हम कालाधन की बात करते हैं कि देश में कालाधन बहुत है, लेकिन मेरा प्रश्न है कि देश में कालाधन कब नहीं था, दूसरा प्रश्न है कि कालाधन का सृजन कैसे होता है। सोचना होगा कालाधन पैदान करना हो तो सरकार को करना क्या चाहिए? इसकी रोकथाम की प्रक्रिया क्या अपनानी चाहिए? इसका उत्तर है कि केवल एक नीति तो बनाओं लेकिन उसके पीछे नियम भी होनी चाहिए!! अभी सरकारों की नीति यही रही है कि प्रत्येक व्यक्ति के स्थान पर उच्च आय वर्ग के वालों पर अधिक से अधिक आयकर लगा दो, देश का राजस्व बढ़ेगा ऐसी नीति से परोक्षरुप से बिना किसी प्रयास के देश में कालेधन पैदा होना प्रारम्भ हो जाएगा। हम अपने विचार का हम उदाहरण भी दे सकते हैं और प्रमाण भी।
भारत 1947 में जब आजाद हुआ तब भारत को गरीब देश कहा जाता था, उस समय प्रतिव्यक्ति आय मात्र 330 रुपये आंकी गई थी। साथ ही जब आजाद भारत का अर्थव्यवस्था को आकार देने के लिए बजट के निर्माण करने की योजना बनी और ऐसे बजट को अर्थव्यवस्था का आधार देना था अतः तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने समाजबाद अर्थ व्यवस्था की नीति को स्वीकार करने की मंशा व्यक्त करते हुए देश में बजट निर्माण करने का निर्णय लिया, परन्तु इस नीति से पूर्व ही उस समय से उद्योगपगतियों ने प्रश्न खड़ कर दिया कि आजादी की लड़ाई में सर्वाधिक आर्थिक सहयोग उनके द्वारा प्रदान किया गया और अब जब देश आजाद हो गया तो समाजवाद अर्थनीति लागू कर उनके उद्योग को जनता को सौंपना अन्याय होगा, इस पर उद्योगपगतियों के दवाब के चलते तत्कालीन सरकार ने समाजवाद अर्थव्यवस्था की नीति में पूंजीवाद नीति का भी मिश्रण करते हुए देश की अर्थव्यवस्था बनाकर लागू करने का निर्णय लिया। इस प्रकार देश में जो अर्थव्यवस्था एवं अर्थनीति लागू हुई वह कहने को तो समाजवाद नीति थी, परन्तु वास्तव में वह नीति ‘पूंजीवाद’ से प्रभावित होकर ‘समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था’ की ओर अग्रसर हो गयी।
अब देश में समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने देश के विकास हेतु काम करना पा्ररम्भ शुरु किया तो जनता को दिखाने के लिए समाजवाद को आगे बढ़ाया। देश के विकास एवं अन्य कार्यो के लिए जो राजस्व प्राप्त होना था वह स्रोत था आजादी से पूर्व स्थापित ‘उद्योग’ और धनाड्य वर्ग से अधिक से अधिक प्रत्यक्ष कर के रुप में ‘आयकर’ वसूलने का नीति का निर्धारण हुआ, परिणाम सामने आया ‘आयकर अधिनियम, 1961’ और ‘आयकर नियमावली, 1962 का निर्माण करते हुए ‘संसद’ से पारित कराया गया। लेकिन विशेष मुद्दा था कि आयकर अधिनियम, 1961 पूर्ववर्ती आयकर अधिनियम 1922 से प्रभावित था, जो कि ब्रिटिश शासन द्वारा ब्रिटिश हाउस आॅफ काॅमंस द्वारा बनाते हुए भारत में लागू एवं प्रभावी किया गया था।
समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के चलते देश के उद्योग एवं धनाड्य वर्ग से राजस्व संग्रह की दृष्टि से उस समय के आयकरदाताओं पर आयकर की दर ऐसी निर्धारित की जाती रही जिससे देश में कालेधन के निर्माण का मार्ग खुलता चला गया और परिणाम यह आया कि जितने आकार का भारत का बजट हुआ करता था, उसके समान्तर कालेधन के बजट का स्वतः ही निर्माण होता चला गया। आइए!
समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था: 1947 से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन की नीतियां
समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रभाव प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन की नीतियों से प्रदर्शित हो रहा। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस अर्थव्यवस्था के चलते बजट में आयकर का स्लैब था रुपये 10 लाख रुपए की आय पर 9.33 लाख टैक्स, उल्लेखनीय है कि इस प्रकार का बजट स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वित्तमंत्री के रुप में बजट को संसद में प्रस्तुत किया था। याद रहे कि उस दौरान इंदिरा गांधी के पास वित्त मंत्रालय भी था। नजर डालते हैं उस समय के आयकर स्लैब पर…
1971-72: आयकर टैक्सस्लैब –
इनकम टेक्ससरचार्ज
6000 रू 110
7500 रू 275
10000 रू 550
12500 रू 1018
15000 रू 1485
20000 रू 2875
25000 रू 4600
40000 रू 12650
50000 रू 19550
60000 रू 26450
70000 रू 34500
80000 रू 42550
90000 रू 51175
100000रू 59800
150000रू 105800
500000रू 445050
1000000रू 933800
उल्लेखनीय रहे कि भारत के पूर्व प्रधान मंत्री, डाॅ मनमोहन सिंह 1972 से 1976 के बीच भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे थे। मुख्सय बिन्दुओं पर भी नजर डालें
यदि किसी ने 10 लाख रुपये कमाए, तो वह 9.33 लाख रुपये से अधिक का कर भुगतान करेगा।
आप यह जानकर हैरान होंगे कि 1974-75 में आयकर की दरें सबसे ऊंची दर 97.75 प्रतिशत थी और उस वक्त 11 प्रकार के टैक्स स्लैब थे। इंदिरा गांधी सरकार की इस नीति से कर चोरी और काले धन की शुरुआत हुई, व्यापारी अपनी आय को छिपाने लगे, अधिक टैक्स देने से बचने के विभिन्न उपाय खोजने लगे।
कांग्रेस 1969 में विभाजित हो गई थी। लेकिन उस समय की सरकार अपनी वामपंथी समर्थक छवि दिखाना चाहती थी, जहां धन सृजित करने वालों को आम तौर पर परजीवी के रुप में देखा जाता है।
यह पूरी तरह से एक ऐसी राजनीति के अनुरुप था जिसमें धन बनाने वालों को मुफ्तखोर और उच्च आय अर्जित करने वाले और कर देने वाले नागरिकों को बुरी नजर से देखा जाता था।
परिणाम यह भी रहा कि आयकरदाताओं की संख्या बहुत सीमित थी, जबकि देश की खर्च एवं विकास हेतु राजस्व की आवश्यकता अधिक थी, जिसको पूरा करने के लिए विश्व बैंक, आईएफएम जैसे संगठनों से )ण लेकर पूरा करने लगे, और आज हमारा देश कर्जदार होता गया, एक स्थिति यह भी आ गई कि प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर के समय रिजर्व बैंक के पास जमा सोने का गिरवी रखना पड़ा।
इस नीति का प्रभाव यह रहा कि समाजवाद और वामपंथी सोच के चलते देश का की आम जनता उद्योग एवं उद्योगपतिओं को करचोर मानने लगी और आयकर की देनदारी से स्वयं को अलग मानने लगी।
परिणाम यह भी सामने आया कि जनता के मन में देश के उद्योग एवं उद्योगपतियों को जो सर्वाधिक आयकर के रुप में
उस अवधि के दौरान, इस तरह की उच्च टैक्स दरों ने करदाताओं को करों का भुगतान करके राष्ट्र निर्माण में राजस्व देते थे, उनके प्रति जनता की नकारात्मक सोच पैदा हो गयी। जिसका परिणाम आज हमकों देखने का मिल रही है।
राजनीतिक दल भी स्वयं को गरीब, किसान आदि वर्ग को हितैषी मानने को दर्शाने के लिए उद्योग एवं उद्योगपतियों के खिलाफ जहर उगलने लगे। परिणाम यह भी सामने आया कि पश्चित बंगाल की राजधानी कलकत्ता, जो कि आर्थिक राजधानी माना जाता था, उसने अपनी पहचान खो दी। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक नगर कानपुर, जो कि कपड़ा निर्माण का हब था, वह लुप्त होता गया। बिहार जो कि प्राकृतिक सम्पदा से भरा प्रदेश था, बिहार से भी उद्योग उजड़ गये।
