बाड़मेर/राजस्थान- जितने पत्रकारों को में नजदीक से जानता हूँ, और अपनी जितनी समझ है, उसके आधार पर ये आराम से कहा जा सकता है कि भारत सहित पूरे विश्व में पत्राकारिता ‘अजेंडा सेटिंग थ्योरी’ के आधार पर ही चलने लगी है। पत्रकारिता में थ्योरी तो कई हैं, लेकिन आजकल इस थ्योरी से ही सबकी पहचान हो जाती है। डिग्री में अंतर हो सकता है कि कौन कितने प्रतिशत अजेंडा बनाम सही ख़बर कर रहा है, लेकिन हैं तो लगभग सभी मोटिवेटेड ही।
पत्रकारिता जब पढ़ाई जाती है तो एक और टर्म आता है ‘स्लैंट देना’। मतलब ख़बर को किस झुकाव के साथ परोसा जाए। एथिक्स का भी एक पेपर होता है, लेकिन उसका उतना ही मतलब है जितना हमारे स्कूली जीवन में नैतिक शिक्षा का होता है। हर आदमी दूसरों को एथिकल देखना चाहता है, खुद नहीं होता। आज के दौर में एथिक्स, निष्पक्षता और ‘वाचडॉग’ का महत्व मीडिया पर होने वाले सेमिनार और चर्चाओं में ही सिमट कर रहा गया है।
अर्थात यह कि ये सब महज़ एकेडेमिक बातें हैं जिनका प्रयोग आप चर्चा में, किसी से वाद-विवाद या मीडिया की वर्तमान स्थिति पर बातें करते हुए करते हैं ताकि सामने वाले को लगे कि आप वाक़ई चिंतित हैं। जैसे कि दुःखी हो लेना कि मीडिया का काम ये है, लेकिन ये नहीं। ये सब फ़ालतू की बातें हैं। फ़ालतू इसलिए कि आपको लगता है डायनासोर होते तो मज़ा आ जाता, जबकि सत्य यह है कि वो नहीं हो सकते।
आप सच्चाई से बहुत दूर भागते हैं। आपको आदर्श स्थिति चाहिए कि ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि हमने कहीं पढ़ा है कि ऐसा होता तो ग़ज़ब होता। जैसे कि हर आदमी को आठ घंटे काम की बराबर सैलरी मिलनी चाहिए। ये बात सुनकर ही विसंगतियों से भरा लगता है। इसके बुनियाद में ही गलती है क्योंकि न तो हर आदमी एक ही काम करता है, न ही एक ही तरह से उसी काम को करता है, न ही हर आदमी एक जैसा होता है।
अब किसी मार्क्स, एंगल्स या स्कोडा-लहसुन ने कुछ कह दिया, जो आपको बहुत ज़्यादा सेंसिबल लगा क्योंकि ये होता तो वो होता… ऐसे होता नहीं है। आप जिस दिन चाहें उस दिन बारिश नहीं होती, न ही आप लाख कोशिश कर लें राजनीति में साफ़ लोग पहुँचने लगेंगे या मीडिया सही रिपोर्टिंग करने लगेगी। ये मानव जाति की समस्या है कि वो कल्पनाशील होता है। उसे कहानियाँ गढ़ना आता है, वो सोचने लगता है कि हर आदमी को बैठे-बैठे खाना मिलने लगे तो कितना सही रहेगा!
यहाँ पर तर्क गायब हो जाता है। कुछ ऐसा ही आज के मीडिया के मामले में है। हर चीज एक गति से अपने भूतकाल से वर्तमान में आती है और अपना भविष्य बनाती है। इसमें समय, परिस्थितियाँ, समाज आदि उसको प्रभावित करने के मुख्य कारक होते हैं। कोई भी घटना स्वतंत्र नहीं होती। बारिश के होने के लिए वाष्पीकरण होता है, जिसके लिए नदियों को गर्मी मिलनी चाहिए।
मीडिया अगर आज अजेंडा सेट करने में लगी है तो मतलब यह है कि परिस्थितियाँ और समय उसी कार्य के अनुकूल है। यहाँ आप आदर्श मत घुसाइए क्योंकि आदर्श तक पहुँचने के लिए जो समय और परिस्थिति चाहिए उसको भी आपको ध्यान में लाना होगा। क्या आपको लगता है कि आप स्वयं आदर्श हैं? अगर आप हैं भी तो क्या समाज का बहुसंख्यक हिस्सा आदर्श है? क्या वो सही आचरण करता है? सही आचरण से तात्पर्य झूठ न बोलने से लेकर, नागरिक होने के तमाम निर्देशों का पालन करना है।
