भांग धतूरा बेल का पत्ता तीनों लोकों में तेरी सत्ता हर हर महादेव:जागेश्वर धाम

उत्तराखंड- हिमालय के पवित्र क्षेत्र में स्थित जागेश्वर धाम भगवान शिव का परम कल्याणकारी धाम माना जाता है, भगवान शिव के पृथ्वी पर पिण्डी स्वरूप में अवतरित होने की घटना सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में घटी है। यह स्थान आदिकाल से पूज्यनीय रहा है। पृथ्वी की करुण गाथा व गहन वेदना को दूर करने के लिए ही सर्वप्रथम शिव इस वसुंधरा में जागेश्वर में ही प्रकट व अवतरित हुए।
– दारूकानन: -जागेश्वर क्षेत्र में भगवान शिव के प्रकट होने की कथा बड़ी रहस्यभरी है। यहीं से उन्होंने कैलाश खण्ड, केदारखण्ड, पातालखण्ड, काशीखण्ड, रेवाखण्ड, नागखण्ड सहित अनेकों रूपों में अपनी लीलाओं का विस्तार किया, यह समूचा क्षेत्र शिव का विचरण स्थल माना जाता है। यहां स्थित नागेश का ज्योतिर्लिंग मंदिर आदिकाल से शिव महिमा की अलौकिक सौगात है। भक्तजन, श्रद्वालुजन इस मंदिर के दर्शन कर अपना लोक व परलोक दोनों ही संवारते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का जीर्णोद्वार महाराज विक्रमादित्य ने किया था, उसके बाद आदि जगतगुरू शंकराचार्य ने पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। शिव और शक्ति की अद्भुत महिमा से यह भूभाग सर्वत्र ही पूज्यनीय है।
पृथ्वी के चरित्र के वर्णन के साथ ही पुराणों में इस क्षेत्र का वर्णन मिलता है। पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दुःखी यज्ञ की भस्म को अपने सारे शरीर पर मलकर शिव ने इन क्षेत्रों के वियावान घनघोर जंगलों में हजारों वर्ष तक तप किया, शिव महिमा के इस पावन चरित्र का वर्णन करते हुए वेद व्यास जी ने जिज्ञासु ऋषिगणों को यह रहस्य बतलाते हुए कहा कि पृथ्वी पर शिवलिंग का पतन सर्वप्रथम इसी स्थल पर हुआ, जिसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा है- दक्ष प्रजापति की काली नाम की कन्या के साथ शंकर ने विवाह किया। विवाह के काफी समय पश्चात महामाया काली ने यह सुना कि उनके पिता ने यज्ञ आरंभ किया है। उस यज्ञ में उन्होंने भगवान शंकर से भी चलने का अनुरोध किया किन्तु नीति व मर्यादा के अनुसार आमंत्रण न होने के कारण भगवान शंकर ने यज्ञ में जाना उचित नहीं समझा तथा भांति-भांति से अपनी अर्धांगिनी को भी समझाया लेकिन वे इस पर राजी नहीं हुई और अपने पिता के घर बिना बुलाये ही चली गई। वहां यशस्विनी काली ने अन्य स्त्रियों तथा अपनी बहिनों को पूर्ण सम्मान के साथ देखा और शंकर का यज्ञ में कोई भाग न होने से वे कुपित हो उठी और यज्ञ कुण्ड में प्रवेश कर अपनी आहुति दे डाली। भूतभावन भगवान शंकर काली को भस्म हुआ जानकर दक्ष की राजधानी में प्रज्वलित अग्नि की तरह विकराल रूप धारण कर पहुंच गये। समूचा यज्ञ मण्डप क्षेत्र त्राहिमाम हो उठा। ब्रह्मा ने शंकर का अनुनय विनय कर उन्हें शांत कर दक्ष की रक्षा करवायी, तत्पश्चात महादेव जी घोर तपस्या के संकल्प के साथ भू-लोक को चले आये, अपने गणों सहित विन्ध्य पर्वत में आकर नन्दी के साथ एक वर्ष तक उन्होंने घोर तपस्या की। फिर इस स्थान को त्याग कर हिमालय के अनेकों भागों