*कोराना महामारी में आमजन को खबरों के माध्यम से जागरूक करने पर
बाड़मेर/राजस्थान- यूं कहा जाय तो ग्रामीण पत्रकारिता का इतिहास बहुत पूराना तो नहीं किन्तु अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। समय और सामाजिक व राजनैतिक परिस्थितियों दोनों के अनुसार पत्रकारिता के उददेष्य एवं विष्य वस्तु को परिवर्तित होते रहे है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व की पत्रकारिता में अधिकांश का उद्देश्य राजनीतिक चेेतना जागृत करना था।व्यवसायिकता की पूट उस समय की पत्रकारिता में नहीं होती थी या बहुत कम होती थी।समय के तेवर बदलने के साथ -साथ ग्रामीण पत्रकारिता के भी तेवर बदले कलेवर बदला व्यवसायिकताए बढ़ी ।व्यवसायिसकता की अपनी अनिवार्य शर्तों को पूरा करते हुए आज पाठकों की रूचि बनाएं रखने का प्रयास है।
खबरों की दुनिया में मुख्यधारा की पत्रकारिता की अपनी अलग चुनौतियां तो हैं ही, लेकिन इन सब से परे देखा जाय तो पत्रकारिता में ग्रामीण इलाकों में भी चुनौतियां कुछ काम नहीं हैं। ग्रामीण पत्रकारिता करना बहुत आसान नहीं है। संसाधनों की कमी से जूझते ग्रामीण पत्रकार की चुनौतियों में से सबसे बड़ी चुनौती अनियमित पारिश्रमिक है। कई बार तो इन पत्रकारों को दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए गांवों में जो भी लोग पत्रकारिता से जुड़े हैं वे कोशिश करते हैं कि उनके पास आय के दूसरे स्रोत भी हों ताकि परिवार का खर्च चलाने में मुश्किलें न आएं।
ग्रामिण पत्रकारिता में पत्रकारों की अनियमिता या मामूली पारिश्रामिक और बिना किसी जान पहचान के काम करते जाना उनकी नियति बन गई है। ग्रामीण पत्रकारों के लिए दो जून की रोटी जुटाने के साथ पत्रकारिता के प्रति अपना जुनून बरकरार रख पाना कंबिल- ए -तारीफ के साथ मुश्किल भी होता जा रहा है।‘ ग्रामीण पत्रकारों में से अधिकांश पत्रकार 100 से 200 से लेकर पांच सौ, हजार रुपये रोजाना पर गुजर-बसर करते हैं. इसलिए वे खेती जैसे आजीविका के दूसरे साधनों पर भी निर्भर रहते हैं वरना उनके लिए अपना परिवार चलाना भी मुश्किल ही नहीं न मूमकिन हो जाएगा।
पत्रकारिता की चुनौतियों को दिनों-दिन बढ़ाता हैं। पत्रकारों पर अलग-अलग तरह से स्थानीय नेताओं का राजनीतिक दबाव होता है, इसलिए आजकल हमारे लिए सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.’गाँँवों में पत्रकार जब किसी खबर की छानबीन करता है तब जाति और आर्थिक स्थिति जैसे तमाम तत्व काम करते हैं। ‘मामलों का अतिसंवेदनशील होना भी ग्रामीण पत्रकारों के लिए बड़ा मसला है।
ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता करते वक्त हम (शहरी मध्य वर्ग पेशेवर) में से अधिकांश को हमारी जाति, श्रेणी और सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर फायदा मिलता है। ग्रामीण पत्रकारों के लिए कई बार ये सबसे बड़ी चुनौतियां साबित होती हैं.’मुख्यधारा के पत्रकारों की तुलना में अपने संस्थानों से सहयोग की कमी के कारण उनकी रिपोर्ट की गुणवत्ता में कमी आती है।
पेड न्यूज की बात करें तो कई बार ऐसा होता है जब गांव की कोई खबर बड़ी होकर राष्ट्रीय महत्व की हो जाती है, तब मुख्यधारा का मीडिया उस ग्रामीण पत्रकार का नाम तक नहीं देता जो उस खबर को सबसे पहले उठाता है.’शायद यही सच है। देश के ग्रामीण इलाकों में बुनियादी और दूसरी सुख-सुविधाओं की कमी का भी सामना हमारे पत्रकार मित्रों को करना पड़ता है। इसके अलावा गांवों में इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं की भी कमी होती है।कई जगहों पर इंटरनेट की स्थिति बहुत ही खराब होती है। स्पीड नहीं मिल पाती और खबर भेजने में काफी दिक्कतें होती है.’ जैसे दूसरे ग्रामीण पत्रकार आय के पहले स्रोत के रूप में खेती पर निर्भर हैं. और वैकल्पित तौर पर पत्रकारिता को रखते है। यूं कहिए की वे शौक के लिए पत्रकारिता करते हैं। आजीविका के लिए पूरी तरह से पत्रकारिता पर निर्भर नहीं रह सकते.’है। भारत में ग्रामीण इलाकों की पत्रकारिता के क्षेत्र में इन भयानक स्थितियों के बावजूद आशा की कुछ किरणें भी कभी कभार नजर आती हैं क्योंकि आज कल छोटी बड़ी अखबार गांव गांव तक अपना एक अलग पहचान बना चूकि हैै। ग्रामीण क्षेत्रों की कठिन परिस्थितियों में आशा की किरण जैसे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर शोहरत पाने के लिए ग्रामीण पत्रकारों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है। तब तक ग्रामीण पत्रकारों को न सिर्फ अपने ऊपर के दबाव से निपटना होगा, बल्कि सामाजिक लांछन, राजनीति और गरीबी से भी लड़ना होगा। भारत में ग्रामीण पत्रकारिता और ग्रामीणों का नजरिया जहाँ गाँवों के देश भारत में, लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, देश की बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है। लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता।
पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की खबरों समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं।
ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है। खासकर ड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की खबरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है। फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा। सूचना में शक्ति होती हैं।
