डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल सर्वोच्च न्यायालय में मलाईदार परत (क्रीमी लेयर) को लेकर जोरदार बहस चल रही है। कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि क्रीमी लेयर का पैमाना सबके लिए एक-जैसा क्यों हो? उसने पूछा है कि 8 लाख रुपये की सालाना आमदनी की सीमा सब पर एक-जैसी क्यों थोपी गई है? ऊंची जातियों के गरीब लोगों को जो 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है, उसका आधार क्या है? गरीब पिछड़ों और गरीब अगड़ों को एक ही तुला पर क्यों तोला जा रहा है? सरकार ने संकेत दिए हैं कि वह 8 लाख रुपये की सीमा को बढ़ाकर 12 लाख करना चाहती है। यानी जिन परिवारों की आमदनी 1 लाख रुपये प्रतिमाह से कम है, उनके सदस्यों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण दिया जाए। यदि यह छूट दोनों वर्गों को समान रूप से दी जाएगी तो क्या अन्य पिछड़े वर्ग के साथ अन्याय नहीं होगा?
अदालत का कहना है कि जो लोग सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, क्या सरकार ने विस्तृत जांच करके मालूम किया है कि वे लोग ऊंची जातियों या सवर्णों की तरह ही वंचित हैं? क्या उनकी वंचना या गरीबी ऊंची जाति के लोगों की गरीबी और वंचना-जैसी ही है? सचाई तो यह है कि सरकार ने इस तरह का कोई भी व्यवस्थित अध्ययन अभी तक नहीं करवाया है। ऐसे में यही आशंका है कि कहीं सरकार ऊंची जातियों के इस 10 प्रतिशत आरक्षण को खत्म ही न कर दे।
यह आरक्षण 2019 में मोदी सरकार ने संविधान में 103 वां संशोधन करके स्वीकृत करवाया था। जब यह प्रावधान पहले कांग्रेस सरकार करवाना चाहती थी, तब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया और कहा कि संविधान आर्थिक पिछड़ेपन को मान्यता नहीं देता है। अब डर यह है कि सरकार कहीं इस प्रावधान को ही ताक पर न रख डाले। बीजेपी सरकार, जो जातीय वोटों पर कभी आधारित नहीं रही, उसने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करते समय कुछ हफ्ते पहले अपने नए मंत्रियों की जातीय पहचान पर भी जोर दिया था। सरकार को ज्यादा सुविधा इसी हल में महसूस होगी कि वह 10 प्रतिशत का यह विशेष कोटा खत्म कर दे, क्योंकि आरक्षण के आर्थिक आधार को सिद्ध करना बड़ा पेचीदा मामला है। जो आर्थिक आधार एक राज्य में जीवन-यापन के लिए पर्याप्त है, वही दूसरे राज्य में अपर्याप्त हो सकता है। एक ही राज्य के दो जिलों में भी प्रति व्यक्ति आमदनी और खर्च में काफी अंतर हो सकता है। गांव और शहर तथा नगर और महानगर में भी काफी अंतर होता है। इसीलिए अकेले आर्थिक आधार पर आरक्षण की सीमा कैसे बांधी जा सकती है और यदि बांधी ही गई तो उसके दर्जनों संस्करण सरकार और लोगों को तंग करके रख देंगे।
अभी वास्तव में आर्थिक आधार पर आरक्षण मांगने वालों की संख्या 10 प्रतिशत से कम ही रही है। यह आरक्षण दो साल पहले शुरू हुआ था। अभी भी ऊंची जातियों के गरीब लोगों को आरक्षण की यह कला पूरी तरह आकर्षित नहीं कर सकी है लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरेगा, यह मांग 10 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ सकती है। अगड़ी जातियों के ये गरीब लोग शिक्षित और जागरूक ज्यादा होते हैं। वे अपने विशेषाधिकारों के लिए नया राजनीतिक अभियान भी छेड़ सकते हैं। इस समय देश में अनुसूचितों और पिछड़ों की संख्या देश के अगड़ों से कई गुना ज्यादा है। जो सरकार लोकप्रिय बने रहना चाहती है और वोट-प्राप्ति ही जिसकी प्राणवायु है, वह देश की बहुसंख्या को खुश रखने के लिए जो कुछ कर सकती है, जरूर करेगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगड़ों को जब पिछड़ों के बाद 10 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया तो उनके पैरों में काफी चुभीली जंजीरें बांध दी गई थीं। अगड़ों की आठ लाख रुपये की वार्षिक आय में उनका वेतन जोड़ा जाता रहा है जबकि पिछड़ों को जो वेतन मिलता है, वह नहीं जोड़ा जाता है। यदि वे किसान हैं तो उनकी खेती की आय भी नहीं जोड़ी जाती है। पिछड़ी जातियों में मालदार किसानों की भी कमी नहीं है। अदालत के जोर देने पर यह संभव है कि सरकार दोनों वर्गों को दी जा रही सुविधाओं और रियायतों पर शीघ्र ही पुनर्विचार करे और अदालत के सामने आरक्षण का नया नक्शा पेश कर दे।
यहां मूल प्रश्न यह है कि यह जातीय आरक्षण और गरीबी-आरक्षण कब तक चलता रहेगा? यह तो ठीक है कि सदियों से चले आ रहे जातीय भेदभाव से भारतीय जनता को मुक्त करने के लिए ही हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण का प्रावधान किया था लेकिन स्वयं डॉ. आंबेडकर की इच्छा के विपरीत यह अल्पकालिक दवाई भारत की सर्वकालिक खुराक बन गई है। इसमें मुट्ठीभर लोगों को आरक्षण का झांसा देकर करोड़ों गरीबों को जस का तस सड़ते रहने के लिए मजबूर कर दिया है। मेहनतकश मजदूर लोग, वे किसी भी जाति या मजहब के हों या किसी भी गांव या शहर के हों, गरीबी का नरक भोगने के लिए विवश हैं।
नौकरियों और शिक्षा में जातीय आरक्षण ने हमारे देश में जातिवाद के जहर को पहले से भी गाढ़ा कर दिया है। कोई भी पार्टी जातिवाद का सहारा लिए बिना चुनाव की वैतरणी पार नहीं कर सकती। जातिवाद के जहर से भारत के सभी धर्म त्रस्त हैं। जो धर्म, जातियों को मानते ही नहीं, उनमें भी जातीय ऊंच-नीच का भाव जीवित है। भारत ही नहीं, मैंने भारत के पड़ोसी देशों में भी देखा है कि जातिवाद ने उनके सामाजिक जीवन को डस रखा है। यदि भारत में शिक्षा और चिकित्सा लगभग मुफ्त कर दी जाए और वह सबको समान रूप से उपलब्ध हो तो नौकरियों में जातीय आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जिन्हें पिछड़ा और अनुसूचित कहते हैं, वे लगभग 100 करोड़ लोग कुछ ही वर्षों में भारत को एक महाशक्ति और महासंपन्न राष्ट्र में परिवर्तित कर सकते हैं।