इस प्रकािर सोची-समझी सोच कहें अथवा नीति पूंजीवाद समाजवाद अर्थव्यवस्था अपने विकृत रुप धारण करने में सफल हो गई और भ्रष्टाचार और कर चोरी, एक आदर्श बन गई।
परन्तु जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार आयी और मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने और वित्त मंत्री के रुप में मधु लिमये ने वित्त मंत्री के रुप में बजट को संसद में प्रस्तुत किया तब आयकर स्लैब में भारी कमी की और आयकर की दरें काफी कमी करते हुए राहत प्रदान करने नीति अपनायी। परिणाम सामने यह आया कि देश में करदाताओं की संख्या में बेहताशा वृ(ि हुई और आयकर संग्रह में भी अपेक्षा से अधिक बढ़ने लगा। तभी से क्रम में चल रहा है कि आयकर स्लैब में सरकारें लगातार कमी करती आ रही है।
आयकर स्लैब और आयकर छूट बजट का मापदंड बनता गया
1977 के बाद से देश में एक धारणा बन गई कि बजट में क्या छूट मिली और आयकर की दरें कितनी कम हुई? जबकि बजट के बारे कभी भी यह नहीं समझा गया कि देश प्रतिवर्ष प्रस्तुत होने वाला बजट केवल आयकर की दरें मंे कमी होना और क्या छूट मिली, का आईना कभी नहीं होता बल्कि बजट का सही अर्थ है कि वार्षिक बजट देश की अर्थव्यवस्था का निर्धारण और आय-व्यय का ब्यौरा होता है।
आयकर रिटर्न न भरना क्योंकि हमारी आय ही नहीं है!!
इस नीति का प्रभाव आम जनता में इस अवधारणा को बना दी गई कि आम जनता को आयकर नहीं देना है आयकर देने का उनका कोई दायित्व नहीं है।
पैन कार्ड प्रणाली को लागू करने की मंशा
देश की जनसंख्या के अनुपात में लगातार करदाताओं की संख्या घटने लगी तब विश्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं ने भारत को )ण देने की व्यवस्था पर रोक लगाते हुए भारत सरकार के समक्ष प्रश्न रखा कि लिए जा रहे )णों की अदायगी कैसे होगी? तब वित्त मंत्रालय के आय व व्यय अनुभाग ने आंकलन करते हुए सभी प्रश्नों का उत्तर खोजने की दृष्टि से देश में ‘पैन कार्ड’ प्रणाली को लागू किया ताकि विश्व की संस्थाओं को बता सके कि हमारे यहां इतने आयकरदाता हैं। अतः देश के प्रत्येक नगरिक का ‘स्थायी खाता संख्या’ आवंटित किया जाने लगा। जब इस प्रणाली को लागू किया तब यह प्रचारित किया जाने लगा कि पैन बनवा लो लेकिन आयकर रिटर्न दाखिल करना इसलिए जरुरी नहीं है क्योंकि पैन धारक की आय नहीं है। इस प्रकार 2014 तक यह संख्या जनसंख्या की तुलना में मात्र 3 करोड़ के आसपास रही जबकि 2014 की जनसंख्या लगभग 125 करोड़ थी।
परन्तु मोदी सरकार जब सत्ता में आयी तो आयकर प्रणाली को मजबूती प्रदान करते हुए जनसामान्य को आयकर रिटर्न दाखिल करने और आयकर देने के उद्देश्य से वित्तीय लेन-देन जैसी व्यवस्था को आॅनलाईन करते हुए एक पोर्टल से जोड़ा गया, जिसका परिणाम यह आ रहा है कि आज आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 9.45 करोड़ तक पहंुच गई लेकिन आज भी देश में आयकर देने वालों की संख्सा लगभग 1.50 करोड़ हो पायी है।
1961 की प्रतिव्यक्ति आय बनाम 2022 की प्रतिव्यक्ति आय
एक बात अवश्य ही कहना चाहूंगा कि वर्तमान परिदृश्य में देश में लागू ‘आयकर अधिनियम, 1961 एवं नियमावली 1962’ का आधार 1961 की जनगणना एवं प्रतिव्यक्ति आय पर बनाया गया, उस समय प्रतिव्यक्ति आय मात्र 330 प्रतिव्यक्ति थी, जबकि वित्त मंत्री ने स्वयं ही बजट 2023 प्रस्तुत करते हुए प्रतिव्यक्ति आय का आंकलन 1.97 लाख रुपये संसद पटल में बजट भाषणा के दौरान रखा।
देश में पूंजीवाद को जहर समझा जाने लगा!!
