उचित कार्यवाही का भरोसा दिलाते हुए उनके मांगों को जायज ठहराया था प्रकाशकों ने अपनी समस्याओं के संबंध में माननीय प्रधानमंत्री जी के नाम एक ज्ञापन भी उन्हें सौंपा था परंतु आज एक माह से भी अधिक समय बीतने के पश्चात स्थिति जस की तस बनी हुई है एक और जहां लगातार प्रिंट मीडिया को चौतरफा हमला का सामना करना पड़ रहा है वही लगातार अखबारों की घंटी संख्या सभये समाज के लिए चिंता का विषय बन सकता है। देश के कई राजनीतिक पार्टीया चुनाव के मद्देनजर इन समाचार पत्र समुहों को अपने घोषणा पत्र के माध्यम से साधने का प्रयास कर रही है पर क्या इन पार्टीयों के भी सत्ता में आने पर लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों के उपर आने वाला संकट हट पाएगा यह कहना जल्दबाजी होगी।
वर्तमान सरकार को यह सोचना चाहिए कि हम किस तरह छोटे एवं लघु समाचार पत्रों को संरक्षण दे सके ताकि उनके अस्तित्व को समाप्त होने से बचाया जा सके। यह छोटे अखबार ना केवल अपने जिले,ब्लॉक,तहसील,गांव सहीत कई स्तर पर लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं बल्कि वहां की कला संस्कृति भाईचारा वहां के भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में निरंतर अपनी जान की बाजी लगाकर तथा सर्वत्र तन मन धन निक्षावर कर कार्य कर रहे हैं इसके साथ ही सरकार की मनसा के तहत चाहे स्किलडेवलपमेंट हो या फीर रोजगार देने की मनसा को भी साकार कर रही है अब देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि क्या आने वाले समय में छोटे एवं लघु समाचार पत्र को सरकारें किस तरह से अपने संज्ञान में लेती है पर यह कहना ठीक होगा कि अब लगातार सरकारों के दबाव व जटिल नियम कानुन होने के कारण अब मीडिया समुह में कार्य करने वाले प्रकाशक,मुद्रक,संपादक प्रतिनिधि पत्रकार सहीत मीडिया में कार्य करने वाले कर्मचारियों का समुह देश के विभिन्नय राज्यों मे एकत्र व संगठीत हो रहे हैं। अब इनका संगठीत होना सरकार या समाज के लिए कितना कारगर होगा यह कहना जल्दबाजी होगी।
– सुनील चौधरी, सहारनपुरछोटे एवं मझले पत्रकारों का भविष्य संकट में
अखबार या समाचार पत्र अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा उदाहरण है पर दिनों दिनों समाचार पत्रों की घटती संख्या और शासकीय नियम कानून और कायदे के जटिलता के कारण मृत पाए होने की स्थिति में हैं। लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों की आखिर दुर्दशा के पीछे वह कौन है जो नहीं चाहते लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों जो जिले तहसील या ब्लॉकों से निरंतर व नियमित प्रकाशित होते हैं वह प्रकाशित हो सके आम जनता की आवाज बन सके जो क्षेत्रीयता की कला संस्कृति को बचा सकते हैं पर आज देखने को या आ रहा है कि जहां अखबारों को तो सरकार अभिव्यक्ति की आजादी मानती है परंतु जब किसी अखबार में सरकार की नीतियों की आलोचना होता है तो उस अख़बार को या उस अख़बार में कार्य करने वाले पत्रकारों को टारगेट कर उसे दंडित या फिर उसे फसाने का कार्य या उसे प्रलोभन देने का निरंतर प्रयास हो रहा है जिसका प्रमाण देश के विभिन्न राज्यों में दर्ज एफआईआर बताती हैं।
