देहरादून/उत्तराखंड- वो जमाना गया जब आंदोलनकारियों का दबदबा था। सिस्टम में उनका सम्मान भी था और दहशत भी, लेकिन राज्य के दो दशक पूरे होने से पहले ही आंदोलनकारियों की पहचान धूमिल हो चुकी है। सरकार को अब आंदोलनकारियों की कोई परवाह नहीं। परवाह होती तो उच्च न्यायालय से आंदोलनकारियों को आरक्षण खत्म होने के फैसले पर ठीक उसी तरह हरकत में आती, जिस तरह खनन और शराब के खिलाफ फैसले आने पर आती रही है । सरकार एसएलपी में उच्चतम न्यायालय जाती जैसे वन विभाग के अफसरों के मामले में अफसरों के पक्ष में गयी । परवाह होती तो मुख्यमंत्री सहारनपुर को उत्तराखंड में मिलाने संबंधी बयान न देते , हरक सिंह खुले आम बिजनौर के गांवों को उत्तराखंड में मिलाने की बात न करते । परवाह हो भी क्यों, परवाह तो ताकत की होती है। राज्य में बीते सालों में इतना सबकुछ हुआ कहां हैं खुद को राज्य का खैरख्वाह बताने वाले आंदोलनकारी ? परवाह तो तब हो जब आंदोलनकारियों की अपनी कोई हैसियत हो या फिर वे कोई बड़ी ताकत हों, आज तो राज्य आंदोलनकारी मतलब परस्त हो चुके हैं। राज्य आंदोलकारियों की भूमिका पर सवाल तो पहले दिन से है, लेकिन उच्च न्यायालय के एक हालिया आदेश ने तो आंदोलनकारियों को “बेपर्दा” ही कर दिया है। आज आंदोलनकारी सिर्फ एक छलावा है, दिखावा है, जिनमें न क्षमता है और न एकता। राज्य के प्रति अगर कोई सबसे ज्यादा बेईमान साबित हुआ है तो वह राज्य आंदोलनकारी, राज्य बनने के बाद से सबसे अधिक गैर जिम्मेदाराना रवैया आंदोलनकारियों का ही रहा। उत्तराखंड अगर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और ठेकेदारों का चारागाह बना तो उसके जिम्मेदार आंदोलनकारी भी तो रहे । जो राज्य की चिंता करने के बजाय हक के नाम पर “लूट” में हिस्सेदारी की मांग करते रहे । बीस साल होने को हैं उत्तराखंड बने हुए क्या उपलब्धि है राज्य आंदोलनकारियों की, अभी तक आंदोलनकारी किसके लिए लड़ रहे हैं? राज्य के हालात सुधरने चाहिए इस चिंता को लेकर नहीं लड़ रहे आंदोलनकारी । वे लड़ रहे हैं, चिन्हीकरण के लिए, खैरात के तौर पर मिलने वाली नौकरी के लिए, पेंशन के लिए, मुफ्त की सुविधाओं के लिए । ऐसा लगता है कि मानो राज्य की लड़ाई सिर्फ इसी “लूट” के लिये लड़ी गयी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन सब के लिए लड़ाई भी अलग-अलग “खोमचों” से लड़ी जा रही है। राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर दर्जनभर से अधिक संगठन बने हुए हैं। इनमें से कुछ संगठन ऐसे हैं जिन्होंने चिन्हीकरण या राज्य आंदोलनकारी का ठप्पा लगवाने का धंधा खोला हुआ है। चिन्हीकरण के नाम पर खुलेआम वसूली चल रही है। आश्चर्य ये है कि इसका विरोध करने की हिम्मत किसी भी आंदोलनकारी संगठन में नहीं, इससे यह भी साफ है कि पूरे खेल में सबकी मिलीभगत है। राज्य में दस हजार के करीब चिन्हित आंदोलनकारी हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इन दस हजार में काफी बड़ी संख्या फर्जी आंदोलनकारियों की भी है। पौड़ी व कुछ दूसरे जिलों में तो यह साबित भी हो चुका है आंदोलनकारी फर्जी चिन्हत हुए हैं। लेकिन आज तक आंदोलनकारियों ने इस बारे में कोई आवाज नहीं उठाई । सवाल यह है कि अगर आंदोलनकारी ईमानदार हैं तो क्यों नहीं आवाज उठाते कि बंद करो यह चिन्हीकरण का ढोंग ?क्यों नहीं जांच की मांग की जाती कि जिनका चिन्हीकरण हुआ वह शत प्रतिशत सही है या नहीं ? कहां हैं वह आंदोलनकारी जिन्हें यह दंभ है कि राज्य उनके दम पर बना है, उन्होंने लड़ कर हासिल किया है ? क्यों राज्य के मुद्दों पर मुखर नहीं होते आंदोलनकारी ? सच यह है कि आंदोलनकारी ताकतें गैरजिम्मेदारी निकली, वह मसकद के प्रति ईमानदार नहीं रहीं । यही कारण भी रहा कि वह राजनैतिक दलों के सियासी षड़यंत्र का शिकार हुई और उन्हें इसका अहसास तक नहीं हुआ। और आखिरकार वही हुआ जो भाजपा-कांग्रेस चाहती थी। भाजपा-कांग्रेस भयभीत थी कि आंदोलनकारी राजनैतिक ताकत न बन जाएं, वह नहीं चाहती थी कि राज्य आंदोलनकारी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरे। इसीलिये भाजपा कांग्रेस की सरकारों ने छोटे-छोटे लालच देकर आंदोलनकारियों को आपस में बांट दिया। आंदोलनकारी हमेशा इस गलतफहमी में रहे कि सरकारें आंदोलनकारियों के दबाव में हैं, उनका सम्मान कर रही है। अब साफ समझ आता है कि सरकार ने आंदोलनकारियों के बीच “फूट डालो और राज करो” के फिरंगी सिद्धांत को बड़ी चालाकी से लागू किया। उत्तराखंड राज्य आंदोलन की लड़ाई में लाखों आंदोलनकारियों ने भागेदारी की , लेकिन सरकार ने उन्हें सक्रिय आंदोलनकारी, घायल आंदोलनकारी और जेल जाने वाले आंदोलनकारी जैसे अलग-अलग वर्गों में बांट दिया। नतीजा यह रहा कि आंदोलनकारी इसी सब में उलझ कर रह गए। जो लोग अलग राज्य के विरोधी थे, राज्य बनने के बाद वे आंदोलनकारी घोषित हो गए। इसी से समझा जा सकता है कि कितना बड़ा खेल हुआ होगा। बहरहाल अब आंदोलनकारियों का “खेल” खत्म हो चुका है। हाल ही मे
-दीपक कश्यप, देहरादून