में तपस्या की, अन्ततः शिवजी ऐसे घोर वन में गये जहां दिन-रात हिमपात होता रहता था। अनेक प्रकार के वनचरों से सेवित यह स्थान दारूकानन क्षेत्र था। यहीं उन्होंने अपना वास स्थान बनाया तथा यहीं वृक्षों की छाया से घिरे हुए व्याघ्र चर्म के उग्र आसन पर बैठकर घोर तपस्या आरंभ कर दी। समस्त संसार के दुःखों का हरण करने वाले भगवान शिव सती के वियोगजन्य दुःख को स्मरण कर ध्यानमग्न हो गये। इस अवस्था में आठ हजार पर्वतनायिकाओं ने उनकी स्तुति कर अपना जीवन धन्य किया।
दारूकानन के इसी पावन क्षेत्र के आसपास वशिष्ठ आदि महर्षिजनों ने भी अपनी-अपनी पत्नियों व शिष्यगणों के साथ इस स्थान पर साधना की। कहा जाता है कि ऋषि पत्नियां एक बार दैनिक सामग्री की खोज में उस पवित्र वन में गईं जहां भगवान शिव आसन जमाये बैठे थे। एकाग्रचित ध्यान में सम्पूर्ण शरीर पर भस्म रमाये हुए सर्पों की माला से सुशोभित व्याघ्र चर्म को ओढ़े शिव का यह रूप हजारों विश्वमोहन रूप से भी ज्यादा आकर्षक था, जिनके चरणों का ध्यान योगीजन किया करते हैं वे स्वयं अपने ध्यान में स्थित थे। वे मुनि पत्नियां नहीं लौटी तो तब चिंतित ऋणिगण अपनी पत्नियों की खोज में निकल पड़े। ढूंढते-ढूंढते वे दारूकानन क्षेत्र में पहंुचे। वहीं शिव को ध्यान मग्न व अपनी पत्नियों को वेसुध पड़ा देखकर शंकाग्रस्त ऋषियों ने शिव को श्राप दे डाला तथा कहा आपने हमारी पत्नियों को मोहित किया है। इसलिए हम आपको श्राप देते हैं कि आपके लिंग का भूमि पर पतन हो।
भगवान शिव का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने श्राप देने वाले ऋषियों को देखा। संसार के कल्याणकर्ता शिव ने निरपराध उस श्राप को सुन ऋषियों से कहा, वैरभाव से भी मेरा दर्शन कर पुत्र-मित्र द्रोहीजन भी मुक्ति लाभ को प्राप्त होते हैं। आप भी मन्वन्तर बदलने पर वैवस्वत मनु के समय अपनी पत्नियों सहित आकाश में उत्तर की ओर तारे बनकर अनन्त काल तक चमकते रहोगे। इस प्रकार शिवजी ने ऋषियों को अनन्त कीर्ति प्रदान कर वहीं पर स्वयं अपना लिंग पतन किया। शिव कृपा से आज भी सप्तऋषि मण्डल उत्तर दिशा में दिखायी पड़ता है। पुण्यस्वरूप शिवलिंग के पृथ्वी पर पतन होने की बात सुनकर समस्त देवताओं ने इस क्षेत्र को अपना वास स्थान चुना।
दारूकानन क्षेत्र में लिंग के पृथ्वी पर गिरते ही पृथ्वी धन्य हो उठी, किन्तु इसके भार को धारण करने में असमर्थता व्यक्त करते हुए पृथ्वी ने भगवान विष्णु की आराधना की। पाताल पर्यन्त से भी अनन्त शिव के अनादि स्वरूप का उन्होंने भगवान विष्णु से वर्णन किया तथा विनती की कि हे प्रभु! भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों में शिव का तेज दुःसह है इसके साथ ही पाताल पर्यन्त पहुंचा हुआ तेजोमय शिवलिंग तो और भी दुःसह है। परम योगी भगवान विष्णु ने धरा की व्यथा को जान भगवान शिव से लिंग के विभाजन की प्रार्थना की ताकि लिंग के भार से दबती पृथ्वी का उद्वार हो। प्रसन्न शिव ने भगवान विष्णु को चक्र से लिंग छिन्न करने की आज्ञा दी। शंकर की आज्ञा पाकर लोकपावन विष्णु भगवान ने शिव के द्वारा प्रकट लिंग को अपने चक्र से काट दिया तथा उन्हें पृथ्वी पर नौ खण्डों में स्थापित किया। जहां-जहां भगवान विष्णु ने उन लिंगों को स्थापित किया वे परम कल्याणकारी तीर्थ बने।