जहां पत्रिकारिता के नाम पर बड़े बड़े घरानों के अखबार दिन दूगनी रात चौगनी तरक्कती के साथ साथ अपने क्षेत्रफल को बढ़ाने के साथ-साथ प्रसार संखया में निरंतर बढ़ोतरी कर रही है पर वही इन बडे घरानों के अखबार पत्रकारिता के मूल व्यवसाय से हटकर हर तरीके के व्यवसाय जिसका की मकसद केवल लाभ और लाभ कमाने तक ही सीमित है। जहां पत्रकारिता का दायित्व एक सभ्य समाज तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने में आपनी महत्वपुर्ण भूमिका निभाती है वही आज के दौर में पत्रकारिता का अस्तित्व संकट की ओर है इसके लिए बहुत हद तक हम सब भी जिम्मेदार हैं एक और जहां सरकार द्वारा अखबारों पर श्रम नीति, मजीठिया बोर्ड लागू है जिसके तहत विभिन्न जिलों को विभिन्न श्रेणियों में बांट कर पत्रकारों और गैर पत्रकारों को वेतन देने की बात कही गई है जिसमें इस तरह के वेतनों का उल्लेख है जो लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों के प्रकाशकों व स्वामियों द्वारा किया जाना नामुमकिन सा लगता है फिर भी कई छोटे एवं लघु समाचार पत्र द्वारा इसका पालन करने की चेष्टा की जा रही है वही बड़े समाचार पत्रों के घरानों द्वारा प्लेसमेंट एजेंसियों से नियुक्ति कराई जा रही है एक और जहां सरकार द्वारा लगातार प्रिंट मीडिया के विज्ञापनों को छोटे आकार में प्रकाशित करने की हिदायत के साथ-साथ छोटे अक्षरों में प्रकाशित करने का निर्देश दे रही है वही छोटे से विज्ञापन देकर वेब साइटों में भी इसे प्रकाशित किया जा रहा है देखने को आया है कि कई राज्यों में वेब पॉलेसियांभी नहीं है, परंतु सरकार द्वारा करोड़ो रूपए का विज्ञापन इन्हे तथा शोसल मीडिया को परोसा जा रहा है जिससे प्रिंट मीडिया को पहले की तुलना में मिलने वाले विज्ञापनों की राशियों में भारी कटौती हो गई है एक और जहां लगातार प्रिंट मीडिया के खर्चों में बढ़ोतरी हो रही है जिसमें कागज जो कि जीएसटी लगने के बाद करीब 25 से 30 प्रतिशत तक महंगे हो गए हैं वही स्याही प्लेट सहित अन्य केमिकल्स के दामों में भी करीब 20 से 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापनों में लगातार 40 से 50 प्रतिशत की कमी आई है सरकार को यह सोचना चाहिए की प्रिंट मीडिया ना केवल समाज का आईना है बल्कि लोगों को रोजगार देने का एक जरिया भी है अखबार में न जाने कितने लोगों के परिवार प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से पल रहे हैं एक और जहां छोटे-छोटे जिले और कस्बे में अखबारों का प्रकाशन होने से भ्रष्टाचार को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है वही अगर कड़े नियम और कानून के दायरे में बांध दिया जावे तो इस तरह के छोटे एवं लघु समाचार पत्रों को समाप्त होने में समय नहीं लगेगा। सरकारों को सोचना चाहिए की छोटे और मध्यम समाचार पत्र के प्रकाशकों को समाचार पत्र प्रकाशित करने से क्या लाभ होता है? क्या वह केवल लाभ के दृष्टिकोण से अखबार का प्रकाशन करते हैं? यह फिर समाज को एक नई दिश देने के प्रयास के तहत किये जाने वाला कार्य है यह तो सरकारों को ही इस पर निर्णय लेना हैं पर यह एक विचारणीय प्रश्न है। एक ओर जहां बड़े घरानों के अखबार बड़ी तेजी के साथ रंगीन पृष्ठों के साथ न जाने कितनी पृष्ठ संख्या में प्रकाशित हो रहे हैं वही छोटे और लघु समाचार पत्र रंगीन एवं श्याम श्वेत में प्रकाशित होने वाले कम पृष्ठों के अखबार आर्थीक मंदी एवं सरकारों के गलत नीतियों के कारण दम तोड रहें हैं। एक कहावत है की बिना अर्थ सब व्यर्थ जहां अर्थ वहीं सामर्थ। लघु एवं मध्यम समाचार पत्र गली, मोहल्ले, ब्लॉक की बातों को वह आम जनता तक पहुंचाने का प्रयास सदैव करती रही हैं वर्तमान में डीएवीपी की नीतियों के चलते कई छोटे और मझोले अखबारों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया हैं आरएनआई से लेकर डीएवीपी के कठोर नियमों के कारण समाचार पत्रों को लघु मध्यम और