उत्तराखंड : विलुप्त होती पहाड़ की संस्कृति गाेट

उत्तराखंड – उत्तराखंड गढ़वाल कुमाऊँ में पहले गोट का प्रचलन था जिसमें गाय बछड़ा बैल बकरी भेड़ बांधते थे ये गोट वैशाख महीने से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक होते थे शुरु शुरु में वैशाख में जानवरों को खुले आसमान के नीचे बांधते थे गर्मियों में कभी बैसाख जेठ में आंधी तूफान भी आता था तो उस समय इन जानवरों को गौशाला में बांधते थे फिर जून के तृतीय सप्ताह से अक्टूबर तक बांस की लकड़ी मालू के पत्ते छैड़ी से पल्ले बनाते थे और गोट बनाकर खेतों में रहते थे गोट में छोटी सी चार पाई तथा कंबल आदि का बिसतर होता था रात को गोट में ही सोना पड़ता था बकरियों को गोट के अंदर बांधते थे ताकि वे बरसा के पानी में भीगे नहीं छोटे छोटे बछड़े जो दूध पीने वाले होते थे उन्हें भी गोट के भीतर बांधते थे गोठ में मुछेला रखकर आग जलाते थे टॉर्च आदि भी रखना पड़ता था क्योंकि जानवरों को बाघ का खतरा रहता था बरसात में गोट में मक्का भी भूनते थे गोठ मालिक के लिए घर से खाना शाम होते ही आ जाता था या जल्दी खाकर सोने के लिए गोट में आना होता था गोट के चारों तरफ टांटा की बाढ़ लगाते थे ताकि बाध अचानक गोट में न घुसे। पशुओं को शाम को घास देना पड़ता था फिर दिन मे होता था और बैलों ने हल लगाने जाना है तो उनको सुबह 4:00 बजे घास डालना पड़ता था जो आदमी गोट में रहता था वह ज्यूडा मवाला डोरी आदि बनाता रहता था तंबाकू पीने का बनदोवसत रहता था जो रात का गोबर होता था उसे छानना पड़ता था मतलब खेत में छानना पड़ता था यही दिनचर्या रहती थी अक्टूबर द्वितीय सप्ताह के आसपास होने पर गौशाला में पशुओं को अंदर बांधते थे गोट में भूटिया कुत्ता भी रहता था जो कि रात भर रहता था गोट में आग बराबर जलती थी चाय तंबाकू आदि का पूरा बंदोबस्त रहता था गायों का दूध निकाला जाता था महिलाएं दोनो टाइम घास लाती थी महिलाओं को दूध भी दोनों टाइम निकालना पड़ता था गाय बछड़े के लिए भीमल का पीडा खिलाते थे बैलों को चौकर पिंडा देते थे बकरियों के लिए जौ और नमक देते थे गोठ में रात को गोट मालिक बासुरी बजा कर या रेडियो लगा कर अपना समय बिताता था उस समय आकाशवाणी नजीबाबाद से गढ़वाली गाने वीडियो में चलते थे गोपाल बाबू गोस्वामी के गाने को सुने जाते थे अब तो यह प्रथा लगभग 1985 के दशक से बंद ही हो गया है पहले दूर-दूर तक खेती करते थे कोई भी खेत बंजर नहीं रहता था गुंजा डाला फोडते थे खेत की झाड़ी काटते थे फिर खेत में आडा जला देते थे सुबह 10:00 बजे पशुओं को खोलकर जंगल में चुगाने ले जाते थे फिर शाम को वापस गोट में बांध देते थे और इस समय तो नई पीढ़ी गोट के बारे में जानती भी नहीं है पशुओं का गोबर से खेती उपजाऊ रहती थी जंगली जानवर नहीं आते थे करते थे अब तो जंगली जानवर डरते भी नहीं है आंगन से ही महिला एवं बच्चों एवं पुरुषों को उठाकर ले जाते हैं पानी के स्रोत प्रचुर मात्रा में थे पानी की कोई कमी नहीं थी आदमी बीमार भी नहीं होता था बैद्य की दवाई की धूल से ही आदमी ठीक हो जाता था

साभार : पी पी एस भैजी
– इंद्रजीत सिंह असवाल
पाैडी गढ़वाल उत्तराखंड

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