राजस्थान/बाड़मेर- हमारे खेत-खलिहानों में रागनियां गाते किसान, कच्चे मिट्टी के घर और झोपड़ियां, ऊबड़-खाबड़ धूल-धुसरित सड़कें, हौले-हौले चलती बैलगाड़ियां, पेड़ की ठंडी छांव में जमी चौपालें, पनघट पर पानी भरती महिलाएं और मिट्टी में खेलते छोटे-छोटे नंग-धड़ंग बच्चे। पहले कहीं भी गांव का जिक्र चलते ही ऐसेे सभी दृश्य अनायास ही हमारे दृष्टिपटल पर अंकित हो जाते थे। लेकिन आज गांवों की यह तस्वीर बदल रही है। खेत-खलिहानों और गांवों की गलियों में अब मारवाड़ी गीतों के स्वर सुनाई नहीं पड़ती हैं। रागनियों का स्थान अब मोबाइल फोन पर बजने वाले बेसुरे फिल्मों के आधुनिक गीत-गानों ने ले लिया है। कच्चे मिट्टी के घर पक्के मकानों में तब्दील हो रहे हैं। हौले-हौले चलती बैलगाड़ियां भी अब कम ही दिखाई देती हैं। बैलगाड़ियों का स्थान ट्रैक्टर और आलीशान हाईटेक प्रणाली की गाड़ियां ले चुके हैं। गांव की चौपालें अब फीकी पड़ने लगी हैं। ग्रामीणों में शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी है इसलिए सभी युवा पीढ़ी गाँव छोड़ कर नजदीकी शहरों में कोचिंग सेंटरों की ओर बढ़ रही है। इतना सब कुछ बदलने के अतिरिक्त गांवों में और भी बहुत कुछ बदलाव आए हैं। ग्रामीणों की मानसिकता भी लगातार बदलती जा रही है। कहते हैं समय की मार से कोई नहीं बच सकता, सो गांव भी समय की मार से नहीं बच सके हैं। आधुनिकता का प्रभाव गांवों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस बदलाव से गांवों ने जहां एक ओर बहुत कुछ प्राप्त किया है वहीं दूसरी ओर बहुत कुछ खोकर अपनों को गंवाया भी है।
सरकारी आकड़ों का मकड़जाल और मूलभूत समस्याओं का समाधान करने के बहाने विकास करने के लुभावने वादे लालीपॉप से ज्यादा दुःखी कर देते हैं साधारणतया किसान से मजदूर एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण खेतिहर परिवारों की औसत आय अब कृषि से ज्यादा दैनिक मजदूरी से होने लगी है। कृषि पर आश्रित एक ग्रामीण परिवार की औसत वार्षिक आय 1,07,172 रुपए है, जबकि गैर-कृषि गतिविधियों से जुड़े ग्रामीण परिवारों की औसत वार्षिक आय 87,228 रुपए है। रिपोर्ट के अनुसार मासिक आमदनी का उन्नीस प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है, जबकि औसत आमदनी में दैनिक मजदूरी का हिस्सा चालीस फीसदी से ज्यादा है। सौ फीसदी ग्रामीण घरों में अब मोबाइल ने अपनी पहुंच बना ली है, जबकि 88.1 फीसद परिवारों के पास बचत खाते हैं। आज अट्ठावन फीसद परिवारों के पास टीवी, पचास फीसद परिवारों के पास दुपहिया मोटरसाइकिल और तीस फीसद परिवारों के पास आधुनिक युग की आलीशान कार उपलब्ध है। इसके अलावा तीस फीसदी परिवारों के पास लैपटॉप और एसी भी पहुंच गए हैं। खेती करने वाले छब्बीस फीसदी और गैर-कृषि क्षेत्र के पच्चास फीसदी ग्रामीण परिवार फसल बीमा के दायरे में आ गए हैं। पेंशन योजना 20.1 फीसदी कृषक परिवारों ने और 18.9 फीसदी गैर-खेतिहर परिवारों ने प्राप्त की है। हालांकि इस सर्वेक्षण पर किसानों के कुछ संगठनों ने प्रश्नचिह्न जरूर लगाया है। उनके अनुसार इस सर्वेक्षण में किसानों की परिभाषा बदल कर आंकड़े जुटाए गए हैं। 