महानगर अर्थात् ऊँची-ऊँची इमारतों, बड़े-बड़े कल-कारखानों, दुकानों तथा दौड़ते वाहनों आदि से पूरित घनी आबादी वाला शहर । न्यूयार्क, वाशिंगटन, लंदन, टोक्यो, पेरिस आदि विश्व के कुछ प्रमुख महानगर हैं । हमारे भारतवर्ष में दिल्ली, कोलकाता, मुंबई तथा चेन्नई को महानगर की संज्ञा दी गई है । महानगरीय जीवन अनेक रूपों में मनुष्य के लिए किसी वरदान से कम नहीं है परंतु वहीं दूसरी ओर यह त्रासदी अथवा अभिशाप भी है ।
प्राय: देखने को मिलता है कि ग्रामीण अंचलों से लोग शहरों तथा महानगरों की ओर पलायान करते हैं । हर वर्ष महानगरों की जनसंख्या उक्त कारणों से बढ़ती ही जा रही है । महानगरों का गतिशील जीवन भौतिक सुख व अन्य सुविधाओं की चकाचौंध उन्हें आकृष्ट करती है ।
देखा जाए तो खेलकूद मनोरंजन अथवा व्यवसाय आदि के लिए यहाँ सभी संसाधन उपलब्ध होते हैं । व्यक्ति में छिपी प्रतिभा को विकसित करने हेतु भी यहाँ सकारात्मक वातावरण प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त महानगरों में कुशल चिकित्सक एवं चिकित्सा के विश्वस्तरीय साधन उपलब्ध होते हैं । आवश्यकता पड़ने पर कुछ ही समय में रोगी को उत्तम चिकित्सा उपलब्ध कराई जा सकती है । पठन-पाठन की दृष्टि से भी महानगरों में उत्तम वातावरण होता है ।
महानगर एक ओर जहाँ मनुष्य के समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं, वहीं दूसरी ओर इनमें निहित विषमताएँ लोगों को अभिशप्त जीवन जीने के लिए भी बाध्य करती हैं । जिस तीव्र गति से महानगरों की जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जा रहा है, उस गति से संसाधनों का विकास हो पाना संभव नहीं है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ का जीवन पहले की तुलना में अधिक संघर्षमय हो गया है । सभी क्षेत्रों में निजीकरण की प्रक्रिया से प्रतिस्पर्धा बढ़ी है । फलत: धनी व निर्धन के बीच का अंतर और गहराता जा रहा है । कल-कारखानों एवं मोटर गाड़ियों की संख्या में निरंतर वृद्धि से ध्वनि, जल तथा वायु प्रदूषण सभी में वृद्धि हुई है । कुछ महानगरों में यह प्रदूषण मनुष्य व अन्य जीव-जंतुओं के लिए घातक सिद्ध हो रहा है ।
उदाहरण के लिए जापान के टोक्यो महानगर में ऑक्सीजन की मात्रा इतनी घट गई है कि वहाँ लोगों को समय-समय पर कृत्रिम ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है । हमारी राजधानी दिल्ली की गणना भी विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित महानगरों में होती है। हमारे देश के महानगरों में एक ओर तो अट्टालिकाएँ हैं वहीं दूसरी और झोपड़पटटियाँ भी है । गाँवों से पलायन कर यहाँ आए निर्धन श्रमिकों का स्थायी निवास ये झोपड़पटटियाँ ही हैं जहां जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं का हमेशा अभाव बना रहता है । परंतु यहाँ रहना एक ऐसी मजबूरी है जिसका उनके पास कोई समाधान नहीं है ।
महानगरीय जीवन में समस्त भौतिक सुख – सुविधाओं की चकाचौंध देखी जा सकती है पर इस चकाचौंध में जीवन मूल्यों का निरंतर हास हो रहा है । लोगों में प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, सहनु भूति, दया तथा ममता आदि भाव निरंतर लुप्त होते जा रहे हैं जिसके फलस्वरूप चोरी डकैती, हत्याएँ, मार – काट एवं अन्य अपराधों में दिन – प्रतिदिन वृदधि हो रही है । लोग वर्षों तक अपने पड़ोसियों से बिना परिचय के ही काम चला लेते हैं क्योंकि उनके पास समय का अभाव होता है । हर कोई हर समय अपनी ही धुन में खोया रहता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महानगरीय जीवन सिक्के के दो पहलुओं की भाँति वरदान व अभिशाप का सम्मिश्रण है ।
– बरेली से आशीष जौहरी