राजस्थान/बाड़मेर- समाज की बुनियाद न्याय, समानता और नैतिक मूल्यों पर टिकी होती है। परंतु आज हम एक ऐसे विकट मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ यह बुनियाद चरमरा रही है। यह विडंबना ही है कि जिस समाज को पीड़ित के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, वही समाज आज अपराधियों को बचाने और उन्हें कुछ पैसों या संबंधों के बदले सुरक्षित निकालने में जुटा हुआ है। सवाल यह नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है, सवाल यह है कि क्या हम सभी इस अपराध में सहभागी नहीं बन गए हैं ?
आजकल कई घटनाएं ऐसी सामने आ रही हैं जहाँ किसी निर्दोष की हत्या कर दी जाती है, और अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं। वे कानून के सामने पेश होने से पहले समाज के कुछ प्रभावशाली लोगों के माध्यम से “समझौता” कर लेते हैं। दुखद यह है कि मृतक के परिवार पर सामाजिक और मानसिक दबाव बनाया जाता है कि वे कानूनी रास्ता छोड़ दें और मोताणे रूपी “मुआवजे” या “सुलह” की राह पकड़ें।
क्या एक इंसान की जान की कोई कीमत लगाई जा सकती है ? क्या हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि हत्या जैसे गंभीर अपराध को भी रुपये-पैसे या जातिगत संबंधों के तराजू में अपने आप को तोलने लगे हैं ?
समाज वह इकाई है जो हमेशा नैतिकता की रक्षा के लिए जानी जाती रही है। परंतु जब वही समाज अपराधियों का पक्ष लेने लगे, तो वह अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है। आजकल सोशलमीडिया पर वायरल होने वाले विडियो से भी समाज में देखा जा रहा है कि अगर किसी प्रभावशाली परिवार या जाति का कोई सदस्य अपराध करता है, तो लोग अपराध को छुपाने या उसे हलका करने में जुट जाते हैं। गवाहों पर दबाव डाला जाता है, पुलिस पर राजनीतिक प्रभाव डाला जाता है, और पीड़ित परिवार को “समझदारी” से काम लेने की सलाह दी जाती है।
यह “समझदारी” दरअसल अन्याय के आगे घुटने टेकने की एक आदत बनती जा रही है। समाज खुद ही अपने न्यायप्रिय चरित्र को नष्ट कर रहा है। कई बार लोग कहते हैं, “हमें विवादों से दूर रहना चाहिए”, “यह उनका आपसी मामला है”, “दोनों पक्ष मिलकर सुलह कर लें तो बेहतर है” — ये वाक्य जितने सहज लगते हैं, उतने ही खतरनाक हैं। क्योंकि यही वाक्य तब बोले जाते हैं जब किसी गरीब, कमजोर या साधारण परिवार के साथ कोई अनहोनी हो जाती है। समाज की यह चुप्पी ही अपराध को पनाह देती है।
हमें समझना होगा कि शांति और मौन में फर्क होता है। जब किसी के खिलाफ अन्याय हो रहा हो और समाज मौन हो जाए, तो वह मौन भी एक प्रकार की सहमति मानी जाती है। वह मौन अपराध के पक्ष में खड़े होने जैसा है।
सामाजिक न्याय के दो सबसे बड़े शत्रु कई बार पीड़ित परिवार इसलिए चुप हो जाता है क्योंकि उन्हें धमकियाँ दी जाती हैं। उन्हें डराया जाता है कि अगर वे कानूनी कार्रवाई करेंगे तो उन्हें जान-माल का नुकसान हो सकता है। दूसरी ओर, कई बार उन्हें पैसों का लालच दिया जाता है ताकि वे मामले को रफा-दफा कर दें।
यह दोहरी मार है – एक तरफ डर, दूसरी तरफ लालच। और दोनों ही समाज में सच्चे न्याय की राह के सबसे बड़े अवरोधक हैं। समाज में बदलाव की सबसे बड़ी उम्मीद युवा पीढ़ी है। अगर युवा अन्याय को देखकर चुप रहें, तो यह अन्याय आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को अंधकार में धकेल देगा। लेकिन अगर युवा अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएं, तो समाज की दिशा बदली जा सकती है।
युवाओं को चाहिए कि वे सोशल मीडिया, जनचेतना अभियान, और सामाजिक संवाद के माध्यम से समाज को जागरूक करें। उन्हें यह समझना होगा कि न्याय सिर्फ अदालतों में नहीं मिलता, वह समाज की चेतना से भी उपजता है।
कानून तब तक प्रभावशाली नहीं बन सकता जब तक समाज उसका साथ न दे। जब समाज अपराधियों को बचाने के लिए खड़ा होता है, तब कानून कमजोर हो जाता है। लेकिन जब समाज पीड़ित के साथ खड़ा होता है, तब न्याय की ताकत दुगुनी हो जाती है।हमें यह तय करना होगा कि हम किसके साथ खड़े हैं – अपराधियों के या पीड़ितों के? क्या हम अपने बच्चों के लिए एक ऐसा समाज छोड़कर जाना चाहते हैं जहाँ अपराधियों को सम्मान और पीड़ितों को चुप्पी मिलती हो ?
हर व्यक्ति को यह सोचना होगा कि वह समाज को किस दिशा में ले जा रहा है। अगर हम अपराध को देखकर चुप रहेंगे, या उसे कुछ पैसों में सुलझाने की आदत को स्वीकार करेंगे, तो कल कोई हमारे अपने साथ भी ऐसा कर सकता है।समाज तभी बदलेगा जब हर व्यक्ति अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएगा। जब समाज की सोच बदलेगी, तभी अपराध कम होंगे। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि अन्याय के खिलाफ खड़ा होना कायरता नहीं, बल्कि सबसे बड़ी बहादुरी है।आइए, हम एक ऐसा समाज बनाएं जो न्याय के पक्ष में खड़ा हो, ना कि अपराध के पक्ष में। एक ऐसा समाज, जहाँ किसी की जान की कीमत पैसे से नहीं, बल्कि इंसानियत से मापी जाए।
– राजस्थान से राजूचारण