प्रथम भाग मानस के नाम से प्रसिद्व हुआ। मानसरोवर नामक तीर्थ भक्तों के कल्याणार्थ परम पूज्यनीय है। दूसरा भाग कैलाश खण्ड के नाम से प्रसिद्व हुआ, जो दुर्लभ मुक्ति को प्रदान करने वाला कहा गया है और तीसरा भाग केदार नामक विस्तृत खण्ड है, जिसकी महिमा अनादि है। इसके बाद पाताल खण्ड है, जो नाग कन्याओं के नामों से सुसेवित है। तदन्तर काशीखण्ड है, जहां विश्वेश्वर लिंग के रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं। आगे रेवाखण्ड है, जो नर्मदा की विभिन्न धाराओं, सुन्दरता का रूप लेकर नर्मदेश्वर के नाम से पूजित है। फिर रामेश्वरम शोणितपुर का महात्म्य वर्णित है। इसके बाद ब्रह्मोत्तर खण्ड है, जहां कोकर्णेश की पावन कथायें हैं। आगे नागखण्ड का वर्णन आता है। उज्जयिनी नगरी के महात्म्य के साथ इनकी उपासना कर भक्तजन शिवलोक प्राप्त करते हैं।
शिवजी की पावन स्थली दारूकानन क्षेत्र में शिव साक्षात् रूप में प्रतिष्ठित हुए। भगवान शिव के जागेश्वर क्षेत्र में तपस्या करने का क्या रहस्य था? लीलाधर ने यह लीला क्यों रची? इसका भी विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है, जिसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है- कहा जाता है कि मधु व कैटभ महा दैत्यों को मारने के बाद उनके शरीर से जल के समान द्रवीभूत चर्बी जल में ही जम गयी। उन दोनों की चर्बी से पर्वतों सहित वसुधा की कल्पना कर शिव की प्रेरणा से विष्णु ने पृथ्वी की रचना की। फिर कच्छ अवतार धारण कर अपनी पीठ पर पृथ्वी को स्थापित किया तथा ब्रह्मा को आज्ञा दी कि वे सृष्टि में प्राणियों का उत्पादन करें। इस प्रकार सृष्टि चक्र चलने पर अत्रि गोत्र में उत्पन्न अंग नाम के प्रजापति हुए। उनके वंश में पृथु नाम का एक राजा हुआ। राज सिंहासन संभालने पर राजा पृथु की शरण में उनकी प्रजा जन गई तथा कहा कि आप हमारा पालन करें। अपनी प्रजा के इस विनय पर राजा पृथु ने लोगों के हित में गो-रूप धारिणी समग्र पृथ्वी का दोहन किया। इस कार्य से पृथ्वी दुःखी व व्यथित हो गई। वेणु के पुत्र प्रतापशाली राजा पृथु ने अपने धनुष की नोक से सम्पूर्ण पृथ्वी को उठाया। वसुधा पृथ्वीतल को सब ओर से खोदा हुआ देखकर दुःखी पृथ्वी ने राजा पृथु से प्रार्थना की, मैं आपकी पुत्री का स्थान ग्रहण करती हूं, मेरा उद्वार करें। पृथ्वी की गहन वेदना पर तरस खाकर राजा पृथु ने अपनी प्रजा को आज्ञा देकर ग्राम व नगरों का निर्माण करवाया ताकि पृथ्वी की सुन्दरता कुरूप न हो। पुनः राजा पृथु के राज्य में अन्न आदि पदार्थों को लेकर हाहाकार मच गया, तब वेणु के प्रतापी राजा पृथु ने सब लोगों की भरण पोषण की चिंता दूर करते हुए अपने वाणों से ही अपने हाथों पृथ्वी का दोहन किया और पृथ्वी अन्नदात्री व कर्मभूमि के रूप में प्रसिद्व हुई सृष्टि के विस्तार के साथ पृथ्वी की दशा परवश हो गयी और भय से ग्रस्त पृथ्वी गोरूप धारण करके जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु की शरण में गई तथा अपनी व्यथा उन्हें सुनाई। तब भगवान विष्णु ने पृथ्वी की स्तुति पर प्रसन्न हो, कहा कि जब-जब तुम भयग्रस्त होगी, मैं मनुष्य रूप में अवतार लेकर तुम्हारा उद्वार करूंगा। पृथु ने लोक कल्याण के लिए तुम्हारा दोहन किया है इसलिए तुम दुःखी मत हो। रहा सवाल तुम्हारे भयभीत होने का, तुम निर्भय होकर अपने कर्तव्य का पालन करो तथा स्मरण रखो कि देवताओं की वर्ष गणना के हिसाब से हजारों वर्ष के बाद सतयुग के आरंभ में साक्षात शिव पृथ्वी पर आयेंगे। