किसी भी देश के संचालन एवं विकास के साथ सभी प्रकार कार्य सम्पन्न करने के लिए सरकार को नियमितरुप से धन की आवश्यकता बनी रहती है। सरकार को विभिन्न प्रकार के राजस्व के रुप में धन प्राप्त होता है। भारत में राजस्व संग्रह के मुख्य स्रोत प्रत्यक्ष कर जैसे आयकर एवं अप्रत्यक्ष कर माल एवं सेवाकर प्रणाली हैं।
यदि हम देश के आजादी के समय से राजस्व संग्रह का अध्ययन करते हैं तो परिणाम यह है कि राजस्व संग्रह के देश में 1948 में ‘केन्द्रीय बिक्रीकर अधिनियम’ के साथ राज्यों में ‘राज्य बिक्रीकर अधिनियम’ लागू करते हुए केन्द्र व राज्य सरकारों के संग्रह का स्रोत पैदा किया गया। इधर प्रत्यक्ष कर प्रणाली के अन्तर्गत ब्रिटिश शासन द्वारा 1882 में आयकर कानून बनाया, तत्पश्चात समय की आवश्यकता के अनुरुप और उद्योगों की प्रगति के अनुसार 1922 में नया आयकर कानून बना। लेकिन आजादी के बाद पूर्ववर्ती आयकर कानून को बदलते हुए 1961 में नया कानून को लागू एवं प्रभावी किया गया। इन कानून के माध्यम से भारत के श्रेष्ठियों (धन्नासेठों) से आयकर वसूलने की प्रक्रिया लागू की। 1961 में बनाये गये आयकर कानून भी पूराने कानून को नई व्यवस्था के साथ लागू एवं प्रभावी किया गया और अब लगातार संशोधन होते जा रहे हैं, लेकिन आधार पुराना ही है।
इसी क्रम में देखें तो 1948 में लागू एवं प्रभावी बिक्रीकर कानून देश में बढ़ती औद्योगिक एवं व्यापारिक गतिविधियों के गति एवं विकास को देखते परिवर्तन करते हुए देश में 2001 मंे (उत्तर प्रदेश में 2008 में) वैट कर प्रणाली को लागू किया गया। लेकिन देश की तेज गति से विकास एवं समय की मांग के अनुरुप में जुलाई 2017 में माल एवं सेवाकर प्रणाली’ को लागू एवं प्रभावी किया गया।
देश का बजट 2023 को तैयार करने की प्रक्रिया केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के साथ राज्यों के वित्त मंत्रालय अक्टूबर में प्रारम्भ हो जाएगी। समाचार पत्रों के अनुसार 10 अक्टूबर से बजट 2023 की प्रक्रिया प्रारम्भ होने जा रही है। बजट 2023 के बजट में नये प्रावधान के साथ पुरानी व्यवस्था में संशोधन हेतु केन्द्रीय वित्त मंत्री देश के शीर्ष औद्योगिक संगठनों जिनमें फिक्की, एसोचैम आदि संगठनों के साथ बैठकों का दौर प्रारम्भ हो जाएगा, इन चर्चाओं में बड़े औद्योगिक संगठनों से बजट से पूर्व की चर्चा की जाएगी। अच्छे प्रयास हैं, संवाद होना ही चाहिए।
लेकिन हम इस लेख के माध्यम से सरकार का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि जब देश में ‘एम.एस.एम.ई’ योजना लागू हैं, जब बात करते हैं ‘एम.एस.एम.ई’ योजना की, तो एम.(माइक्रो) एस. (स्माॅलद्ध एवं एम. (मिडीयम) क्षेत्र के व्यापार एवं उद्योग शामिल होते हैं जबकि फिक्की एवं एसोचैम संगठनों में देश के सभी वर्ग के उद्योगपति सदस्य होते हैं लेकिन संगठनों का संचालन बड़े उद्योगपतियों के हाथों में होता है। अब आप समझ सकते हैं कि विभिन्न स्तरों के व्यापारियों एवं उद्योगपतियों की अपने स्तर की समस्याएं होती है, जिनको वह बैठक पटल पर केन्द्रीय वित्त मंत्री के समक्ष रखते हैं, और उन विचार करते हुए बजट संशोधनों में निर्णय होते हैं। इस चर्चा में छोटे एवं मझोले के साथ सूक्ष्म व्यापारियों की समस्याओं पर चर्चा नहीं हो पाती।