क्या आप या हम किसी भी स्तर पर आदर्श हैं? क्या आपके दिल की इच्छा नहीं होती कि मीडिया से ऐसी ख़बरें आनी चाहिए, वैसी नहीं? फिर आप क्यों कोसते हैं कि मीडिया तो बिक गई है! मीडिया की इस स्थिति के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी मीडिया को खुद लेनी चाहिए। वो इसलिए कि जब भी इनके तरीक़ों पर सवाल उठते हैं, ये कहते हैं कि हम स्वयं समझदार हैं, और हम ही अपनी समस्याओं को सुलझाएँगे, इसके लिए बाहरी एंटरफेरेंस नहीं चाहिए।
फिर कहिए कि सुधरते क्यों नहीं? इसमें दो बातें हैं। पहली यह कि सुधरना इनके हाथ में नहीं है। इनको एक व्यवसाय चलाना है, जिसके लिए हर सप्ताह इनकी रेटिंग आती है। फिर उसके हिसाब से प्रोग्रामिंग होती है। जबकि मीडिया कोई एंटरटेनमेंट चैनल तो है नहीं कि वो प्रोग्रामिंग करे? उसको तो ख़बरें आती हैं, तो उसको दिखाना है, या फिर चर्चा करानी है। यहाँ जब डेमोग्राफ़िक्स, रेटिंग, लहर, आँधी आदि के हिसाब लगाए जाते हैं तो देखना पड़ता है कि किस बात की रिपोर्टिंग कैसे हो, और किस ख़बर को कैसे दिखाया जाए।
दूसरी बात यह है कि ये बहुत ही आसानी से ये कह देते हैं कि लोग यही पढना ओर देखना चाहते हैं। लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं है ‘वाचडॉग’ की, वो मीडिया की है। इसलिए लोगों को निर्धारित करने का हक़ नहीं देना चाहिए कि उसको बकरी द्वारा एलियन का दूध पीते देखना ज़रूरी है, या दो हज़ार के नोट में चिप की, या फिर किसी की हत्या पर कोर्ट के फ़ैसले से पहले अपने फ़ैसले थोपने की। ये निर्धारण करना भी मीडिया को है कि वो समाज को क्या दिखाना चाहता है।
बड़े, मूर्धन्य पत्रकार खुद स्वीकारते रहते हैं कि हमारा तो एंटरटेनमेंट वाला काम हो गया है। जबकि ये कहने से पहले उनको नैतिकता के आधार पर नौकरी छोड़ देनी चीहिए। आपसे नैतिकता की आशा की जाती है क्योंकि आप उस जगह पर हैं जहाँ से आप एक स्टैंड ले सकते हैं। आपके हाथ में है कि लोग क्या देखें, लेकिन आप अपने व्यवसाय पर ध्यान देते हैं।
मंशा आजकल बहुत ज़रूरी है क्योंकि उसी से पता चलता है कि मीडिया इंसाफ़ की बात कर रहा है या फिर इसको रेटिंग चाहिए। जहाँ किसी मामले में ख़बर का बदल जाता है, ख़बर वहीं दम तोड़ देती है। क्योंकि आपने लोगों के सोचने के तरीक़े को नियंत्रण में ले लिया। जब तक ये साबित न हो जाए कि किसी अपराध के लिए किसी के किसी धर्म या जाति से होना उस अपराध के होने का कारण था, तब तक मीडिया को कोई हक़ नहीं है ऐसी हेडलाइन देने का। किसी का पीड़ित होना अगर उसकी जाति के आधार पर है फिर भी हेडलाइन में उसे लिखना ग़ैरज़रूरी है।
इस पर थोड़ा और कहा जाए तो मतलब यह है कि लोग हेडलाइन पढ़कर ख़बरों के बारे में मन बना लेते हैं। उनके सोचने का रास्ता तैयार हो चुका होता है। आप उनके घृणा या पूर्वाग्रहों को हवा दे चुके होते हैं। जबकि मीडिया को हर ऐसे मौक़े पर, हर ऐसी ख़बर के कवरेज में, ज़िम्मेदारी दिखाते हुए, हैडलाइन को ऐसे रखना चाहिए कि ये एक अपराध है, जो नहीं होना चाहिए। आगे ख़बर की पूरी डिटेल बताने के बाद, ये बताना चाहिए कि पुलिस इस बात की छानबीन कर रही है कि क्या जाति और धर्म से प्रेरित होकर इस अपराध को अंजाम दिया गया।
ये ज़िम्मेदारी मीडिया की है। लेकिन आज के दौर में मीडिया बाइनरी में कार्य कर रहा है। उसके लिए हर बात सत्ता के पक्ष या विरोध में होती है। बिजली आने पर एक हिस्सा भारत के अमेरिका बन जाने की हद तक खुश हो जाता है, तो दूसरा हिस्सा पूरी योजना को असफल बनाने की कोशिश करते हुए चार गाँव ऐसे ले आता है जहाँ बिजली नहीं पहुँची।