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के वियोग से खिन्न होकर महादेव तपस्या करने भूमण्डल के दारूकानन क्षेत्र में साक्षात रूप में रहंेगे। वहीं पर ऋषियों से श्रापित होकर भगवान शंकर के पुनीत लिंग का पतन होगा। शिवलिंग के पृथ्वी पर गिरते ही तुम निश्चल, निर्मल, पावन गति को प्राप्त होगी, पृथ्वी के साथ-साथ समस्त पृथ्वीवासियों का भगवान शिव की कृपा से कल्याण होगा। दारूकानन सहित हिमालय का पावन क्षेत्र शिव कृपा से धन्य होगा, बाद में गंगा के पृथ्वी में अवतरण से तुम और निहाल हो उठोगी, इस प्रकार भगवान विष्णु ने विस्तार से भांति-भांति अवतारों की महिमा बताकर पृथ्वी को कृतार्थ किया।
अपने परम भक्त भगवान विष्णु के वचन को सत्य सिद्व करने के लिए भगवान शिव ने विराट लीला की रचना की व जागेश्वर में लिंग का पतन कर पृथ्वी व पृथ्वीवासियों का उद्वार किया। आगे इसका महात्म्य विस्तृत रूप से अपनी लीला का विस्तार करता चला गया। दारूकानन के इस पर्वत पर ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि तीनों देवताओं के साथ सिद्वों, विद्याधर गणों, मरीचि, अत्रि आदि महर्षियों, महेन्द्रादि देवों, वाणादि दैत्यों तथा वासुकि आदि नागों एवं यक्षों से सेवित भगवान शंकर देवों और गन्धर्वों से पूजित है। इस स्थान पर क्षण भर आराधना करने पर महापातकी मनुष्य भी परम गति को प्राप्त कर लेता है। भगवान श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश ने जब गुरू वशिष्ठ से यह पूछा कि मुनिश्रेष्ठ पातकों के विनाश के लिए आपके मत में पृथ्वी पर कौन सा क्षेत्र है तथा किस देवता की आराधना से मनुष्य को उत्तम मुक्ति मिलती है। सत्य मार्ग के अन्वेष्टा पुण्यात्माओं के लिए दुष्प्राप्य क्या है? कौन सा ऐसा उपाय है जिससे यमलोक गये हुए लोग कालपाश से रहित हों। तब गुरू वशिष्ठ जी ने श्री राम पुत्र कुश की जिज्ञासा को देखकर उन्हें ऐसे दिव्य तीर्थ स्थल का वर्णन करते हुए बताया कि ऐसे क्षेत्र व ऐसे तीर्थ की जिज्ञासा एक बार ऋषि-मुनियों के हृदय में भी जागृत हुई तथा उन्होंने भगवान विष्णु से बैकुण्ठ भवन जाकर उनकी स्तुति करते हुए यह विनती की कि प्रभु आप ही अज्ञानीजनों के लिए परम गति है। हे प्रभु! कृपा करके ऐसा सुगम उपाय बतलाइये जिससे महापापी भी पाप मुक्त हो सकें। दान यज्ञ तपयज्ञ के बिना भी किस पुण्य स्थल या किस पुण्य क्षेत्र में जाकर पापों का नाश हो सकता है? हे! देवेश! हे कमलनयन! हे महाविष्णो! भूतल पर ऐसे मुक्ति प्रद तीर्थस्थान का रहस्य बतला पाने में आप ही सक्षम हैं। प्रभु हमारा मार्गदर्शन कीजिए।