2012-13 के एक सर्वेक्षण में उस परिवार को कृषक परिवार माना गया था, जिससे केवल खेती से तीन हजार रुपए तक की आमदनी प्राप्त होती थी। इसकी तुलना 2015-16 के उन आंकड़ों से की गई है जिनमें खेती से पांच हजार रुपए कमाने वालों को कृषक परिवार का दर्जा दिया गया है। बहरहाल, यह सर्वेक्षण किसानों की दुर्दशा की ओर भी संकेत करता है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि ग्रामीण क्षेत्र के सैंतालीस फीसद परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। छोटे किसानों को खेती में अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ रहा है। फलस्वरूप उन्हें नजदीकी गावों और छोटे बड़े शहरों में मजदूरी करनी पड़ रही है। विभिन्न राज्यों के ग्रामीण परिवारों की औसत आय में भी भारी अंतर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज एक ओर तो गांवों में औधोगिक घरानों द्वारा समृद्धि आई है, लेकिन दूसरी ओर गांवों के छोटे-मोटे उद्योग धंधा कमजोर होने के साथ ही दम तोड़ रहा है ।
पहले हमारे गांवों की अपनी एक अलग संस्कृति थी। उस संस्कृति के सुरक्षा कवच में ही दिल को सुकून देने वाली न जाने कितनी चीजें सुरक्षित रहती थीं। सुख-शांति, स्वस्थ प्राकृतिक वातावरण और सहकारिता की भावना, सभी कुछ तो था गांवों में। बुजुर्ग ग्रामीण आज भी गावों में आतिथ्य सत्कार की परंपरा को याद करते हुए रोमांचित हो उठते हैं। जब कभी गांवों में कोई बारात आती थी, तो वह पूरे गांव की बारात होती थी। गांव के सभी लोग बारात का आतिथ्य सत्कार करना अपना धर्म समझते थे। गांव के प्रत्येक घर से लड़की वाले घर पर दूध-दही पहुंचाई जाती थी। लेकिन आज यह बीते जमाने की बात हो गई है। पहले एक घर का मेहमान आने पर पूरे गांव का मेहमान होता था। अगर कोई नया मेहमान गांव में आता था तो गांव के लोग स्वयं उसके साथ चल कर उसे गन्तव्य तक पहुंचाते थे। हालांकि गांव की इस परंपरा में पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा परिवर्तन विकसित शहरों से ज्यादा तो अवश्य हुआ है, लेकिन आज भी गांवों में यह परंपरा काफी हद तक विद्यमान है। पहले शहरों के बड़े-बड़े क्लब गांव की चौपाल के सामने फीके पड़ते थे। गांवों की चौपालों में शहर के क्लबों की तरह इत्र की मादकता तो नहीं बिखरती थी, लेकिन वहां माटी की सौंधी गंध अवश्य बिखरती थी। वह माटी की सोंधी गंध ही हमें बार-बार अपनी मिट्टी से जुड़ा होने का अहसास कराती थी। गांव की चौपाल में बैठ कर एक अजीब-सी शांति का अनुभव होता था। चौपाल में शहर के क्लबों की तरह दिखावटी तौर-तरीके नहीं थे। लेकिन वहां जीवन से जुड़ी हुई अन्य बहुत-सी बातें सिखाई जाती थीं। वहां जो भी कुछ था, वह दिखावटी और बनावटी नहीं था। मसलन, अगर गांव का कोई युवक खाट पर बैठे अपने से बड़े व्यक्ति के सिराहने बैठ जाता था तो उसे जम कर लताड़ लगाई जाती। इस तरह चौपाल गांव के युवकों को उठने-बैठने और मान सम्मान करने का सलीका भी सिखाती थी। अक्सर चौपाल में एक ही चिलम, हुक्का रखा रहता था। सभी लोग बारी-बारी से एक ही चिलम, हुक्के से अपना काम चला लेते थे। सबके मुंह लगे एक ही हुक्के की गुड़गुड़ाहट से सहकारिता का संगीत सुनाई देता था। ऐसा नहीं कि पहले गांवों में ईर्ष्या, द्वेष और गंदी राजनीति का कोई स्थान नहीं था। गांवोें में ये सभी विसंगतियां पहले भी मौजूद थीं। लेकिन आज की तरह इनका स्वरूप विकृत और घिनौना नहीं था।
– राजस्थान से राजूचारण