बाड़मेर/राजस्थान- वे सफेद पोशाक में आम आदमी के कलयुगी भगवान जो तनख्वाह सरकारी लेकर और अपनी माई बाप रिटायर होने के बाद पेन्शन लेने का हक रखने वाले अपने सरकारी अस्पतालों का आजकल मखौल उड़ा रहे है। उनको अपनी निगाहों में दोयम दर्जे का बता रहे है।पर अपने बच्चो को सरकारी नौकरी के दौरान आधुनिक सुविधाओं से लैस निजी स्कूलों में पढाकर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में डाक्टर बनाने के लिए जोड़ तोड़ कर प्रवेश दिलाना चाहते है इनमे बहुतायत ऐसे है जो खुद भी सरकारी मेडिकल कॉलेज में पढ़ कर डॉक्टर बने है।अब वे सरकारी हॉस्पिटल के साथ ही अपने निजी अस्पतालों को शाही रौब से चलाते है।
ये दोयम दर्जे के सरकारी हॉस्पिटल ही थे जो कोरोना में वक्त आम आदमी के लिए काम आये। जब कोरोना भड़भडी हमारे भाईयों की सांसे छीनने निकला तो इन सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर्स और स्टाफ ने कोराना वारियर्स बनकर रणक्षेत्र का मैदान नहीं छोड़ा। न प्राइवेट अस्पतालों की तरह अपने कपाट आम आदमी के लिए बंद किये।इनमे कुछ हमारे अपनों ने अपनी जान का नजराना भी इन्हें पेश किया। ये न होते तो मुल्क मरघट में बदल जाता। हमने बहुत डरावने मंजर खुली आखो से देखे है। गली मोहल्ले में किसी को कोरोना हो जाता तो लोग डर सहम कर दुबक जाते। लेकिन सरकारी हॉस्पिटलों के कोराना वारियर्स ने अपनी पीठ नहीं दिखाई। सिर्फ कल्पना कीजिये अगर पूरा मेडिकल तंत्र हमारे आसपास प्राइवेट होता तो फिर आपको क्या होता ?
प्राइवेट अस्पतालों ने सच में आपदा को अवसर में बदल लिया। खूब मनमानी की जैसे सुसराल में दामाद करता है उससे भी ज्यादा। भिन्न भिन्न राज्यों में विद्वान न्यायधीशों के कोर्ट को दखल करना पड़ा। मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा। पर उन पर कोई असर नहीं हुआ। नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी ने दिल्ली और दिल्ली के आसपास के कुछ नामी हॉस्पिटलस में इलाज की जाच पड़ताल की। पता लगा कुछ मामलों में 1737 प्रतिशत तक जमकर मुनाफा बटोरा गया। एक पी पी ई किट जो तीन चार सौ रूपये तक मिलता था ,उसके कई हॉस्पिटल में कई हजार रूपये वसूले गए।जब थोड़ी सूरत बदली तो प्राइवेट अस्पतालों ने भी अपने दरवाजे खोल दिए। लेकिन जमकर लोगों से पैसा वसूला। दिल्ली में कहने को सर्व शक्तिमान हाकिम है। मगर इस मामले में उनकी भी नहीं चली। केंद्र को कमेटी बना कर प्राइवेट अस्पतालों में दरें तय करनी पड़ी। फिर भी लोगों की शिकायते कम नहीं हुई। महाराष्ट्र में हाईकोर्ट ने दखल दी और सरकार से कहा हॉस्पिटल बिल पर लोगो को हो रही परेशानीयों से निजात दिलवाये।
मुंबई में महानगर पालिका क्षेत्र के प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती और बिलो का झमेला देखते हुए पांच भारतीय प्रशासनिक अधिकारी और ऑडिटर तक को तैनात करने पड़े।ऑडिटरस ने लगभग ग्यारह हजार बिलो की जांच की। चीफ ऑडिटर सीताराम काले कहते है हमने 70 ऑडिटर लगाए और लोगो को करीब पन्द्रह करोड़ की राशि वापस दिलवाई। कोटनिस महाराष्ट्र के थे। 1938 में चीन और जापान में छिड़ गई। लोग मरने लगे। चीन ने मदद की गुहार की। डॉ कोटनिस ने वहां जाकर बड़ी सेवा की और वही अपने प्राण न्योछावर कर दिए, माओ ने कोटनिस के परिवार को अपने हाथ से खत लिखा और डॉ कोटनिस के प्रति श्रदा सुमन अर्पित किये। उसी महाराष्ट्र में 2020 में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे 22 साल के एक नौजवान को एक एक कर पांच प्राइवेट अस्पतालों ने बीमारी की हालत में भर्ती से भी इंकार कर दिया। अस्पतालों को लगा कि उसे कोरोना है। उसे चार सौ किलोमीटर दूर मुंबई लाया गया और फिर एक सरकारी हॉस्पिटल में इलाज करने की जगह मिली।