ऋषि जनों की विनम्र सुन्दर वाणी व उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने हिमालय क्षेत्र में स्थित दारूकानन की दिव्य अलौकिक महिमा से उन्हें विदित कराते हुए अपनी योगमाया से इस स्थान के दर्शन कराये तथा भगवान शिव की जटाओं से निकली हुई जटागंगा के समीपस्थ ही पापनाशक परम ज्योतिर्लिंग का भी दर्शन कराया। रुद्र कन्याओं से सेवित एवं तीनों लोकों को पावन करने वाला यागीश्वर क्षेत्र व इसके दर्शन से कृतार्थ हुए ऋषि जनों ने भगवान विष्णु से पुनः प्रार्थना करते हुए कहा कि हे प्रभु! आप भक्तों के सिद्विदायक हैं अब आप कृपा करके भक्तों को सिद्वि प्रदान करने वाले तथा सभी पापों का नाश करने वाले यागीश्वर तीर्थ का विस्तृत वर्णन कर हमें धन्य करें।
ऋषियों की वन्दना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु बोले, हिमालय के सुरम्य तट पर से सरयू का उद्गम हुआ है। उसके दक्षिण भाग में हिमालय की भांति ही शोभायमान दारूकानन है। इस क्षेत्र में सिद्व, गंधर्व, मनुज, देवर्षि तथा महर्षिजनों का भी वास है। उसके दर्शन करने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। स्पर्श से यह फल दस गुना व स्तुति करने से सौ गुना और जिसने स्वयं को शिव के लिए अर्पित कर दिया है उसका तो फिर कहना ही क्या। भगवान शिव की जटाओं से निकली दारू पर्वत व टंकर्ण पर्वत के बीच की यह जटागंगा स्नान मात्र से समस्त पापों को हर लेती है और यहीं मेरे चरणों से निकली ‘अलकनंदा’ नदी भी है। इन दोनों नदियों के संगम में ही यागीश्वर भगवान विद्यमान हैं और यही स्थान मुक्तिपथ का परम मार्ग है। यह क्षेत्र अनेक सरोवरों तथा सहस्त्रों शिवलिंगों से घिरा हुआ है। नागेश के रूप में विराजमान शिव समस्त शिवलिंगों के कारण स्वरूप हैं। उनकी महिमा इतनी अलौकिक है कि लोगों के नरकवास की अवधि उनके दर्शन न करने तक ही हैं।
जागेश्वर में भगवान शिव की अलौकिक लीलाओं का अनन्त वर्णन है। इस स्थान के सम्बन्ध में अनेक कथायें प्रसिद्व हैं, जिसमें से एक कथा इस प्रकार आती है। यह कथा भी भगवान विष्णु के मुखारबिन्दु से प्रकट हुई है। कहा जाता है कि सुमन्तु गोत्र में ‘सुवट’ नाम का एक ब्राह्मण था। वृद्वावस्था में उसे एक पुत्र प्राप्त हुआ, उसका नाम ‘सुजामलि’ था। पिता से अनुशासित होते हुए भी वह वेदान्तिक बनकर अनैतिक कार्य करने लगा। जुआ खेलना, वेश्याओं के संग रमण करना उसका प्रमुख कार्य बन गया। जब इस बात का पता प्रमाण सहित उसकी माता को चला तो उसने अपने पुत्र को समझाने की लाख चेष्टायें की किन्तु वह नहीं माना और क्रोधावेग में आकर कुल्हाड़ी से अपनी माता को मार डाला और अपनी अनैतिक पाप यात्रा जारी रखते हुए वह मिथिला आ पहुंचा और राजपुत्रों के साथ ध्रूतक्रीड़ा की और उनसे जुए में सब कुछ हार गया। तब उस दुराचारी ने चोरी के रूप में अपनी पाप यात्रा जारी रखी। एक दिन चोरी करते हुए नागरिकों ने उसे जंजीरों से जकड़ लिया तब उसे अपनी माता का स्मरण आया व स्वयं रोते हुए और अपने जीवन में किए गये तमाम पाप कर्मों की निन्दा करने लगा। लोगों को अपने जीवन की पाप यात्रा का वृतान्त कह सुनाया। समय की गति के साथ वह बन्धन मुक्त हुआ और भगवान की पूजा अर्चना करने लगा। लेकिन लोभ से मोहित महापापी माता-पिता का घातक तथा गुरू