आप मानते हैं इन टैक्स प्रणाली में हमेशा से दो पक्ष हुआ करते हैं। पहला पक्ष सरकार और दूसरा पक्ष करदाता यानि व्यापारिक एवं उद्योगपतियों का। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी समस्याओं को लेकर सोच बनती और बिगड़ती है। पहला पक्ष यह चाहता है कि अधिक से अधिक टैक्स सरकारी कोष में जमा हो जबकि दूसरा पक्ष करदाता की सोच होती है कि टैक्स कैसे जमा कराये? उसके धन्धे में दिन प्रतिदिन बदलाव आते रहते हैं, विभिन्न प्रकार की समस्याएं हैं, तो फिर पहला पक्ष सक्रीय हो उठता है और दमनकारी कदम उठाता है।
मेरे विचार से अभी तक हमारे देश में पहले और दूसरे पक्ष में कभी भी संवाद नहीं होता है केवल पहला पक्ष अपना निर्णय सुनाने के लिए तत्पर रहता है और आशा करता है कि दूसरा पक्ष उसके आदेश पालना करता रहे। मेरा स्पष्ट मानना है कि जिस प्रकार से केन्द्रीय वित्त मंत्री देश के बड़े व्यापारिक एवं औद्योगिक संगठनों से सुझाव वार्ता करती हैं क्या उसी प्रकार जिला स्तर पर प्रदेश स्तर पर भी विभिन्न व्यापारिक एवं औद्योगिक संगठनों से भी वार्ता की जानी चाहिए? हम यह भी जानते हैं कि केन्द्रीय वित्त मंत्री सभी जिलों व मण्डल स्तर पर जाकर वार्ता नहीं कर सकती लेकिन विभिन्न विभागों के प्रदेश स्तर सक्षम व निर्णायक प्राधिकारी तो व्यापारिक संगठनों के साथ बैठक वार्ता तो कर ही सकते हैं।
जब तक हमारी सरकारें स्वयं को सीमित एवं संकुचित रखते हुए केवल करों को वसूलने और राजस्व संग्रह हेतु बंद कमरों में एक पक्षीय निर्णय लेते रहंेगे, तब न तो अपेक्षित राजस्व ही बढ़ पाएाग और न ही करदाताओं की संख्या। उल्लेखनीय है कि जिस देश की जनसंख्या विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या हो, विश्व का बढ़ा बाजार हो, उस देश की सरकार अधिक से अधिक राजस्व जुटाने के साथ करदाताओं की संख्या बढ़ाने में और जीडीपी को बनाये रखने के लिए दमनकारी निर्णय ही लागू करने पड़ते होे फिर भी आशातीत और जनसंख्या के साक्षेप में कभी राजस्व न प्राप्त हो सके।
हम आपको ध्यान दिलवा दें कि प्रदेशों मंे बिक्रीकर कानून लागू होने के दौरान यह परम्परा थी कि बिक्रीकर आयुक्त प्रत्येक जनपदीय अधिकारियों को निर्देश देता था कि वह प्रतिमाह व्यापारिक एवं अधिवक्ता संगठनों के साथ बैठक करने पर प्राप्त समस्याओं एवं सुझावों को शासन स्तर पर अग्रसर करते रहे लेकिन वैट प्रणाली के दौरान यह बैठके देखने मिल जाती थी लेकिल जीएसटी प्रणाली में यह परम्परा समाप्त ही कर दी गई है।
जीएसटी प्रणाली में आपसी विचार विमर्श की इस परम्परा को समाप्त करने से यह परिणाम सामने आने लगा इस संवादहीनता के चलते विभाग और करदाताओं के बीच विवाद बढ़ता रहा है। इतना ही नहीं चाहे वह आयकर हो अथवा जीएसटी करदाताओं व्यापारियों एवं अधिवक्ता वर्ग में असंतोष बढ़ता रहा है।
अतः सरकार को चाहिए कि सरकार इस सवंादहीनता को समाप्त करें और प्रत्येक स्तर के व्यापारिक संगठनों के साथ संवाद बढ़ाये और प्राप्त समस्याओं पर गहन विचार करते हुए निरराकरण करें।
-पराग सिंहल