वाराणसी। फाल्गुन शुल्क तेरस को भगवान काशी विश्वनाथ अपने औघड़ रूप में काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता की भष्म की होली खेली। महाश्मशान पर एक तरफ जहां चिताएं जलती रहीं वहीं पर फ़िजाओं में डमरू की गूंज और हर-हर महादेव की अनगूंज भी सुनाई देती रही। भांग, पान और ठडई की जुगलबंदी के बीच अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के बीच हर किसी ने एक दूसरे को मणिकर्णिका घाट का भष्म लगाया। इस मौके पर बनारस काशी आए दूर दराज से विदेशी सैलानियों ने भी जम कर मौज मस्ती की। विदेशी सैलानियों के लिए यह कुछ अजूबा सा दिखा। मगर सभी ने खूब मौज मस्ती की। जोगीरा सारा रा रा रा के उद्घोष से महा श्मशान में चिता भस्म की होली का अलग ही माहौल बन गया था। यही तो है औघड़ बाबा भोले दीनानाथ काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी का फाल्गुनी बयार जो कल अपने पार्वती संत पालकी सुसज्जित रंग भरी एकादशी को संपूर्ण रुप से आनंदित होने के बाद आज अपने भक्तों संघ महाश्मशान की होली खेलें।
श्री 1008 महाश्मशान नाथ सेवा समिति के अध्यक्ष चेनु प्रसाद एवं व्यवस्थाक गुलशन कपूर ने सर्वप्रथम महाश्मशान नाथ की आरती और बाबा को भस्म अर्पित किया। फिर 51 वाद्य यंत्रों के बीच आरती हुई। उसके बाद जलती चिताओ के बीच भक्तो ने चिता भस्म की होली खेली। एक तरफ वाद्य यंत्र पर होली गीत बजते रहे और भक्त होली खेलते झूमते दिख रहे थे।
बता दें कि वसंत पंचमी से ही बाबा विश्वनाथ के वैवाहिक कार्यक्रम का जो सिलसिला शुरू होता है वह होली तक जारी रहता है। वैसे भी होली की शुरुआत भी वसंत पंचमी से ही हो जाती है जब होलिका की पहली लकड़ी रखी जाती है। वसंत पंचमी को बाबा का तिलकोत्सव मनाया जाता है तो महाशिवरात्रि को माता पार्वती संग भोले नाथ का विवाह होता है। फिर फाल्गुन शुक्ल एकादशी जिसे अमला एकादशी और रंगभरी एकादशी भी कहते हैं। इन दिन बाबा मां गौरा का गवना करा कर कैलाश पहुंचते हैं। उस दिन बाबा विश्वनाथ अबीर गुलाल संग भक्तों के साथ होली खेलते हैं। उनके भाल पर सबसे पहले गुलाल लगता है फिर शुरू हो जाता है होली का हुड़दंग। उसके अगले ही दिन जब बाबा गौरा करा लेते हैं तब अपने अनन्य गणों भूत-पिशाच, औघड़ लोगों के साथ महाश्मशान में चिता के भस्म के साथ होली खेलते हैं। लिहाजा मंगलवार को महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म के साथ होली की रस्म अदा की गई।
कई युगों से देखते आ रहे हैं काशीवासियों की मानें तो रंगभरी एकादशी के एक दिन बाद बाबा विश्वनाथ खुद भक्तों संग महाश्माशन घाट मणिकणिका आकर होली खेलते हैं। कहा जाता है कि मृत्यु के बाद जो भी मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार के लिए आते हैं, बाबा उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं। मान्यता है कि काशी में प्राण छोड़ने वाले को शिवत्व की प्राप्ति होती है। सृष्टि के तीनों गुण सत, रज, तम इसी नगरी में समाहित है। मान्यता के अनुसार महाश्मशान ही वह स्थान है जहां कई वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार के संचाल का वरदान दिया था। काशी के मणिकर्णिका घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी। काशी दुनिया की एक मात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगलमाना जाता है। मृत्यु को लोग उत्सव के रूप में लेते हैं। मय्यत को ढोल नगाड़ों के साथ श्मशान पहुंचाते हैं। मान्यता यह भी है कि रंगभरी एकादशी के दिन माता का गौना करारने के बाद देवगण व भक्तों के साथ बाबा होली खेलते हैं। लेकिन भूत-प्रेत, पिशाच, आदि जीव जंतु उनके साथ होली नहीं खेल पाते ऐसे में वह अगले दिन मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान करने आते हैं और अपने गणों के साथ चिता भस्म से होली खेलते हैं। नेग में काशीवासियों को होली और हुड़दंग की अनुमति दे जाते हैं। कहते हैं साल में एक बार होलिका दहन होता है लेकिन महाकाल स्वरूप भोलेनाथ की रोज होली होती है। अगर पुरानी पूर्वजोंनो की माने तो भोलेनाथ भस्म होली खेलने के लिए स्वयं काशी मणिकर्णिका घाट इन दिनो आते हैं। और तमाम चिताओं संघ चिता भस्म की होली खेलते हैं।कहा जाता है भोले औघड़दानी जो बनारस के भक्तों के संग भी किसी ना किसी रूप में इस वक्त पाए जाते हैं। काशी के मणिकर्णिका घाट सहित प्रत्येक श्मशान पर होने वाला नरमेध यज्ञ रूप होलिका दहन ही उनका अंप्रतिम विलास है।
रिपोर्टर- महेश कुमार राय वाराणसी।