द्रोही तथा हजारों दुष्कर्म का भागी उस ब्राह्मण की पाप निवृत्ति हो तो कैसे हो। इसी सोच में वह दिन रात डूबा रहता था। एक तपस्वी की संगत मिलने पर उसने अपने हृदय की समस्त पाप व्यथा उनसे कह सुनायी। तब तपस्वी ने कहा हे विप्र! माता के वध के समान महापाप का विनाश सौ युगों में भी यद्यपि संभव नहीं है लेकिन मैं तुम्हारे करोड़ों जन्मों में भी भोग्य इस महापातक को दूर करने का ध्रुव उपाय बतला रहा हूं। तुम सुनो हिमालय के तट पर पुण्य दारू कानन है। दारूकानन व उसके तीर्थ की महिमा अपरम्पार है। वहां पर गो, विप्र, गुरू एवं बालधन तथा मातृ, पित्र, द्रोही जन यदि सच्चे मन से शिव की सरणागत हो जाता है तो समस्त संतापों से मुक्ति पा लेता है।
जागेश्वर की महिमा का वर्णन कर पाने में इस भू-धरा में कोई भी समर्थ नहीं है। शिवलिंगों की उत्पति होने का यही स्थान है। इस मुक्ति स्थान की एक अन्य कथा तपस्वी ने उस दुराचारी ब्राह्मण को बताते हुए कही, शिवलिंगों की उत्पति होने का यही स्थान है। इसस्थान के मुक्तिक्षेत्र होने की महिमा सुनो- काफी समय पहले ‘रिचक’ नामक एक गंधर्व था और उसका वाणक नाम का परम धार्मिक पुत्र था। वह देखने में सुन्दर, दीर्घायु एवं रूप यौवन सम्पन्न था। शिल्पी तथा संगीतज्ञ भी था। साथ ही वह नृत्यकला-निपुण तथा इन्द्रिय विजेता परमवीर भी था। लेकिन माया के प्रभाव के प्रबल रूप से वह बच न सका। उसका सारा ज्ञान ध्यान कपूर बनकर उड़ गया और वह ऋषियों के बीच बैठकर गंधर्व कन्याओं के साथ रमण करने की इच्छा करने लगा। अतः परम धार्मिक ऋषिगण उसके इस आचारण से कुपित हो गये। कुपित ऋषिगणों ने उसे श्राप देते हुए कहा, तुम हमारे मध्य रहकर भी कुलाधम हो गये। अपने दुष्कर्म की भावना के चलते तुम भयंकर राक्षस योनि को प्राप्त करो। इस प्रकार ऋषियों के द्वारा श्राप दिये जाने पर वह अपने पूर्व शरीर को छोड़ राक्षस योनि को प्राप्त हो गया तथा महाविकराल रूप धारण करते हुए वह मनुष्यों को अपना ग्रास बनाते रहा। उस दुर्बद्वि ने अपनी रूपवती बहन के साथ विवाह कर लम्बे समय तक दुष्कर्म किया। एक बार राक्षसों के दलों के साथ घूमते-घूमते वे संयोगवश दारूकानन में पहुंच गया। वहां उन्होंने परम आभामय ‘यागीश्वर’ देव को देखा, साथ ही अपने पूर्व जन्म के सत्कर्म के प्रभाव से उसने देखा कि देवदेवेश, देव, गन्धर्व सहित अनेकों यागीश्वर की सेवा में लगे हुए हैं। भगवान शिव के समीप पहुंचते ही उस अधम राक्षस ने उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम करने मात्र से ही उसका राक्षस शरीर छूट गया। ‘नागेश’ के दर्शन के प्रभाव से पुनः उसने अपने पूर्व शरीर को प्राप्त कर लिया और उसे अपने परिजनों का स्मरण हो आया। बाद में उसने यहीं पर तपस्या करते हुए शिव लोक को प्राप्त किया। इस प्रकार उस ब्राह्मण को भगवान शिव की इस महिमा स्थल का वर्णन करते हुए उस तपस्वी ने कहा जो भी प्राणी विधिपूर्वक दारूकानन में निष्ठा भाव से शिवजी की पूजा अर्चना करता है, वह साक्षात शिवलोक को प्राप्त होता है। दारूकानन क्षेत्र में व्याप्त शिवलिंगों में कुछ तो मानव हितार्थ प्रकाशमान है तथा सैकड़ों लिंग शिला के भीतर समाये हुए हैं। उन सबको प्रणाम कर जो मनुष्य विधिपूर्वक सदाशिव शम्भु को याद करता है उसके लिए फिर कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