ऐसे देखा जाय तोें सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के जरिए नागरिकों को सूचना के अधिकार से लैस करके उन्हें शक्ति-संपन्न बनाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जनता इस अधिकार का व्यापक और वास्तविक लाभ पत्रकारिता के माध्यम से ही उठा सकती है, क्योंकि आम जनता अपने दैनिक जीवन के संघर्षों और रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही इस कदर उलझी हुई रहती है कि उसे संविधान और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठा सकने के उपायों को अमल में लाने की कोशिश करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। ग्रामीण ईलाकों में अशिक्षा, गरीबी और परिवहन व्यवस्था की बदहाली की वजह से समाचार पत्र-पत्रिकाओं का लाभ सुदूर गाँव-देहात की जनता तक नहीं पहूंच पाती है।इसलिए भी गांव की जनता इसका लाभ उठाने स अब भी वांचित है। ग्रामीण इलाके के लोग आज भी बिजली और केबल कनेक्शनों के अभाव में टेलीविजन भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। सालों पहले रेडियो आम जनता का माध्यम था और इसकी पहुँच हर जगह थी, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो, टेलीविजन को ही निभानी पड़ती है। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को एक नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी। रेडियो एवं अन्य जनसंचार माध्यम सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से जनचेतना को जगाने और सक्रिय करने का ही काम कर सकते हैं। लेकिन वास्तविक सक्रियता तो ग्राम पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों और विद्यार्थियों को दिखानी होगी। इसके लिए रेडियो को अपने कार्यक्रमों में दोतरफा संवाद को अधिक से अधिक बढ़ाना होगा ताकि ग्रामीण इलाकों की जनता पत्रों और टेलीफोन के माध्यम से अपनी बात, अपनी समस्या, अपने सुझाव और अपनी शिकायतें विशेषज्ञों तथा सरकार एवं जन-प्रतिनिधियों तक पहुँचा सके। खासकर खेती-बाड़ी, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े बहुत-से सवाल, बहुत सारी परेशानियाँ ग्रामीण लोगों के पास होती हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ रेडियो के माध्यम से आसानी से समाधान कर सकते हैं।
रेडियो को “इंटरेक्टिव” बनाकर ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में वे मुकाम हासिल किए जा सकते हैं जिसे दिल्ली और मुम्बई से संचालित होने वाले टी.वी. चैनल और राजधानियों तथा महानगरों से निकलने वाले मुख्यधारा के अखबार और नामी समाचार पत्रिकाएँ अभी तक हासिल नहीं कर पायी हैं।
टी.वी. चैनलों और बड़े अखबारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं और छायाकारों को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते। कैरियर की दृष्टि से कोई सुप्रशिक्षित पत्रकार ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए ग्रामीण इलाकों में लंबे समय तक कार्य करने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर,ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशतर जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है, जिन्हें अपनी मेहनत के बदले में समुचित पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। इसलिए आवश्यक यह है कि नई ऊर्जा से लैस प्रतिभावान युवा पत्रकार अच्छे संसाधनों से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए उत्साह से आगे आएँ। इस क्षेत्र में काम करने और कैरियर बनाने की दृष्टि से भी अपार संभावनाएँ हैं। यह उनका नैतिक दायित्व भी बनता हैं।
आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता के मुख्य फोकस में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाडि़यों के पीछे भागने की बजाय उस ग्रामीण आम जनता की तरफ भी रुख करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्थाएं चलती है।
पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है। सरकार जनता के हितों के लिए तमाम कार्यक्रम बनाती है नीतियाँ तैयार करती है। कानून बनाती है योजनाएँ शुरू करती है सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं संरचनाओं के विकास के लिए फंड उपलब्ध कराती है, लेकिन उनका लाभ कैसे उठाना है, उसकी जानकारी ग्रामीण जनता को नहीं होती। इसलिए प्रशासन को लापरवाही और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का मौका मिल जाता है।
जन-प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद जनता के प्रति बेखबर हो जाते हैं और अपने किए हुए वायदे जान-बूझकर भूल जाते हैं। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई-नई खोंजे होती रहती हैं शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में नए-नए द्वार खुलते रहते हैं स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र की समस्याओं का समाधान निकलता है, जीवन में प्रगति करने की नई संभावनाओं का पता चलता है। इन नई जानकारियों को ग्रामीण जनता तक पहुँचाने के लिए तथा लगातार काम करने के लिए उन पर दबाव बढ़ाने, प्रशासन के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को उजागर करने, जनता की सामूहिक चेतना को जगाने, उन्हें उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों का बोध कराने के लिए पत्रकारिता को ही मुस्तैदी और निर्भीकता से आगे आना होगा।
किसी प्राकृतिक आपदा की आशंका के प्रति समय रहते जनता को सावधान करने, उन्हें बचाव के उपायों की जानकारी देने और आपदा एवं महामारी से निपटने के लिए आवश्यक सूचना और जानकारी पहुँचाने में जनसंचार माध्यमों, खासकर रेडियो की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नजर हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है।
भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं। इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। अपनी अनन्त संभावनाओं का विकास करने एवं नए-नए आयामों को खोलने के लिए ग्रामीण पत्रकारिता को इस समय प्रयोगों और चुनौतियों के दौर से गुजरना होगा।