बात आएगी कि सरकार ने इतनी सड़कें बनवाईं, तो रिपोर्टरों को सड़के दिखाने की बजाए वैसी सड़क ढूँढ लाने का काम मिलता है जिसमें गड्ढे हों। कहा जाएगा कि ये योजना आई है इससे इतने ग़रीबों को फ़ायदा हुआ है, तो रिपोर्टर दौड़ते हैं ये खोजने कि इसी इलाके की एक औरत है जिसे सिलिंडर नहीं मिला। किसी को इससे कोई मतलब नहीं कि उस औरत को क्यों नहीं मिला। किसी को इससे कोई मतलब नहीं कि जिस सड़क पर गड्ढे हैं वो अभी हुए, या उसपर काम हुआ ही नहीं।
कहने का मतलब यह है कि भारत जैसे बड़े देश में आप जिस भी तरह की ख़बर ढूँढना चाहें आपको
बहुतायात मिल जाएगी। आपको जो दिखाना है, वो आपके रिपोर्टर लाकर दिखा देंगे।
क्या आपको लगता है कि किसी योजना की आलोचना का मतलब यही है कि उसकी सारी ख़ामियाँ गिना दी जाएँ और फ़ायदों पर बात ही न की जाए? आपने एक घर बनाया, गृहप्रवेश का भोज किया और लोग गिन-गिनकर ये कहने लगें कि खिड़की का रंग बुरा है, वहाँ चूना पसर गया है, बाथरूम के नल में फ्लो नहीं है। और इन तीन चीज़ों के छिद्रान्वेषण के आधार पर घर को बुरा मान लिया जाए?
मैं ये नहीं मानता कि मीडिया का काम सत्ता की आलोचना है। ये एक वाहियात और अपनी एकतरफ़ा रिपोर्टिंग को जस्टिफाय करने वाली बात है। ये एक धूर्त आदमी का बयान है ताकि लोग उसे महान मानें। जब मैंने ही तय कर दिया है कि पीला रंग सबसे खूबसूरत है, और मैं पीले रंग की ही शर्ट पहनता हूँ, तो फिर मुझे गलत कौन कहेगा!
मीडिया का काम सत्ता की आलोचना तक ही सीमित नहीं है। मीडिया का एक काम सूचना पहुँचाना है, और एक काम विवेचना है। विवेचना और चर्चा सिर्फ नाकामियाँ और खोट गिनाने के लिए नहीं होती, न ही सिर्फ हर बात को देवत्व के स्तर पर ले जाकर बताने के लिए होती है। जहाँ सत्ता सही कर रही है, जिस अनुपात में कर रही है, उसी अनुपात में आलोचना और विवेचना होनी चाहिए।
सड़कों का बनना, बिजली का पहुँचना, पानी की व्यवस्था होना, किसी भी समाज में हो रहे विकास के प्रमाण हैं। अगर ये किसी सरकार ने किया है, और कर रही है, तो उसकी चूक की याद दिलाते हुए, उसकी अच्छाइयों की चर्चा भी होनी चाहिए। वस्तुतः अच्छाइयों की ‘चर्चा भी’ नहीं ‘चर्चा ही’ होनी चाहिए। ख़ामियाँ हमेशा बाद में आती हैं, उनकी अपनी जगह है, समय है।
ख़बरों का मेकअप बंद होना चाहिए वरना सोशल मीडिया उसे नोंचती रहेगी। बहुत लोग निराश है मीडिया की वर्तमान हालत देखकर। लोग पूछते हैं कि कौन सा पत्रकार या चैनल निष्पक्ष है, मेरे पास जवाब नहीं होता। मैं किसे निष्पक्ष मान लूँ? हर आदमी अपनी जगह छोड़कर ऊपर आना चाहता है। उसके लिए प्रपंच करने होते हैं। किसी को राज्यसभा में जाना है, किसी को कुलपति बनना है, किसी को अपने फ़ायनेंसियल फ़्रॉड को छुपाना है। सब किसी न किसी फेर में लगे हुए हैं।
लेकिन सोशल मीडिया पर आने वाले विचारों को राज्यसभा की राह नहीं दिखती। यहाँ भी खूब फ़ेक न्यूज़ है, लेकिन वो उतना व्यवस्थित नहीं है जितना मेनस्ट्रीम मीडिया करती है। यहाँ फ़ेक न्यूज़ का पता भी चल जाता है, और लोग उसे एक्सपोज़ भी कर देते हैं। लेकिन किसी बड़े मीडिया हाउस द्वारा फैलाए गए प्रपंच को पकड़ना बहुत मुश्किल है क्योंकि लोगों का विश्वास उनपर बहुत ज़्यादा होता है।
इसी विश्वास को भुनाया जाता है। ये एक घटिया हरकत है, और ये कमोबेश सभी मीडिया वाले करते हैं। डिग्री का फ़र्क़ है कि कौन कितना करता है। ये दौर भी चला जाएगा।
– राजस्थान से राजूचारण