यहां स्थित शिवलिंगों में महामृत्युंजय का शिवलिंग भी साक्षात वरदायी है। महामृत्युंजय की आराधना से मनुष्य काल पर भी विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान शिव का महामृत्युंजय के रूप में स्मरण करने से मार्कण्डेय ऋषि, नन्दी सहित असंख्य भक्तों ने अखण्ड धाम को प्राप्त किया है। महामृत्युंजय के पूजन के साथ-साथ उनके वाम भाग में स्थित विश्वेश्वरनाथ जी का पूजन भी अखण्ड सौभाग्य को प्रदान करने वाला कहा जाता है। फिर यहां समीप स्थित गोकर्णेश, विन्ध्येश्वर, वाणीश्वर की पूजा-अर्चना भी महाकल्याणकारक कही गयी है। इस धाम में महाकाल व महाकाली की पूजा भी जन्म-जन्मान्तरों के पापों का नाश करने वाली है। तुष्टि माता व पुष्टि माता जगत के कल्याण के लिए यहीं प्रतिष्ठित है। ‘नागेश’ के साथ में क्रमशः सोमेश्वर, सूर्येश, कमलाकांत एवं ब्रह्मा जी स्थित हैं। सच्चे मन से जो भी प्राणी इनका पूजन करता है वह जीवन का आनन्द लेते हुए मुक्ति को प्राप्त होता है। पश्चिम भाग में गणेश्वर, नन्दीश्वर एवं नन्दा भगवती का पूजन कर प्राणी शिवलोक प्राप्त करता है। फिर चण्डीश्वर, शीतला देवी, वरुणेश तथा महेन्द्रेश का पूजन कर वहां से पूर्व भाग में जाकर बालीश की पूजा-अर्चना का महत्व नागेश की कृपा से परम फलदायी है तथा शिवलोक को प्राप्त कराने वाला है। यहीं स्थित शंकर प्रिय चण्डिका का पूजन सभी लौकिक व अलौकिक फलों को प्रदान करता है। तदन्तर दारूकानन में ब्रह्मतीर्थ के ऊपर प्रकट सभी पापों के विनाशक पंचकेदारों का पूजन परम प्रतिष्ठा के लिए फलदायी कहा गया है। इस पावन तीर्थ दारूकानन में यागीश्वर, चक्रेश्वर, दिव्य देहधारी पवन पुत्र हनुमान, ढुण्डीश्वर, वैद्यनाथ कपर्दि गंगा, महेश्वर का पूजन लोकचक्र के भ्रमण से मुक्त करने वाला है। इस यागीश्वर तीर्थ में गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा आदि सभी मातायें व देवमाताएं भगवान शिव की भक्ति में यहां विद्यमान रहती हैं। इनके साथ ही यहां तुष्टि, पुष्टि, धृति, स्वमाता और कुलदेवी भी विद्यमान है। इसके अतिरिक्त महेन्द्र आदि देव विद्याधर, गन्धर्व, पुष्पदन्त तथा अप्सराओं के समुदाय भी यहां पर स्थित हैं। सिद्व, पिशाच, नाग, महोरग, अष्टवासु, द्वादशार्क तथा मरूदगण भी इसी क्षेत्र में रहते हैं। देवर्षि, ब्रह्मर्षि, दैत्य, दानव तथा महाबलशालिनी डाकिनियों ने भी शिव भक्ति के लिए दिव्य रूप में प्रतिष्ठित होकर इसी स्थान को अपना वास बनाया है। यागीश्वर के साथ-साथ ये सभी वृद्व यागीश्वर ;वृद्व जागेश्वर का भी पूजन करते हुए अखण्ड रूप से आनंदित रहते हैं।
दारूकानन में जागेश्वर नाथ जी के दर्शनों के पश्चात यहीं स्थित परमेश्वरी तथा दक्षिण भाग में क्षेत्रपाल जी की पूजा का भी विधान है। इस प्रकार इस क्षेत्र की यात्रा करने से मानव असंख्य कुलों का उद्वार कर शिवमण्डल को प्राप्त होता है। यहां के तीर्थमण्डलों के दर्शन के पश्चात प्राणी को माता के गर्भवास का दुःख नहीं भोगना पड़ता है। इस क्षेत्र में कायक्लेश के बिना देवादि दुर्लभ शिव भक्ति प्राप्त होती है तथा दर्शन मात्र से शाश्वत मुक्ति मिल जाती है।