इस पूंजीवादी समाजवाद अर्थव्यवस्था का परिणाम यह सामने आने लगा कि देश के उद्योग एवं व्यापार को अभिशाप माने जाने लगा। आज देश में जब औद्योगिक विकास की चर्चा होती है तब चारों ओर जनता में एवं राजनीतिक दलों द्वारा औद्योगिक विकास का विरोध चहुंओर होने लगता है। जबकि धरातल में सत्य यह है कि देश में 2014 तक कृषि आधारित उद्योग नहीं पनप सके और न ही कृषि विकास हो सका। आज भी भारत में कृषि क्षेत्र में जीडीपी औद्योगिक जीडीपी को पार नहीं कर सकी है। परिणाम यह कि न तो कृषि क्षेत्र का अपेक्षित विकास हो पाया और न ही औद्योगिक विकास!!
विचार करने की आवश्यकता है कि आज भी आयकर नियम एवं धाराएं 330 प्रति व्यक्ति आय पर आधारित है जबकि आज प्रति व्यक्ति आय 1.97 लाख रुपये है। एक ऐसा अधिनियम एवं नियमावली जो सजा एवं उत्पीड़न पर आधारित है। वर्तमान अधिनियम एवं नियमावली कैसे भी और कहीं भी आयकरदाताओं को ‘सरंक्षण एवं प्रेरणा’ प्रदान नहीं करता?? अतः क्या अब ऐसी आवश्यकता का अनुभव नहीं हो रहा है कि अतिशीघ्र ही आयकर अधिनियम, 1961 एवं नियमावली 1962 आज की परिस्थिति, प्रतिव्यक्ति आय और सामाजिक आवश्यकताओं के साथ देश के विकास में आवश्यकता पड़ने वाले राजस्व संग्रह के अनुसार ‘संरक्षण एवं प्रेरणादायक’ कानूनों एवं नियमों नहीं होने चाहिए???
नई कर प्रणालियों ने दिशा दी देश को
1948 में देश में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली बिक्रीकर प्रथम अथवा अंतिम बिन्दु लागू थी, जो कि 2000 तक लागू वैट प्रणाली लागू हुई। परन्तु 2017 में नई अप्रत्यक्ष कर प्रणाली माल एवं सेवाकर प्रणाली लागू एवं प्रभाव की गई। उल्लेखनीय है कि 30 जून 2017 देश की लगभग 130 करोड़ की जनसंख्या के साक्षेप में मात्र 65 लाख पंजीकृत व्यापारी एवं उद्योग थे, परन्तु अप्रत्यक्ष कर प्रणाली माल एवं सेवाकर प्रणाली लागू एवं प्रभाव होने के बाद देश में 1.40 करोड़ पंजीकृत डीलर्स हैं। राजस्व के मामले में गत जनवरी 2023 को अप्रत्यक्ष कर प्रणाली जीएसटी में मासिक राजस्व 1.55 लाख करोड़ का संग्रह हुआ, वह राशि भी उत्साहजनक है।
अंत में हम कह सकते हैं कि 2014 जब से नरेन्द्रभाई मोदी जी प्रधानमंत्री का पद का दायित्व संभाला है कि तब से देश में ‘मेक इन इंडिया’ एवं आत्मनिर्भर भारत नीति नीति के तहत देश के औद्योगिक विकास का परचम विश्व भर में फहराया जाने लगा। क्योंकि पहले देश आयात पर निर्भर था परन्तु अब देश निर्यात हब की ओर अग्रसर हो रहा है।
हम यह कह सकते हैं कि 1 फरवरी 2023 संसद में प्रस्तुत बजट यह संदेश देने में सफल हो रहा कि अब देश का विकास एवं अर्थव्यवस्था की सोच, देश के समग्र विकास की नींव डालेगा।
-पराग सिंहल (आगरा)