महाराष्ट्र में सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिभा शिंदे स्तब्ध रह गई। कहने लगी -ये सब देख कर बहुत झटका लगा। ये तो खुद मेडिकल बिरादरी से था। कम से कम उसे प्राथमिक उपचार तो देना था।उसे बिना जांचे ही कोरोना पीड़ित मान लिया गया। आखिर में उन्हें मुंबई के जे जे हॉस्पिटल में ही जगह मिली।कोरोना ने न केवल आपदा से लड़ने की हमारी क्षमता का इम्तिहान लिया बल्कि हमारे नैतिक मूल्यों का जमकर परीक्षण भी किया।दिल्ली पुलिस को एक एम्बुलेंस कम्पनी के मालिक को गिरफ्तार करना पड़ा। क्योंकि उसने दिल्ली से लुधियाना तक एक मरीज को ले जाने के लिए 1 लाख 20 हजार रूपये लिए। ये अमेरिका के एयर ट्रेवल चार्ज के बराबर होगा। कुछ जगह बिल न चुका पाने के कारण मरीजों के शव को ही रोक लिया गया। ऐसे कई मामले है जब हॉस्पिटल ने बिल न दे पाने पर किसी मरीज का मृत शरीर को भी रोक लिया हो। कुछ मामलो में पीड़ित कोर्ट तक गए और राहत लेकर आये।
इन्हे हॉस्पिटल स्थापित करने के लिए बहुत ही रियायती दरो पर सरकार के द्वारा जमीन मिलती है। उसमे शर्त होती है कि कुछ प्रतिशत जगह गरीब मरीजों के लिए सुरक्षित रहेगी। पर हॉस्पिटल इसकी पालना नहीं करते है। के माधव राव भारत के पहले दलित मुख्य सचिव थे।1997 में वे आंध्र के मुख्य सचिव बने। उन्होंने अपनी यादो में प्राइवेट हॉस्पिटल के सामने शासन की बेबसी का जिक्र किया। यह मामला अपोलो हॉस्पिटल का है। वे लिखते है कि भूमि आवंटन में शर्त थी कि हॉस्पिटल गरीबों का उपचार निशुल्क करेंगे। पर मुख्यमंत्री से लेकर विधायक तक हॉस्पिटल के सामने बेबस साबित हुए।यहाँ तक कि कोर्ट कचहरी भी कुछ नहीं कर पाया।कुछ प्राइवेट हॉस्पिटल अच्छा काम भी कर रहे है। पर अगुलियो पर गिनती करते हैं तो फिर संख्या बहुत कम है। सरकारी हॉस्पिटल्स और उनके वही काम करने वाले कोरोना वारियर्स कोरोना काल के वाकई हीरो है। उन्हें अपने नज़र से ख़ारिज मत कीजिये।
ब्रिटेन एक पूंजीवादी देश है। पर वहां नागरिक का पूरा इलाज सरकार का जिम्मा है। ऐन्यूरिन बेवन एक मजदूर नेता थे। वे हेल्थ मिनिस्टर बने और सबसे पहले राष्ट्रिय स्वास्थ्य सेवा खड़ी की। उसे दुनिया की बेहतरीन व्यवस्था माना जाता है। वे कहते थे – गर कोई व्यक्ति इलाज की गुहार लेकर हॉस्पिटल के दरवाजे पहुंचे और उसे पैसे न होने पर बिना इलाज के लौटा दिया जाता है तो वो समाज खुद को सभ्य कहलाने का कोई हक नहीं रखता है।
आपसे से हमारी विनती है। अपने कदम पर फिर से गौर करे। एक बार अवाम के जज्बात आईने में अपनी तस्वीर भी देखे। आपकी चौखट तक इलाज की मुराद लेकर आया व्यक्ति मरीज जरूर है। पर वो आपका अपना भी कोई है। वो रुग्ण अवस्था में जरूर है पर आपके लिए सिर्फ ग्राहक नहीं है। स्वस्थ भारत ही आने वाले समय में सबल भारत बनेगा। इसमें आपकी मदद की जरूरत है। अशोक गहलोत सरकार से गुजारिश है सरकारी अस्पतालों और उनके भीतर बिखरे हुए बीमार तंत्र का सरकारी आफिसों के वातानुकूलित कमरे वाली गद्देदार कुर्सियां छोड़कर अपने क्षेत्र में आकस्मिक निरीक्षण करने के साथ ही और अच्छा करने की कोशिश करे ।
– राजस्थान से राजूचारण