जल-सेवा यानी मानव को झुलसाने वाली गर्मी में पुण्यदायी प्याऊ और उनके बदलतें रूप

राजस्थान/बाड़मेर- आजकल पचास डिग्री सेल्सियस तापमान में अगर आपको ठण्डा पानी का एक गिलास गला तर करने को मिल जाए तो आपके द्वारा एक ही शब्द सुनने को मिलेगा, भगवान् आपका भला करें।हमारे शास्त्रों में ग्रीष्म ऋतु में पानी पिलाने की व्यवस्था करना एक पुनीत और धार्मिक कार्य मानते हैं. आने वाले दिनों में गर्मी बढ़ने के साथ-साथ सभी मूक प्राणियों की पानी की आवश्यकता भी बढ़ने लगती है. प्रायः देखा जाता है कि इस मौसम में लोग जगह-जगह पर प्यास बुझाने के लिए प्याऊ की व्यवस्था करते हैं. प्याऊ द्वारा प्यास बुझाने की प्रक्रिया को भारतीय संस्कृति प्रपा दान कहती है।आजकल मटके की जगह छोटे बड़े केम्पर में सड़क किनारे जगह जगह पर मिल जाएं और वो भी बर्फ की ठण्डक युक्त शीतल जल।

भविष्योत्तर पुराण में लिखा गया है कि फाल्गुन मास के बीत जाने पर चैत्र महोत्सव से ग्राम या नगर के बीच में, रास्ते में या वृक्ष के नीचे अर्थात छाया में पानी पिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. सामर्थ्यवान व्यक्ति को चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ इन चार महीनों में जल पिलाने की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए. यदि कम धन वाला व्यक्ति है, तो उसे तीन पक्ष अर्थात वैशाख शुक्ल पक्ष, ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में अवश्य जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए।

स्कंदपुराण के अनुसार तीनों लोकों में जल को जीवन का पर्याय और अमृततुल्य माना गया है, इसलिए पुण्य की कामना वाले लोगों को जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए.शास्त्रों में प्रत्येक मौसम के अनुरूप दान का अत्यंत महत्त्व बतलाया गया है, जिससे गरीब से गरीब व्यक्ति भी सुखपूर्वक रह सके तथा सामाजिक विकास में सभी की भागीदारी हो सके. सर्दी के मौसम में कंबल का दान, लकड़ी और अग्नि की व्यवस्था, वर्षा ऋतु में छतरी का दान या किसी गरीब व्यक्ति के घर को आच्छादित कराना या घर बनवाकर देना तथा ग्रीष्म ऋतु में जल देना, गरीब व्यक्तियों को घड़े का दान करना, सत्तू का दान करना अत्यंत श्रेयस्कर बताया गया है. गरुण पुराण तो यहां तक कहता है कि किसी को जल पिलाने के लिए अगर जल खरीदना भी पड़े तो भी उसको यथाशीघ्र जल पिलाना चाहिए।

शास्त्रों के अनुसार-
वसंत ग्रीष्मर्यार्मध्ये यः पानीयं प्रयच्छति।
पले पले सुवर्णस्य फल माप्रोति मानवः।।

अर्थात् बसंत और ग्रीष्म यानी गर्मी के चार महीनों में घड़े के दान, वस्त्र का दान तथा पीने योग्य जल का जो दान करता है, उनको स्वर्ण के दान के बराबर फल प्राप्त होता है. प्यास से व्याकुल व्यक्ति जिस क्षेत्र से होकर गुजरता है, उस क्षेत्र का पुण्य क्षीण हो जाता हैं इसलिए पुण्य की रक्षा हेतु भी प्याऊ की व्यवस्था करनी चाहिए. बहुत से शास्त्रों में जल पिलाने वाले को गोदान का फल प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है. गर्मी के दिनों में मंदिरों में भी लोग जल की व्यवस्था करते हैं. जल दान के इस धार्मिक महत्त्व को स्वीकार करते हुए भारत में प्याऊ की परंपरा का लंबे अरसे तक अपना अस्तित्व रहा है।

मारवाड़ में भी जहाँ पानी का अभाव रहता था, पुराने जमाने से ही प्याऊ की परंपरा का खास तौर पर पालन किया जाता है. बड़े आकार के मिट्टी के घड़े जिन्हें “मूंण” कहते हैं (जिसमें एक बार में करीब 50-70 लीटर पानी भरा जा सकता है). कई मूंणे जगह जगहों पर सिरकियों की प्याऊ बनाकर उसमें रेत बिछाकर रखी जाती थी, उन मूंणों को लोग स्वेच्छा से जल स्रोतों से पीतल/ तांबे की चरी या बड़े कलश (लंबी सुराहीदार गर्दन वाले) भरकर जल लाकर भरते थे, और कई लोग पैसा देकर जल भरवाने का पुण्यकाम करते थे. फिर वहाँ प्याऊ पर किसी बुजुर्ग महिला पुरुष या जरूरतमंद या निशक्तजन को बिठाया जाता था जो कि सभी राहगीरों को तांबे के बड़े झारे (लंबी नली वाला पात्र) से जल पिलाकर तृप्त करते थे। कई प्याऊऔ पर राहगीरों को पानी पिलाने से पहले गुड़ के टुकड़े भी खिलाये जाते हैं और फिर पानी पिलाया जाता था।

– राजस्थान से राजूचारण

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