बड़ों को जिस तरह से परिभाषित किया गया है उसके अनुसार उसका पालन कतई नहीं किया जा रहा है जहां लघु समाचार पत्रों को 15 प्रतिशत मध्यम को 35 तथा बड़ों को तथा बड़ों को 50 प्रतिशत तक का विज्ञापन देने का प्रावधान है पर इसका पालन नहीं हो पा रहा है डीएवीपी के कमिटमेंट पर जाने से यह साफ दिखाई दे रहा है सरकुलेशन के मापदंड को पूर्ण करने वाले तथा प्रसार संख्या में तथा क्षेत्र में अधिक दखलअंदाजी रखने वाले अखबारों को विज्ञापन देने में भेदभाव अपनाई जा रही है अखबारों को किस तरह कठोर नियमों से बांधा जाए इस का प्रयास किया जा रहा है पूर्व में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा अखबारी कागज में सब्सिडी की व्यवस्था की गई थी परंतु वर्तमान सरकार के द्वारा जीएसटी लगाए जाने से लघु एवं समाचार पत्रों का अस्तित्व संकट में है हाल ही में मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पीएमओ द्वारा भी जीएसटी लगाए जाने पर अनभिज्ञता जाहिर की गई वही हाल ही में छत्तीसगढ़ के भिलाई आए केंद्रीय मंत्री मेघवाल जी द्वारा प्रिंट मीडिया पर लगे जीएसटी को लेकर समाचार पत्र समूह के प्रकाशकों द्वारा जब मोदी सरकार के केंद्रीय मंत्री माननीय मंत्री मेघवालय जी को अवगत कराया गया तो उनहोने जीएसटी के संबंध में तो अखबार प्रकाशकों के मांगों को सही और न्यायोचित ठहराते हुए ऑन रिकार्ड कहा की प्राकाशकों की मांगो को तत्काल केंद्रीय वित्त मंत्री से बात कर उचित कार्यवाही का भरोसा दिलाते हुए उनके मांगों को जायज ठहराया था प्रकाशकों ने अपनी समस्याओं के संबंध में माननीय प्रधानमंत्री जी के नाम एक ज्ञापन भी उन्हें सौंपा था परंतु आज एक माह से भी अधिक समय बीतने के पश्चात स्थिति जस की तस बनी हुई है एक और जहां लगातार प्रिंट मीडिया को चौतरफा हमला का सामना करना पड़ रहा है वही लगातार अखबारों की घंटी संख्या सभये समाज के लिए चिंता का विषय बन सकता है। देश के कई राजनीतिक पार्टीया चुनाव के मद्देनजर इन समाचार पत्र समुहों को अपने घोषणा पत्र के माध्यम से साधने का प्रयास कर रही है पर क्या इन पार्टीयों के भी सत्ता में आने पर लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों के उपर आने वाला संकट हट पाएगा यह कहना जल्दबाजी होगी।
वर्तमान सरकार को यह सोचना चाहिए कि हम किस तरह छोटे एवं लघु समाचार पत्रों को संरक्षण दे सके ताकि उनके अस्तित्व को समाप्त होने से बचाया जा सके। यह छोटे अखबार ना केवल अपने जिले,ब्लॉक,तहसील,गांव सहीत कई स्तर पर लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं बल्कि वहां की कला संस्कृति भाईचारा वहां के भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में निरंतर अपनी जान की बाजी लगाकर तथा सर्वत्र तन मन धन निक्षावर कर कार्य कर रहे हैं इसके साथ ही सरकार की मनसा के तहत चाहे स्किलडेवलपमेंट हो या फीर रोजगार देने की मनसा को भी साकार कर रही है अब देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि क्या आने वाले समय में छोटे एवं लघु समाचार पत्र को सरकारें किस तरह से अपने संज्ञान में लेती है पर यह कहना ठीक होगा कि अब लगातार सरकारों के दबाव व जटिल नियम कानुन होने के कारण अब मीडिया समुह में कार्य करने वाले प्रकाशक,मुद्रक,संपादक प्रतिनिधि पत्रकार सहीत मीडिया में कार्य करने वाले कर्मचारियों का समुह देश के विभिन्नय राज्यों मे एकत्र व संगठीत हो रहे हैं। अब इनका संगठीत होना सरकार या समाज के लिए कितना कारगर होगा यह कहना जल्दबाजी होगी।
– सुनील चौधरी, सहारनपुर