इस प्रकार तीर्थ का महात्म्य बतलाकर तपस्वी ने व्याकुल ब्राह्मण से कहा इससे बढ़कर कोई दूसरा तीर्थ नहीं है जो परम फलदायी हो। यहां के असंख्य तीर्थों में कपर्दितीर्थ, बाहुसरतीर्थ, वाण तीर्थ, जामदग्नतीर्थ, वेणु तीर्थ, मौर्वतीर्थ, काश्यपतीर्थ, कौन्चयतीर्थ, बाराहतीर्थ, कमलनाभ तीर्थ के अलावा कपाली, कालाप, प्राणद, लोमहन्ता, कालप्रणाशन, हरीतक, रूपप्रद, सूर्य, शशि, शूलगंगा, ब्रह्मतीर्थ है इसमें स्नान तथा पिण्डदान करने से मानव अपने एक सौ एक कुलों का उद्वार करता है। इस क्षेत्र में दृश्य व अदृश्य रूप में अनेक तीर्थ स्थल मौजूद हैं। जटागंगा के संगम में गौरीशंकर का पूजन जन्म-जन्मांतर के पापों को नाश करने वाला है। इस क्षेत्र में तीन रात्रि तक शिव की पूजा करने वाले ब्राह्मण व भक्त को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।

दारू वन के मध्य में एक पुण्यशील कल्पवृक्ष है इसे जो अच्छी तरह देखते हैं उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है*। यहां की पूजा विधि के सम्बन्ध में कहा गया है सर्वप्रथम ब्रह्मतीर्थ में स्नान कर नागेश के ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए तदन्तर शंकरप्रिया पार्वती की अर्चना के पश्चात परिक्रमा करते हुए यागीश्वर के समीप पहुंचकर उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करनी चाहिए। यहीं पंच रत्नों से युक्त कलश की स्थापना की जाए। गणेश और कार्तिकेय की स्थापना करने के पश्चात पूजन आरंभ करना चाहिए।
ऋषि की वाणी को सुनकर वह ब्राह्मण विधिपूर्वक यागीश्वर का पूजन एवं बार-बार प्रणाम करने के पश्चात उत्तर मार्ग से दारूकानन की ओर चला गया। यहां पहुंचकर दिव्य ज्योतिर्लिंग को देख बड़ा पुलकित हुआ और विधि विधान के अनुसार पूजा-अर्चना कर पूर्वकृत पापों से मुक्ति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की, हे देवेश! मैनें अपनी माता का वध किया है तथा वेश्या गमनादि अनेक दुष्कर्म भी किये हैं। मुझ पापाी को आप मुक्ति प्रदान करें। मैं आपकी शरण में हूं। उस याचक की प्रार्थना सुनकर भगवान शंकर ने उसे दुष्प्राप्य मुक्ति दे दी। गौ, ब्राह्मण, गुरू एवं बालकों की हत्या करने वालों को जहां मुक्ति प्राप्त हो जाती है उस क्षेत्र में पापी ब्राह्मण भी मुक्ति को प्राप्त कर गया। कहते हैं कि जो मनुष्य इस कथा का श्रवण करेगा या लोगों को सुनायेगा वह पापरहित हो अचल कीर्ति का भागी बनकर शिवलोक को प्राप्त करेगा।
महर्षि वशिष्ठ के मुखारबिन्दु से भगवान शिव की अलौकिक महिमा का बखान सुनकर श्री राम पुत्र कुश कृतार्थ हो उठे। पवित्र पहाड़ों की गोद में स्थित दारूकानन के मध्य जो नदियां बहती हैं वे सब सरयू में मिल जाती हैं और पावन सरयू कल-कल धुन में बहते हुए नव जीवन प्रदान करती है, ‘जागेश्वर महिमा’ को पावनता व निर्मलता प्रदान करने में मां सरयू की पावन नदी का पुण्य भी सनातन काल से पूज्यनीय रहा है।

– राजेन्द्रपन्त‘रमाकान्त’,उत्तराखण्ड

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