भारत में 1 जुलाई 2017 से लागू एवं प्रभावी माल एवं सेवाकर अधिनियम अब देश के छोटे व्यापारी एवं प्रोफेशनल्स के लिए जी-का -जंजाल बनता नजर आ रहा है। सीएनबीसी आवाज टीवी चेनल का एक समाचार सोशल मीडिया में घूम रहा है कि 1 जनवरी 2024 से ई-इनवायसिंग की सीमा घटकर 1.50 करोड़ रुपये होने जा रही है, संभावना व्यक्त की गई कि अगले प्रयास में यह सीमा शून्य कर दी जाएगी। स्पष्ट है कि जीएसटी के अन्तर्गत प्रत्येक पंजीकृत डीलर्स को मैन्यूअल ईनवायस के स्थान पर पोर्टल से ई-इनवायसिंग जनरेट करके जारी करना होगा। यहां पर प्रश्न यह उठता है कि जब पूरी तरह से ई-इनवायसिंग जनरेट करने का प्रावधान लागू कर देगी तो ई-वे बिल का महत्व क्या रह जाएगा? क्योंकि दोनों ही प्रपत्रों में बिक्री सम्बन्धित घोषणाएं की जाती है।
सर्वविदित है कि देश के बड़े व्यापारी तो कोई भी साॅफ्टवेयर का उपयोग करते हुए जीएसटी की औपचारिकताएं पूरी सकते हैं परन्तु प्रश्न उठता है कि छोटे व्यापारी कैसे करें? इसके लिए छोटे व्यापारियों को ई-इनवायसिंग जनरेट करने के लिए साॅफ्टवेयर तो लगाना होगा, साथ ही उसके लिए अतिरिक्त स्टाॅफ रखना होगा, उस पर होने वाले खर्च वेतन आदि का बोझ छोटे व्यापारी पर ही पड़ेगा। सरकार करचोरी रोकने के प्रयास में जीएसटी पंजीकृत एवं छोटे डीलर्स पर शिंकजा पूरी तरह से कसने की तैयारी में सरकार सलंग्न है।
कहा जाता है कि जीएसटी पूरी तरह से पेपरलैस है, परन्तु कैसे? क्योंकि अपील दाखिल करो तो उसकी फोटो या कम्प्यूटर प्रति अगले 7 दिन में अपीलेट प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करनी होती है। इसकी व्यवस्था इस प्रकार के पेपरलैस के चलते विभाग का खर्च बढ़ ही रहा है। तो पेपरलैस कैसा?
अब विचार करें कि जब जीएसटी के अन्तर्गत शत-प्रतिशत ई-इनवायसिंग जनरेट करने का प्रावधान लागू हो गया तो सबसे पहले कौन प्रभावित होगा? सबसे पहले प्रभावित होने वाला वर्ग होगा एकाउंटेंट जो कि पंजीकृत डीलर्स के खाते आदि बनाते हैं। अब जब पोर्टल पर ही ई-इनवायसिंग जनरेट होंगे तो खाते पोर्टल पर अथवा अन्य किसी भी साॅफ्वेयर पर स्वतः ही तैयार हो जाएंगे। तो एकाउंटेंट की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी। इनके साथ ही ऐसे अधिवक्ता वर्ग जो अपने व्यापारी के खाते बनाने के साथ उनके रिटर्न आदि दाखिल तो करते ही है साथ ही वर्ष के अंत के बाद आयकर रिटर्न के लिए बैलंेस शीट आदि तैयार करते हैं लेकिन उनकी भी मांग समाप्त हो जाएगी। क्योंकि जीएसटी पोर्टल पर ही बैंलेस शीट मिल जाएगी और आईटीआर भी दाखिल हो जाएगा, छोटे अधिवक्ता की जरुरत भी खत्म!! अब देखें छोटे व्यापारी जिसमें प्रिटिंग प्रेस, बाइंडर्स, के साथ प्रिंटिंग में उपयोग होने वाले स्याही, केमिकल्स, बाईउिंग क्लाॅथ आदि आदि की भी मांग समाप्त हो जाएगी क्योंकि बिल बुक आदि छपने की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि मैन्युअल बिलिंग बंद हो जाएगी और यह वर्ग भी खत्म!
विचार करने योग्य बिन्दु यह भी है कि इस प्रकार के दंडात्मक प्रावधानों से ‘विभाग बनाम पंजीकृत डीलर्स में विवाद’ नहीं बढ़ेगा? प्रश्न यह भी उठता है कि जो व्यक्ति टैक्स देने के उद्देश्य से पंजीकृत डीलर के रुप में व्यापार करने में रुचि रख रहा हो, वह दंड का भागीदार बनें? क्योंकि पंजीकृत डीलर्स के रुप में व्यापार करते हुए टैक्स दें, फिर टैक्सेशन की भारी औपचारिताएं पूरी करें, उसके बाद एक्ट की धारा-62 व 61 तत्पश्चात धारा-73 व 74 के नोटिसों को सामना करे!!
वैसे विचार करने योग्य बिन्दु यह भी है कि हमारे देश में कानून कोई भी बनाओ, उसको उस साल का नाम देकर कह दो कि नया कानून है, नई सोच पर आधारित है परन्तु उस नये कानून का आधार पुराने कानून ही होता है। जैसे माल एवं सेवाकर अधिनियम, 2017 में लागू और प्रभावी किया गया, कहा गया 2017 का कानून है, जो नई सोच को दर्शाता है, परन्तु अध्ययन करने वास्तविकता सामने आती है कि 2017 में लागू एवं प्रभावी कानून तो है लेकिन इस कानून का आधार केन्द्रीय उत्पाद शुल्क कानून 1944 एवं इंडियन कस्टम एक्ट 1962 का है। जीएसटी कानून में जो प्रावधान रखे गये हैं वह अधिकांश प्रावधान केन्द्रीय उत्पाद शुल्क कानून 1944 एवं इंडियन कस्टम एक्ट 1962 से लिए गये हैं। देखें, जीएसटी में विभिन्न धाराओं जैसे धारा-67 व 69 में इंडियन पैनल कोड 1860 को भी समाहित किया गया है अर्थात जब अंग्रेजी ब्रिटिश शासन ने भारत को अधिग्रहित किया था, तब प्रभावी किया था ‘भारतीय दण्ड संहिता, 1860 ;जीएसटी एक्ट की धारा-70 की उपधारा-;2द्धद्ध और साथ में है सी.आर.पी.सी (कोड आॅफ क्रिमिनल संहिता, 1973)। भारत में आपराधिक कानून के क्रियान्यवन के लिये निर्मित दण्ड प्रक्रिया है। सीआरपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता का संक्षिप्त नाम है। जिसके अनुसार जब कोई अपराध किया जाता है तो दो प्रक्रियाएं होती हैं, जिन्हें पुलिस अपराध की जांच करने में अपनाती है। देखें धारा-69। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जो भारत में व्यापार कर रहा है वह अपराध ही श्रेणी में आएगा और 79 साल पुराने केन्द्रीय उत्पाद कर के साथ 62 साल पुराने 1962 के इंडियन कस्टम एक्ट के साथ 50 साल पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का सामना करें। तो आप स्वयं ही बताएं कि 2017 का जीएसटी एक्ट को नया कैसे कहा जा सकता है!!!!
इसके अतिरिक्त ऐसे प्रावधानों का उपयोग करते हुए पंजीकृत डीलर्स का उत्पीड़न का आधार बनाया जा रहा है। जैसे कि यदि कोई डीलर्स अपने मासिक दाखिल करने में देर हो जाता है तब उस पर धारा-47 के अनुसार लेटफीस, साथ धारा-50 के अनुसार देय टैक्स पर ब्याज की देयता होगी। फिर अधिकारी इस देरी पर धारा-125 का रुपये 50 हजार रुपये (25 हजार केन्द्रीय और 25 हजार राज्य का) तक का अर्थदंड भी लगाएगा। अर्थात एक ऐसा कृत्य जो किसी भूल से अथवा मजबूरी में हो गया उस पर तीन-तीन दंड का भागीदार बनेगा। ऐसे ही जीएसटी एक्ट का अध्ययन करेंगे तो देखगें कि पंजीकृत डीलर होना एक ऐसा अपराध जैसा है कि ‘व्यापार में भूल जाओ-दंड के भागीदार बनो’ और स्पष्ट है कि यदि दंड आदि से बचना है ता व्यापार को भूलकर पूरे समय में जीएसटी की औपचारिकताएं पूरी करते रहो।
ऐसा लगने लगा है कि सरकार का यह मानना है कि भारत में व्यापार करने वाला व्यक्ति प्रोत्साहन और संरक्षण का अधिकार पात्र नहीं है बल्कि सजा और दंड का पात्र है। ध्यान देना होगा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया कि ‘राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। तो प्रश्न उठता है कि भारत में व्यापार कर रहे छोटे व्यापारी के पास कोई ‘सरंक्षण’ प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है? स्पष्ट है कि इस प्रकार से नये-नये प्रावधान सुधारीकरण न होकर बल्कि भ्रष्टाचार और मानसिक उत्पीड़न का कारण बनते जा रहा हैं, और उलझाते भी जा रहे हैं।
-पराग सिंहल